बहुसंख्यकों के अधिकार और भारतीय संविधान

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Published on : 05 Jul, 18 08:07

(विवेक मित्तल) भारत वर्ष को आजादी मिले 71 वर्ष पूर्ण होने को हैं। हम भारतवासियों को एक नियम तन्त्र की पुस्तक जिसे हम भारतीय संविधान कहते हैं, इसी में हम सब की तथाकथित निष्ठा निहित है थमा दी गई है हमारे हाथों में और उसी के आधार पर ‘वी पीपुल ऑव इण्डिया’ बस जीये जा रहे हैं। इतने वर्षों उपरान्त भी हमने कभी संविधान की वैधता/अवैधता के बारे में सवाल-जवाब किये ही नहीं, चिन्तन-मनन किया ही नहीं कि क्या स्वतन्त्रता, समानता की जो बाते इसमें लिखी हैं अक्षरशः सत्य हैं, या कुछ वर्ग के लिये सही हैं तथा कुछ वर्ग के लिये दिखावे मात्र के लिए हैं पालन करने के लिए नहीं।
हमारा संविधान मुख्यतः इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशों की कुछ बातों और मान्यताओं की नकल मात्र है तथा जिन यूरोपीयन देशों की विधि मान्यताओं और परम्पराओं की नकल हमारे संविधान में की गई है उन यूरोपीयन देशों में भी बहुसंख्यकों के धर्म को वैधानिक मान्यता सर्वोच्च स्तर पर प्रमुखता से दी गई है, उनका पालन करना अनिवार्य है। तो फिर आजादी के बाद से भारतीय संविधान में बहुसंख्यकों को विधिक मान्यताओं और परम्पराओं का वंचित क्यों रखा जा रहा है। क्यों हिन्दू धर्मशास्त्रों और हिन्दू न्याय परम्परा तथा ज्ञान परम्परा को तथाकथित सेक्युलरिज़्म के नाम पर कुचल देने की, समूल नष्ट कर देने की साजिशें चली आ रही हैं। आजादी के बाद सत्ता के सरमायेदारों ने कम्युनिज्म से प्रभावित होकर बहुसंख्यकों को दी जाने वाली शिक्षा से धर्म को निष्कासित कर दिया जिसकी एक मात्र वजह है बहुसंख्यक हिन्दू राष्ट्र में भारतीय शिक्षा से हिन्दू धर्म का निर्वासन करना। बहुसंख्यकों को आधुनिकीकरण के नाम पर ठगा जा रहे हैं, छला जा रहा हैं। भारत वर्ष में भी बहुसंख्यकों को पूर्ण एवं स्पष्ट धार्मिक स्वतन्त्रता और वैधानिक संरक्षण प्राप्त होना चाहिए।
वर्तमान में संवैधानिक स्थिति ऐसी बनी हुई है जिसके कारण सम्पूर्ण भारतीय दर्शन नष्ट होने की कगार पर है। बहुसंख्यक हिन्दू अपने अधिकारों के संरक्षण की बात करें तो साम्प्रदायिकता का आरोप मढ़ दिया जाता है। ईसाइ पादरी, मौलवी धर्म की बात करें तो रिलिजन या मजहब का आदेश है, यह दोहरापन क्यों? जबकि हिन्दू धर्म (हिन्दूत्व) तो सम्पूर्ण जगत को एक परिवार मानने वाली विचारधारा है, एकसूत्र में पीरो कर रखने वाली शक्ति है। इसके वितरीत यूरोप में रिलिजन कभी एकता का आधार नहीं बन पाया इसके अनेकानेक प्रसंग हैं। इसलिए सनातन धर्म परम्परा के विस्तार से ही सम्पूर्ण विश्व में शान्ति, सौहार्द, भाईचारे का विस्तार होगा, प्रसार होगा।
हम भारत के नागरिक (वी पीपुल ऑव इण्डिया) यानि भारत में निवास करने वाले सभी लोग हो अपने-अपने धर्मों, पंथों को मानते हैं या नहीं भी मानते निवास करते हैं भारत के नागरिक हैं। भारत के नागरिकों के लिए चाहे वह किसी भी विचारधारा को मानने वाला हो, उन सभी के लिए समान नागरिक संहिता, समान आचार संहिता, समान कानून व्यवस्था होनी चाहिये, दोहरे मानदण्ड और दोहरी विचारधारा का कत्तई स्थान नहीं होना चाहिये। ऊपरी-ऊपरी समानता की बातें करना और वैधानिक स्तर पर दोहरी नीति अपनाना समाज में विकृति पैदा करता है, विखण्डन की स्थिति उत्पन्न होती है। कर्म के सिद्धान्त की सही-सही अनुपालना से ही सर्वांगीण विकास होगा। समाज और राष्ट्र, समय और काल के अनुसार हजारों साल पुरानी दूषित प्रथाओं, मान्यताओं और रीति-रिवाजों को बदल कर श्रेष्ठ परम्पराओं और मान्यताओं को विधि का आधार बना सकता हैं तो मात्र कुछ दशक पुराने भारतीय संविधान में से सम्मिलित गलत नियमों को, अवधि पार तथा दूषित हो चुके नियमों को बदल कर नये नियम बनाने में हर्ज ही क्या है? श्रेष्ठ धर्म और शास्त्र सम्मत ज्ञान-परम्परा, न्याय-परम्परा, व्यवहार-परम्परा को अपना कर ही श्रेष्ठ भारत का नवनिर्माण किया जा सकता है। विश्व का प्रत्येक देश अपने बहुसंख्यकों के रिलिजन को अधिकृत एवं वैधानिक संरक्षण प्रदान करता है तो भारत में बहुसंख्यक अपने इन अधिकारों से वंचित क्यों हैं?
