“अटलान्टा-अमेरिका में चार दिवसीय आर्य महासम्मेलन आरम्भ”

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Published on : 20 Jul, 18 11:07

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून

“अटलान्टा-अमेरिका में चार दिवसीय आर्य महासम्मेलन आरम्भ” अमेरिका के अटलांटा, जियोर्जिया में 28वां चार दिवसीय विश्व आर्य महासम्मेलन आज 19-7-2018 को आरम्भ हुआ है। भारत से अनेक संन्यासी, विद्वान और आर्यसमाज के सक्रिय ऋषिभक्त इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए सम्मेलन स्थल पर कुछ दिन पहले ही पहुंच चुके हैं। अमेरिका जैसे विकसित देश में जब आर्यसमाज का नाम लिया जाता है तो हमें इससे प्रसन्नता होती है। महर्षि दयानन्द जी ने वेदों व ऋषियों की जो विचारधारा आर्यसमाज को प्रदान की है वह मानवतावादी, वैश्विक और यूनिक अर्थात् अकेली व अनुपमेय है। वेदों के समान विचारधारा भारत सहित संसार के किसी भी देश में नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि वैदिक धर्मी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धान्त व विचार को मानते हैं। यह विचार आदि काल से ही भारत में विद्यमान रहा है और हमारे देश के आर्य व हिन्दुओं ने इसका सदा सर्वदा पालन किया है। जब हम दूसरे मतों को देखते हैं तो वह सब अपने अपने मत की पुस्तकों तक सीमित दीखते हैं। हमें वेदेतर सभी मतों में अनेक न्यूनतायें दृष्टिगोचर होती हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के अन्तिम चार समुल्लासों में इनका विस्तार से उल्लेख किया है। विगत लगभग दो शताब्दियों में संसार में ज्ञान व विज्ञान के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए हैं परन्तु कोई भी मत बदली हुई परिस्थितियों में अपने आप को ढालने के लिए तत्पर नहीं है। उन्हें डर है कि यदि उन्होंने सत्य को ग्रहण किया तो उनका अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है। वेद संसार के आदि ग्रन्थ हैं। ईश्वर से प्रेरित होकर वेदों का आविर्भाव हुआ है। ईश्वर ने पहले कुछ ऋषियों व मनुष्यों को अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न किया और अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा नाम के चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया। महाभारत काल के बाद वेदों को लेकर अनेक प्रकार की भ्रान्तियां उत्पन्न हो गई थीं। महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ, तप, ऊहा व अन्वेषण प्रवृत्ति से वेद विषयक सभी रहस्यों को प्राप्त किया और उसका व्याख्यानों आदि के माध्यम से तो प्रचार किया ही, उन्हें सत्यार्थप्रकाश लिख कर वेद विषयक सभी रहस्य व समाधान भी हमें प्रदान किये हैं। उन्होंने यह रहस्य भी समझाया कि किस प्रकार निराकार, सर्वव्यापक व सृष्टिकर्ता ईश्वर ऋषियों को वेद का ज्ञान देता है। यह पूरी प्रक्रिया उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में विवेचना के साथ उद्घाटित की है। ऋषि दयानन्द ने वेदों की रचना सहित वेद मंत्रों के सत्य अर्थ भी प्रदान किये हैं। उनके दिये गये वेदार्थ पूर्ण पा्रमाणिक एवं व्यवहारिक हैं तथा सम्पूर्ण मानवजाति के लिए उपादेय एवं अमृत प्रदान कराने वाले हैं। यदि सारा विश्व ईश्वर द्वारा वेदों में बताये मार्ग पर चलने लगे तो सारे संसार में स्वर्ग का सा वातावरण बन सकता है। संसार में विद्यमान नाना मतों की परस्पर विरोधी विचारधारा व स्वार्थों के कारण विश्व में अशान्ति सहित छोटी छोटी बातों को लेकर तनाव व युद्ध होते रहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध से कुछ सौ वर्ष पूर्व तक देश व समस्त विश्व में प्रायः सुख व शान्ति का वातावरण रहा है। आज भी यदि वेदों को अपना लिया जाये तो विश्व में एक नये युग की शुरुआत हो सकती है जिससे यह धरा स्वर्गधाम बन सकती हैं।

