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होली कोरा पर्व ही नहीं, संस्कृति भी है -ललित गर्ग

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26 Feb 18
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होली कोरा पर्व ही नहीं, संस्कृति भी है -ललित गर्ग भारत जैसे धर्मप्रधान और तीज-त्योहारों वाले देश में होली अनूठा एवं अलौकिक त्योहार है, यह लोक पर्व है, मनुष्यता का पर्व है, समाज का पर्व है, संस्कृति का पर्व है एवं यह बंधनमुक्ति का पर्व है। इसमें आप समाज को सर्वोपरि मनाने की घोषणा करते हैं। यह विशुद्ध मौज-मस्ती व मनोरंजन का सांस्कृतिक त्योहार है। रंगों का त्योहार होली समस्त त्योहारों का शिरोमणि है। यह हर्षोल्लास, उमंग, उत्साह, एकता, प्रेम और मेल-मिलाप का अनुपम उपहार लेकर आता है। आनन्द एवं उल्लास की अनुपम छटा बिखेरते इस अनूठे, चमत्कारी पर्व पर सभी प्रसन्न मुद्रा में दिखाई देते हैं। चारों ओर रंग, अबीर, गुलाल की फुहार उड़ती दिखाई देती है। सभी हिंदूजन इसे बड़े ही उत्साह व सौहार्दपूर्वक मनाते हैं।
होली अन्य सभी त्योहारों से थोड़ा हटकर है। इसका संदेश मौज-मस्ती से परिपूर्ण है। मानव समुदाय अपने समस्त दुःखों, उलझनों एवं संतापों को भुलाकर ही इस त्योहार को उसकी संपूर्णता के साथ मनाते हैं। फाल्गुन की पूर्णिमा ही नहीं अपितु पूरा फाल्गुन मास होली के रंगों से सराबोर हो जाता है। होली का त्योहार ज्यों-ज्यों निकट आता जाता है त्यों-त्यों हम नए उत्साह से ओत-प्रोत होने लगते हैं ।
होली पर्व का विशेष धार्मिक, पौराणिक व सामाजिक महत्व है। इस त्योहार को मनाने के पीछे एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। प्राचीनकाल में हिरण्यकश्यप नामक असुर राजा ने ब्रह्मा के वरदान तथा अपनी शक्ति से मृत्युलोक पर विजय प्राप्त कर ली थी। अभिमान वश वह स्वयं को अजेय समझने लगा। सभी उसके भय के कारण उसे ईश्वर के रूप मे पूजते थे परंतु उसका पुत्र प्रह्लाद ईश्वर पर आस्था रखने वाला था। जब उसकी ईश्वर भक्ति को खंडित करने के सभी प्रयास असफल हो गए तब हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को यह आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती हुई आग की लपटों में बैठ जाए क्योंकि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। परंतु प्रह्लाद के ईश्वर पर दृढ़-विश्वास के चलते उसका बाल भी बांका न हुआ बल्कि स्वयं होलिका ही जलकर राख हो गई। उसी समय से होलिका दहन और होलिकोत्सव इस रूप में मनाया जाने लगा कि वह अधर्म के ऊपर धर्म, बुराई के ऊपर भलाई और पशुत्व के ऊपर देवत्व की विजय का पर्व है। एक कथा यह भी प्रचलित है कि जब भगवान श्रीकृष्ण ने दुष्टों का दमन कर गोपबालाओं के साथ रास रचाया, तब से होली का प्रचलन शुरू हुआ।यह पर्व विभिन्न संस्कृतियों को एकीकृत कर आपसी एकता, सद्भाव तथा भाईचारे का परिचय देता है। होली का पावन पर्व यह संदेश लाता है की मनुष्य अपने ईष्र्या, द्वेष, नफरत तथा परस्पर वैमनस्य को भुलाकर समानता व प्रेम का दृष्टिकोण अपनाएँ।
होली का आगमन इस बात का सूचक है कि अब चारों तरफ वसंत ऋतु का सुवास फैलनेवाला है। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ रंगों की फुहार फूट पड़ती है, जो मनुष्य के जीवन को आनंद और उल्लास से प्लावित कर देता है। जिससे सम्पूर्ण सृष्टि में उन्मादी माधुर्य छा जाता है। प्रकृति की मन मोहकता को देखकर वसुन्धरा खिल उठती है, उसका रोम-रोम आनन्दातिरेक की सिहरन से भर उठता है। अर्ध मुकुलित नाना वर्णों के पुष्प प्रकृति की नाना इच्छाओं के रूप में विकसित हो उठते हैं एवं फलों में भी गुणवृध्दि हो जाती है, प्रकृति मानव की सदैव चिरसहचरी रही है। वह हमारे सुख-दुख की सहभागिनी है।
जिंदगी जब सारी खुशियों को स्वयं में समेटकर प्रस्तुति का बहाना माँगती है तब प्रकृति मनुष्य को होली जैसा त्योहार देती है। यही कारण है कि होली के प्रति उदासीन नहीं रहा जा सकता। यह त्योहार आपसे दो टूक सवाल करता है-आपको आनन्द बटोरना है या उदासीन होकर कमरे में बन्द रहना है। यह ऊपर से ओढ़ी हुई गंभीरता को चीर कर फेंक देता है और आपको आपके असली रूप में उजागर करता है। इसीलिए इसे व्यक्ति के विवेचन का पर्व कहा जाता है। हमारी दमित इच्छाएं और कुंठाएं विमुक्त हो जाती है। इस दिन हम देख पाते हैं कि किस तरह समाज ने हमारी कुरूपता देखकर भी हमें खारिज नहीं किया। यह बोध व्यक्ति के विरेचन से कहीं आगे ले जाता है।
