’ऋशि बोध दिवस वैदिक जीवन पद्धति को अंगीकृत करने का संकल्प दिवस‘

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Published on : 14 Feb, 18 11:02

आज ऋशि बोधोत्सव ऋशि जन्म भूमि टंकारा सहित देष देषान्तर में मनाया जा रहा है। आज षिवरात्रि के ही दिन आज से १७९ वर्श पूर्व ऋशि को टंकारा के षिव मन्दिर में षिव की मूर्ति के सम्मुख यह बोध हुआ था कि षिव व अन्य किसी देवता की मूर्ति की पूजा करना मनुश्य के लिए किसी भी प्रकार से लाभप्रद नहीं है। उन्होंने इस बोध के होने पर अपना सारा जीवन ईष्वर के सच्चे स्वरूप के ज्ञान व उसकी उपासना विधि को जानने में लगाया। कालान्तर में उनको सत्य ज्ञान प्राप्त हुआ कि ईष्वर तो सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वषक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेष्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर अभय, नित्य, पवित्र व सृश्टिकर्ता आदि गुण, कर्म व स्वभाव वाला है। उसी की उपासना हमें महर्शि पतंजलि के योगदर्षन व ऋशि दयानन्द जी द्वारा वेदों के आधार पर रची गई ’सन्ध्या विधि‘ से करनी चाहिये। ईष्वर के सत्य स्वरूप, मनुश्य के कर्तव्य व ईष्वर की यथार्थ उपासना विधि को जान लेने के बाद उन्होंने अपने वेद, वैदिक षास्त्रों और योग विद्या आदि के ज्ञान से संसार के लोगों को अवगत कराया। उन्होंने मौखिक प्रचार किया और साथ ही वेद प्रचार को स्थायीत्व प्रदान करने के लिए सत्यार्थप्रकाष, ऋग्वेदादिभाश्यभूमिका, वेदभाश्य, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु सहित अनेक ग्रन्थो की रचना की। महर्शि दयानन्द ने वेद ज्ञान सहित इतर जितना भी ज्ञान प्राप्त किया वह सब षिवरात्रि के दिन हुए उस बोध का ही परिणाम था और इसमें षिवरात्रि के बाद घटी दो घटनाओं, बहिन की अचानक हैजे से मृत्यु और चाचा की मृत्यु भी, रहीं जिससे उन्हें संसार से वैराग्य हो गया था।
ऋशि बोधोत्सव का दिन हमें जीवन में एक संकल्प लेने का दिन प्रतीत होता है। संकल्प इस बात का कि हम ऋशि के जीवन चरित का अध्ययन कर अपने जीवन को भी वेद ज्ञान से सुषोभित व सुरभित करेंगे। ईष्वर भक्त बनेंगे और वेद ज्ञान का प्रचार व प्रसार करेंगे जो कि प्रत्येक मनुश्य का कर्तव्य है। हमें दो सुधार करने हैं प्रथम अपना सुधार। इसके लिए हमें स्वयं को वेदों की षिक्षाओं के अनुरुप विचार एवं आचरण वाला बनाना होगा और द्वितीय हमें यथाषक्ति आर्यसमाज के संगठन के अन्तर्गत संगठित होकर, लोकैशणा का त्याग कर, वैराग्यवान होकर वैदिक विचारधारा का जन जन में प्रचार करना है। दूर दूर तक न सही, अपने आसपास के लोगों को अपने व्यक्तित्व व कृतित्व से तो हम प्रभावित कर ही सकते हैं। चारों वेदों के साक्षात्कृतधर्मा ऋशि महर्शि मनु ने कहा है कि ’वेदखिलो धर्मऽमूलम्‘ अर्थात् वेदों का ज्ञान व आचरण ही मनुश्य के धर्म का मूल अर्थात् आधार है। वेद ज्ञान से रहित मनुश्य पषु समान होता व हो जाता है। यदि कोई मनुश्य सद्गुणों से विभुशित है और वेदों से उसका सम्फ नहीं है, तो यह मानना चाहिये कि वेदों से निकल कर वह गुण उस व्यक्ति तक उसके माता-पिता व आचार्यों के द्वारा व पूर्व जन्म के संस्कारों वा ईष्वर की कृपा से ही पहुंचे हैं। सत्य बोलने और धर्म पर आचरण की षिक्षा का आरम्भ वेद ज्ञान से ही हुआ है। आज यदि वेदानभिज्ञ मनुश्य इसका समर्थन करते हैं तो भले ही उनको इस बात का ज्ञान न हो परन्तु यह षिक्षा उन तक वेदों से ही चलकर पहुंची है, ऐसा जानना व मानना चाहिये। अतः वेद की सभी मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार संसार में होना चाहिये। वेदों के नाम से यदि प्रचार होता है तो इससे लोगों को यह लाभ होगा कि उन्हें वेदों के महत्व का ज्ञान भी होगा और वह अपनी प्रत्येक भ्रान्ति को वेदाध्ययन व वेद की सहायता से दूर कर सकते हैं।