आर्य महासम्मेलन का उद्देश्य हमें यह लगता है कि आर्य विचारधारा के ऋषिभक्त अनुयायी परस्पर मिलकर पूर्व किए गये व चल रहे वेद प्रचार कार्यों की समीक्षा करें और बदलती परिस्थितियों में अपने अपने अनुभवों के आधार पर वेद प्रचार की सशक्त योजना तैयार करें। अभी तक के अनुभव यह बताते हैं कि अमेरिका में रहने वाले प्रवासी भारतीयों में ही आर्यसमाज की विचारधारा का प्रभाव है। उन्हीं बन्धुओं के द्वारा आर्यसमाज व इसकी गतिविधियों का संचालन होता है। आज की आधुनिकता व अनेक प्रकार के सामाजिक व वैचारिक प्रदुषण में यदि अमेरिका व विश्व के देशों में आर्यसमाज के सत्संग व गतिविधियों चल रही हैं तो हमारी दृष्टि में यह एक शुभ संकेत व सन्तोषजनक स्थिति है। हमें विदेशों के आर्यसमाजों को और अधिक संगठित व बलवान बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। भारत से उच्च कोटि के वेदों के विद्वान जो पाश्चात्य देशों के लोगों से सरलता से अंग्रेजी व वहां की भाषा में संवाद कर सकें, उन्हें बुलाकर वहां के स्कूल, कालेजों, विद्यार्थियों के संगठनों तथा सामुदायिक संगठनों आदि में वेदों का स्वरूप व इनकी प्रासंगिकता, ईश्वर का स्वरूप और हमारा कर्तव्य, आत्मा का स्वरूप व दुःख निवृत्ति के वैदिक उपाय वा समाधान, मनुष्य जीवन का उद्देश्य, लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधन, अष्टांग योग, ध्यान व समाधि, मांसाहार से हानियां, गोदुग्ध की महत्ता व गोरक्षा की आवश्यकता एवं महत्ता, भाषा का ऐक्य स्थापित करने के लिए ईश्वरीय संस्कृत भाषा जो आज भी सृष्टि की सर्वोत्तम भाषा है उसके अनेक पक्षों से विदेशियों को अवगत कराना चाहिये। ऐसे और भी अनेक विषय हो सकते हैं जिनका प्रचार कर हम विश्व में वेदों की सर्वोपरि महत्ता सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के महत्व को बताकर विदेशी बन्धुओं को अपने साथ ला सकते हैं। हम समझते हैं कि देश-विदेश के सभी स्थानों पर आर्य विद्वानों के प्रवचनों का विषय वेद, ईश्वर, आत्मा का स्वरूप, आत्मा की उन्नति व इसके साधन क्या हैं, आध्यात्मिकता क्या है और आध्यात्मिक जीवन की रूपरेखा प्रस्तुत की जानी चाहिये। इन सब से मनुष्य को जो लाभ प्राप्त होते हैं उन्हें भी रेखांकित कर बताना चाहिये। हम जानते हैं कि हमारा प्रत्येक कार्य कुछ न कुछ अच्छा व बुरा प्रभाव डालता है। अतः हम यदि दूसरों के हित व कल्याण की भावना को अपने हृदय में रखकर वेदों की भावना के अनुसार प्रचार करेंगे तो कुछ न कुछ तो लाभ होगा ही। यदि ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है तो कालान्तर में विदेशों में ही अनेक अनुयायी व प्रचारक मिल सकते हैं जैसे कि हिन्दुओं के कुछ संगठनों को वहां मिले हुए हैं व पूर्व के कुछ प्रचारकों को मिले थे।

आर्यसमाज को यह भी करना है कि वह सभी आर्य परिवारों व उनके छोटे बड़े सभी सदस्यों को सन्ध्या व यज्ञ के मन्त्र स्मरण कराने की योजना बनाये। आर्यसमाज में सन्ध्या व यज्ञ के सभी मन्त्रों का परस्पर मिलकर भक्तिभाव से उच्चारण किया जाये। उन्हें कहा जाये कि आप सन्ध्या व यज्ञ के मन्त्रों को तो स्मरण करें ही, साथ में स्वस्तिवाचन और शान्तिकारण के मन्त्रों को भी स्मरण करें। यदि हम किसी को स्वस्तिवाचन के एक दिन में दो मन्त्र भी स्मरण करा देते हैं तो 15 दिनों में ही पूरा स्वस्तिवाचन और उसके बाद 15 दिनों में शान्तिकरण के मन्त्रों को स्मरण करा सकते हैं। हमें सप्ताह में एक बार इन सब मन्त्रों के अर्थों पर भी एक दृष्टि डालती चाहिये जिससे इन मन्त्रों के अर्थों व उनका भाव भी हमें ज्ञात हो। ऐसा होने पर ही हम आर्यसमाज का प्रचार प्रसार कर सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, ऋषि का वेदभाष्य आदि ऋषिकृत ग्रन्थों का नित्य प्रति स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। यदि हम आधा व एक घंटा भी स्वाध्याय करें तो हम कुछ महीनों व वर्षों में आर्यसमाज का प्रमुख सभी साहित्य पढ़ सकते हैं जिससे हमारी आत्मा की उन्नति तो होगी ही, हमारा आचार विचार व ज्ञान भी एक प्रचारक के समान हो सकता है। यह तो हमने सामान्य उपाय बतायें हैं, यदि इसी प्रकार से हम कार्य करते हैं तो हमें स्वतः ही अपने व्यक्तित्व व जीवन निर्माण के नये नये उपायों का ज्ञान होता जायेगा और हमारा जीवन पूर्व की अपेक्षा उन्नत व प्रभावशाली बनता जायेगा।

विदेश में रहने वाले हमारे बन्धु यदि साधना व स्वाध्याय के साथ अपने सम्पर्क के लोगों पर अपने आचरण, व्यवहार व ज्ञान के द्वारा उन्हें वैदिक विचारधारा से प्रभावित करने का प्रयास करेंगे तो निश्चय ही लाभ होगा। इससे उन पर ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का जो ऋण है वह भी घटेगा और हमारे अनुभवों में वृऋ होगी और साथ ही हमारी आत्मोन्नति भी होगी। ऐसा करने से हमें वृद्धावस्था में भी सन्तोष होगा। हमने 28वें आर्य महासम्मेलन, अटलांटा को अपनी दृष्टि में रखकर कुछ समय उपर्युक्त विचारों को अपनी दृष्टि में लाकर उनका लेखन किया। इससे यदि किसी को नाम मात्र भी लाभ होता है या अच्छा लगता है तो हमारा यह परिश्रम सफल होगा।

आर्य महासम्मेलन के आयोजन के शुभ अवसर पर हम आयोजन के संयोजक मण्डल सहित आर्य प्रतिनिधि सभा, अमेरिका के सभी पदाधिकारियों एवं सदस्यों की अपनी हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई देते हैं। ओ३म् शम्।

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