शिक्षा को सत्ता के अंकुश में बांध कर भारतीय गुरुकुल परम्परा को नष्ट कर दिया गया है। अस्वस्थ शिक्षा नीति के कारण हमारी सनातन संस्कृति का निरन्तर ह्रास हो रहा है। सम्पूर्ण विश्व में सभी मतावलम्बियों के अपनी-अपनी आस्थाओं और विचारों के अध्ययन केन्द्र हैं जहाँ अलग-अलग परिस्थितियों के अनुसार नीतियों का विश्लेषण होता है तो भारत वर्ष में हिन्दुओं की दृष्टि से, सनातन धर्म की दृष्टि से शिक्षा तथा राजकीय नीतियों का विश्लेषण क्यों नहीं होता? विचारणीय है। सजग रहने की आवश्यकता है। यदि हम स्वयं कर्म के प्रति अनभिज्ञ रहेंगे तो परिवार उपेक्षित रहेगा, समाज उपेक्षित रहेगा और धर्मानुसार रीति-नीति, ज्ञान-परम्पराएँ, सनातन नियम-तन्त्र सभी के विलुप्त होने का खतरा बढ़ता जायेगा इसलिए भारत के बहुसंख्यक जन को, प्रबुद्ध नागरिकों को, प्रखर विद्वानों और राजनेताओं को इस पर चिन्तन करने की आवश्यकता है। कुछ विचारणीय बिन्दू हैं जिन पर बात होनी चाहिये-
1. बहुसंख्यक हिन्दू अपने ही राष्ट्र में अधिकारों से वंचित क्यों है?
2. क्या यूरोपिय देशों के समाज के विचारों को पोषित करना ही संविधान है?
3. भारत में सिर्फ ईसाइयों और मुसलमानों के समूहों की मान्यताओं और परम्पराओं को विधिक संरक्षण क्यों?
4. क्या हिन्दुस्तान में हिन्दु धर्म का संरक्षण राजतन्त्र का राष्ट्रीय कर्त्तव्य नहीं है?
5. उपासना और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सभी नागरिकों को है तो संरक्षण केवल चन्द लोगों के रिलिजन और मजहब को क्यों?
6. क्या भारतीय सनातन धर्म, ज्ञान-परम्परा, आदर्शों, नैतिक मूल्यों का पतन कर भौतिक संसाधनों का विकास ही प्रगति है?
7. दोहरे मानदण्ड वाली नीतियों से मुक्ति कब?
आजादी के बाद की सरकारों ने तथा वर्तमान राजतन्त्र ने भौतिक सुख-सुविधाओं जैसे सड़क, कल-कारखाने, इण्टरनेट, कार, हवाई जहाज, संचार तन्त्र आदि की प्रगति को ही विकास की श्रेणी या आधुनिकीकरण मान लिया है जबकि ऐसा नहीं है। बिना धर्म-ज्ञान, शास्त्रीय परम्पराओं, पौराणिक मान्यताओं को संरक्षित किये बिना विकास के लिये किये गये सभी प्रयास बेमानी हैं, अधूरे हैं। गुजरते समय के साथ सत्ता पाने के लिए राजनैतिक दलों का चाल-चेहरा और चरित्र तो बदलता गया लेकिन अधूरे, दूषित और अपरिपक्व संविधान को सुदृढ़ बनाने की किसी ने भी हिम्मत नहीं की। सभी राजनीतिक दलों ने सत्ता सुख पाने के लिए संविधान का अपने-अपने स्तर पर, अपने-अपने तरीकों से उपयोग किया। सत्ता हस्तान्तरण के साथ चेहरे ही बदले लेकिन विचारधारा कमोबेश वही रही जिसके कारण भौतिक विकास तो हुआ लेकिन आध्यात्मिक विकास पीछे छूट गया है और हिन्दू अपने ही राष्ट्र में बहुसंख्यक होते हुए भी अपने विधि-सम्मत अधिकारों से लगातार वंचित होते जा रहे हैं, ऐसा कब तक होगा...?
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