होली हमारे देश का एक विशिष्ट सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक त्यौहार है। अध्यात्म का अर्थ है मनुष्य का ईश्वर से संबंधित होना है या स्वयं का स्वयं के साथ संबंधित होना। इसलिए होली मानव का परमात्मा से एवं स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार का पर्व है। असल में होली बुराइयों के विरुद्ध उठा एक प्रयत्न है, इसी से जिंदगी जीने का नया अंदाज मिलता है, औरों के दुख-दर्द को बाँटा जाता है, बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है। आनंद और उल्लास के इस सबसे मुखर त्योहार को हमने कहाँ-से-कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है। कभी होली के चंग की हुंकार से जहाँ मन के रंजिश की गाँठें खुलती थीं, दूरियाँ सिमटती थीं वहाँ आज होली के हुड़दंग, अश्लील हरकतों और गंदे तथा हानिकारक पदार्थों के प्रयोग से भयाक्रांत डरे सहमे लोगों के मनों में होली का वास्तविक अर्थ गुम हो रहा है। यद्यपि आज के समय की तथाकथित भौतिकवादी सोच एवं पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, स्वार्थ एवं संकीर्णताभरे वातावरण से होली की परम्परा में बदलाव आया है। परिस्थितियों के थपेड़ों ने होली की खुशी और मस्ती को प्रभावित भी किया है, लेकिन आज भी बृजभूमि ने होली की प्राचीन परम्पराओं को संजोये रखा है। यह परम्परा इतनी जीवन्त है कि इसके आकर्षण में देश-विदेश के लाखों पर्यटक ब्रज वृन्दावन की दिव्य होली के दर्शन करने और उसके रंगों में भीगने का आनन्द लेने प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं। होली को सम्पूर्णता से आयोजित करने के लिये मन ही नहीं, माहौल भी चाहिए और यही होली पर्व की उन्मुक्तता में देखने को मिलता है।
होली में भारत का सांस्कृतिक मानस छुपा है। उस मानस में क्या है? इसे आप हुल्लड़ और रंगपाशी के रिवाजों में समझिए। आप सजे-संवरे बैठे हैं। दोस्तों और रिश्तेदारों का हुजूम आता है और आपको बदशक्ल बना देता है। आप के काले बालों में लाल गुलाल, गोरे चेहरे पर हरा रंग, सफेद कुर्ते पर कीचड़-मिट्टी पोत देता है। और आप हंसते हैं, नाराज नहीं होते। यही ऐसा त्योहार है जो आपको किसी के अशालीन और असभ्य होने पर भी आपको गुस्सा नहीं दिलाता, बल्कि इन स्थितियों में भी आनन्द देता है। ऐसा होना जीवन की अनिवार्यता है। क्योंकि मनुष्य का जीवन अनेक कष्टों और विपदाओं से भरा हुआ है। वह दिन-रात अपने जीवन की पीड़ा का समाधान ढूंढने में जुटा रहता है। इसी आशा और निराशा के क्षणों में उसका मन व्याकुल बना रहता है। ऐसे ही क्षणों में होली जैसे पर्व उसके जीवन में आशा का संचार करते हैं। जर्मनी, रोम आदि देशों में भी इस तरह के मिलते-जुलते पर्व मनाए जाते हैं। गोवा में मनाया जाने वाला ‘कार्निवाल’ भी इसी तरह का पर्व है, जो रंगों और जीवन के बहुरूपीयपन के माध्यम से मनुष्य के जीवन के कम से कम एक दिन को आनंद से भर देता है।
आज की तनाव भर जिंदगी में तो होली जादू की झप्पी की तरह है, इसलिए आज तो होली पहले से कहीं ज्यादा प्रिय होनी चाहिए, क्योंकि आज हर कोई व्यस्त है, हर कोई कहीं पहुंचने, कहीं जाने की जल्दी में है, सबके लक्ष्य अधूरे है क्योंकि हर कोई बहुत महत्वाकांक्षी है, जाहिर है ऐसी जीवनशैली तनाव और तनाव ही देगी। तनाव की इस जिंदगी में जरूरी है हम होली जैसे त्योहारों को वरदान समझें और टीवी, इंटरनेट और मोबाइल से उलझ कर रह गई अपनी जिंदगी को थोड़े उल्लास और उमंगों से सराबोर करे, वास्तव में होली आज की जीवनशैली में वैसी ही है जैसे तपते रेगिस्तान में ठंडी, शीतल बयार, होली दिल से गुबार निकालने का भी एक जरिया है, लोग वैयक्तिक रूप से विपश्यना और विरेचन से गुजरते हैं ताकि तनावमुक्त हो सकें, ताजगी से ओतप्रोत हो सके। होली तो पूरे समाज का सामूहिक विरेचन है। अब तो मनोवैज्ञानिक अपने क्लिनिक में होली जैसा माहौल बनाकर तमाम लोगों को डिप्रेशन से बाहर निकालते हैं, कुदरत ने या कहिए हमारे पुरखों ने हमें यह सौगत मुफ्त में दी है। इसलिए होली के दिन इंटरनेट में मेल भेजकर होली की मुबारकवाद देने के बजाय घर से निकलिए, मुहल्ले में धमाल मचाइए और अपनी ठहरी हुई जिंदगी में भी कुछ हलचल करते हुए कुछ रंगों को जगह दीजिए।
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