“सत्संग का उत्तम साधन वेद, सत्यार्थप्रकाश आदि का स्वाध्याय”

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Published on : 10 Feb, 18 10:02

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
मनुष्य को अपने जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए सत्संग की आवश्यकता होती है। सत्संग का अभिप्राय है कि हम जीवन को सुख, समृद्धि व सफलता आदि प्राप्त करने के लिए सत्य को जानें। यदि हमें सत्य का ज्ञान नहीं होगा तो हम सही निर्णय नहीं ले सकेंगे। हो सकता है कि सत्य ज्ञान के अभाव में हम जो निर्णय लें, वह असत्य हो। यदि असत्य होगा तो उसका हमारे जीवन पर हानिकर प्रभाव होगा। इससे बचने के लिए हमें सत्संग की आवश्यकता होती है। आजकल सत्संग शब्द रूढ़ हो गया है। सत्संग का अर्थ यह माना जाने लगा है कि कहीं कोई धार्मिक उपदेश दे रहा है या कहीं कोई धार्मिक कथा व पाठ आदि हो रहा है तो उसे सत्संग कह देते हैं और यह मान्यता है कि वहां जाने पर लाभ होगा। यह सम्भव है कि धार्मिक उपदेश आदि सत्संग हो सकते हैं परन्तु यह हर स्थिति में सत्संग नहीं होते। हम जानते है कि सत्य की शिक्षा वही धार्मिक व्यक्ति दे सकता है जो वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़ा हो और जिसमें अपनी कोई एषणा व स्वार्थ न हो। हम यह भी जानते हैं कि मनुष्य अल्पज्ञ होता है। अल्पज्ञ होने के साथ अनेक धार्मिक व अन्य ग्रन्थों को पढ़ने के बाद भी वह अल्पज्ञ ही रहता है। ईश्वर ने यह संसार बनाया है। वह सब विद्याओं का भण्डार है। इस सृष्टि में जो भी विद्यायें हैं वह सब ईश्वर से ही प्रकाश में आई हैं। यदि ईश्वर सभी सत्य विद्याओं का उपयोग कर इस सृष्टि की रचना न करता तो संसार इन विद्याओं को जान ही नहीं सकता था। विज्ञान के सभी नियम सृष्टि में कार्य कर रहे हैं। वैज्ञानिक तो सृष्टि में काम कर रहे नियमों की ही खोज करते हैं अर्थात् उसे समझने का प्रयास करते हैं। उन सभी नियमों को सर्वप्रथम, सृष्टि की रचना से पूर्व व पश्चात, ईश्वर ने ही स्थापित किया है। ईश्वर व सत्यविद्याओं का उल्लेख ऋषि दयानन्द जी ने आर्यसमाज के प्रथम नियम में किया है। उन्होंने लिखा है कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। इससे ज्ञात होता है कि सभी सत्य विद्याओं का आदि मूल ईश्वर है। सभी विद्यायें उसी से आरम्भ, उत्पन्न व अस्तित्व में आई हैं।

सृष्टि रचयिता ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को बनाकर उन्हें वेदों का ज्ञान दिया था। ईश्वर सब सत्य विद्याओं का आदि मूल है। अतः सृष्टिकर्ता की रचना वेदों में सब सत्य विद्यायें होना सिद्ध है। परीक्षा करने के बाद यह तथ्य विदित होता है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसकी परीक्षा स्वामी दयानन्द जी ने की थी और उनसे पूर्व जितने भी ऋषि व मनीषी हुए हैं, वह भी वेदों का अध्ययन कर उसमें वर्णित सभी बातों की सिद्धि व पुष्टि करते अनेक प्रमाणों व प्रयोगों से करते थे। हमारी यह सृष्टि ईश्वर द्वारा 1.96 अरब वर्ष पूर्व रची गई थी। महाभारत का युद्ध वर्तमान से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुआ था। महाभारत से पूर्व की 1.96 अरब वर्षों की अवधि में सारी दुनियां में वेद ही एकमात्र धर्मग्रन्थ रहा है। इसका कारण वेदों का सब सत्य विद्याओं से युक्त होना ही है। वेद के सब प्रकार से पूर्ण होने के कारण वेद से पृथक कहीं कोई मत प्रचलित नहीं हुआ था। महाभारत के बाद आर्यों के आलस्य प्रमाद के कारण विश्व में अज्ञान फैला जिसके कारण मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध व सामाजिक असमानता आदि मिथ्या बातें व परम्परायें प्रचलित हुईं। आज भी अज्ञान व अविद्या होने के कारण मिथ्या मतों व उनकी मिथ्या व अज्ञानयुक्त बातों का प्रचलन होने से मत-मतान्तरों का अस्तित्व बना हुआ है। सद्ज्ञान से युक्त ग्रन्थ केवल वेद व उसके अनुकूल उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि हैं। इन ग्रन्थों में असत्य कुछ नहीं है और सत्य शत-प्रतिशत विद्यमान है। इनका अध्ययन करने से पाठक व अध्येता को सत्य ज्ञान प्राप्त होता है। वेदों, उपनिषद एवं अन्य आर्ष ग्रन्थों को पढ़ने से मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक समस्त सत्य ज्ञान को प्राप्त हो जाता है। अतः इन गन्थों का अध्ययन ही स्वाध्याय कहलाता है और यही वास्तविक व यथार्थ सत्संग है।