अपने सीमित वेदाध्ययन से हम यह भी अनुभव करते हैं कि जो लोग वेद ज्ञान से दूर हैं वह अनेक प्रकार की भ्रान्तियों से ग्रस्त हैं। हमें यह मनुश्य जीवन हमारे पूर्व जन्मों के सद्कर्मों के आधार पर मिला है। हमारे जीवन के सभी सुख व दुःख हमारे पूर्व व वर्तमान जीवन के कर्मों का ही परिणाम हैं। हमारा परजन्म, मृत्यु के बाद होने वाला जन्म, भी हमारे इस जन्म व पूर्व के अभी न भोगे गये कर्मो के आधार पर ही होगा। अतः हमें अपने कर्मों पर ध्यान देना आवष्यक है। यह कार्य केवल वेदों व ऋशियों के ग्रन्थों के अध्ययन से ही सम्भव हो सकता है। श्रेश्ठ परजन्म के लिए हमें ईष्वरोपासना एवं यज्ञादि कर्मों में रूचि लेनी होगी और पंचमहायज्ञों के सम्पादन में प्रमाद से बचना होगा। इसके लिए ऋशि ग्रन्थों का अध्ययन कर अपने ज्ञान को बढाया जा सकता है। उपनिशद एवं दर्षनों का अध्ययन भी हमारे कर्तव्यों के बोध में अत्यधिक सहायक होता है। इन सभी ग्रन्थों के अध्ययन से किसी को भी विमुख नहीं होना चाहिये।
ऋशि दयानन्द बोध से हमें यह भी प्रेरणा मिलती है कि हमें एकांगी नहीं अपितु सर्वांगीण जीवन व्यतीत करना है। हमें स्वास्थ्य के सभी नियमों का पालन करते हुए स्वस्थ रहते हुए अपनी आयु को बढाना है अर्थात् अपनी आयु को किसी बुरे कर्म से घटाना नहीं है। वेद एवं वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय कर हमें अपने कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करना है एवं उन सभी कर्तव्यों का यथाषक्ति पालन करना है। सभी मनुश्यों को अविद्या के नाष व विद्या की वृद्धि के लिए पुरुशार्थ करना चाहिये। यह बोध भी ऋशि दयानन्द जी ने हमें कराया है। इसका एक अर्थ यह भी है कि हमें अवैदिक वा वेदविरुद्ध विचारों का खण्डन और वेद सम्मत विचारों व मान्यताओं का युक्ति, तर्क व प्रमाणों से मण्डन करना है। हमें मूर्तिपूजा के साथ व्यक्तिपूजा, कब्र पूजा, मृतक लोगों के चित्रों की पूजा आदि का खण्डन करना होगा। ईष्वर के स्थान पर आज लोग अपने अपने गुरूओं की पूजा को ही ईष्वर स्तुति-प्रार्थना-उपासना का पर्याय मानने लगे हैं, उनसे भी लोगों को सावधान करना होगा। इन अंधविष्वासों से देष कमजोर हो रहा है। लोगों का बहुत सा समय इन गुरुओं की षरण में उनका भजन-कीर्तन आदि में व्यर्थ होता है जिससे देष के आगे बढने में रूकावट आती है। ऐसे लोग देषोन्नति में अधिक सहायक नहीं होते हैं। हमने अनुभव किया है कि यूरोप की प्रगति में संगठित ज्ञान विज्ञान के अध्ययन, विचार-विनिमय, गोश्ठी आदि के द्वारा उन्नति का विषेश योगदान है। यह सभी लोग अन्धविष्वासों से प्रायः मुक्त थे। ऐसे ही देषवासी हमारे देष को भी उन्नति के पथ पर ले जा सकते हैं। इसका भी आंकलन कर हमें प्रचार करना चाहिये और लोगों को मिथ्या पूजा व उपासना से हटा कर वेदसम्मत योगविधि व सन्ध्या आदि के द्वारा ईष्वर उपासना का प्रचार करना है।
ऋशि जीवन ने देष को जो ज्ञान व दर्षन दिया है उसके आधार पर वैदिक धर्म संसार का ज्ञान व विज्ञान से युक्त एकमात्र धर्म सिद्ध होता है। वेद प्रचार की न्यूनता ही है कि देष व विष्व में आज भी अज्ञान, मिथ्या मत-मतान्तर, मिथ्यापूजापाठ व इनकी जननी अविद्या विद्यमान है। वेद प्रचार को कैसे अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाया जाये इस पर आर्यसमाज व ऋशिभक्तों को विचार करना है। देष में हिन्दुओं की घट रही जनसंख्या व दूसरे मतों की संख्या में वृद्धि भी हमारे लिए विचार व चिन्तन का विशय होनी चाहिये। इसके भविश्य में दुश्परिणामों पर भी हमें विचार करना चाहिये और आवष्यक उपाय करने चाहिये जिससे आर्य हिन्दु समाज अल्पसंख्यक होने से बच सके। अल्पसंख्यक होने का क्या दुश्परिणाम हो सकता है, यह विष्व के विगत एक डेढ हजार वर्शों के इतिहास के अध्ययन से जाना जा सकता। अवैदिक पूजा, असंगठन, सामाजिक विशमता आदि का परिणाम ही तो हमने विगत लगभग १ हाजर वर्शों तक भोगा है जिसमें विधर्मियों की गुलामी, अन्याय व अत्याचार सम्मिलित हैं। हमें लगता है कि हमने इन घटनाओं से कोई षिक्षा नहीं ली है। आज भी हम उन विधर्मियों की पराधीनता व उनसे मिले दुखों के कारणों का ही सेवन कर रहे हैं। अतः ऋशि बोध दिवस पर हमें सभी क्षेत्रों में सावधान होना है। ओ३म् षम्।-मनमोहन कुमार आर्य



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