स्वाध्याय रूपी सत्संग से इतर ईश्वर की उपासना भी यथार्थ सत्संग होता है। ईश्वर व जीवात्मा की सत्ता सत्य है। उपासना में यह दोनों आपस में मिलते हैं। मिलने का अर्थ है कि जीवात्मा व उपासक मनुष्य वेद मन्त्रों से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के वचनों को बोलता व कहता है। इससे जीवात्मा के दुर्गुण व दोष दूर हो जाते हैं और उसमें सद्गुणों का प्रकाश उत्पनन होता है। सत्संग करने का मुख्य उद्देश्य सत्य ज्ञान को प्राप्त करना व ईश्वर की उपासना ही होता है। यदि वेदों के विद्वान आचार्यों व गुरुओं की संगति की जाती है तो वह भी सत्संग होता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि हम जिस आचार्य व गुरु अथवा धर्मोपदेष्टा की संगति कर रहे हैं, वह पूर्ण व अधिकांशतः ज्ञानी होना चाहिये। उसका निर्लोभी व स्वार्थहीन होना भी अत्यन्त आवश्यक है। समाज में ऐसा आचार्य व गुरु मिलना दुर्लभ व असम्भव प्रायः ही है। अतः सत्संग करने से पूर्व गुरुओं की परीक्षा करना भी आवश्यक प्रतीत होता है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो लाभ के स्थान पर हानि होगी। इससे हमें न तो परमात्मा ही मिलेगा और न ही हमारा धन ही सुरक्षित रहेगा। इसका अधिकांश भाग हमारे तथाकथित गुरु येन केन प्रकारेण हमसे ले लेते हैं। आज समाज में जितने भी गुरु देखने में आते हैं वह सभी अपने अनुयायियों वा भक्तों के माल से मालामाल हैं। अतः गुरुओं का सत्संग कम से कम करें व बिना परीक्षा के तो न ही करें। उन्हें अपना परिश्रम से उपार्जित धन भी नहीं देना चाहिये। इसके स्थान पर हमें सद्ग्रन्थों का नियमित अध्ययन व वैदिक रीति सन्ध्या अर्थात् स्वामी दयानन्द प्रोक्त विधि से ईश्वरोपासना करने से यथार्थ सत्संग होता है। हम आशा करते हैं कि जो व्यक्ति स्वाध्याय व ईश्वरोपसना में अधिक समय व्यतीत करेंगे उनको मत-मतान्तरों के आचार्यों के उपदेश आदि श्रवण करने से बहुत अधिक लाभ होगा, किसी प्रकार की भी हानि का तो प्रश्न ही नहीं है।

वेद संस्कृत में हैं। प्रत्येक व्यक्ति संस्कृत नहीं जानता, अतः उसे पढ़ने में कठिनाई हो सकती है। स्वामी दयानन्द जी की कृपा से आज हमें उनके व उनके अनुयायियों द्वारा किये गये हिन्दी व अंग्रेजी आदि में भाष्य उपलब्ध हैं। इन भाष्यों की सहायता से हम वेदों का यथार्थ तात्पर्य जान सकते हैं। वेदों के बाद सत्यार्थप्रकाश सत्संग व स्वाध्याय के लिए सबसे अधिक प्रभावशाली ग्रन्थ है। इसमें सहस्रों विषयों पर वेदानुकूल प्रामाणिक जानकारी दी गई है जिसे पढ़कर व जानकर मनुष्य जीवन में कल्याण को प्राप्त होता है। यहीं कारण है कि मत-मतान्तर का कोई गुरु व आचार्य इसका उल्लेख व सत्यार्थप्रकाश की आलोचना नहीं करता। यदि उल्लेख करेगा तो वह उस आचार्य के बहकावें व झूठ में फंसगें नहीं। यदि वह आलोचना करता है तो उसे प्रमाण देने होंगे जो कि किसी भी मत-मतान्तर के आचार्य के पास नहीं है। अतः जीवन को सफल बनाने के लिए वेदों सहित सत्यार्थप्रकाश का सत्संग एवं स्वाध्याय अवश्य करें। इससे वह लाभ होगा जो किसी आचार्य, गुरु के प्रवचन व उपदेश में जाने से नहीं होगा।

सत्यार्थप्रकाश पढ़कर अविद्या व अज्ञान दूर हो जाता है। अन्य मतों के आचार्य व उनके अनुयायी सभी अविद्याग्रस्त हैं, इसे सत्यार्थप्रकाश में सिद्ध किया गया है। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से न केवल सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का ज्ञान होता है अपितु मत-मतान्तरों की अविद्या का भी ज्ञान होता है और मनुष्य झूठे आचार्यों के जाल में फंसने से बच जाता है। सत्यार्थप्रकाश से क्या लाभ होता है, इसे स्वयं पढ़कर अनुभव करें। एक उदाहरण प्रस्तुत कर लेख को विराम देंगे। पौराणिक सन्यासी स्वामी सर्वदानन्द ऋषि दयानन्द और सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को सुनी सुनाई बातों के कारण पसन्द नहीं करते थे। एक बार यात्रा करते हुए उन्हें जानलेवा रोग हो गया। रोग में उनकी सेवा ऋषि दयानन्द के एक भक्त ने की। स्वामी जी जब पूर्ण स्वस्थ हो गये और वहां से जाने लगे तो उनकी सेवा करने वाले उस व्यक्ति ने स्वामीजी को एक सुन्दर वस्त्र में लपेट कर सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ दिया और कहा कि यदि वह उस व्यक्ति की सेवा से प्रसन्न हैं तो अवकाश के समय में इस पुस्तक को अवश्य पढ़े। स्वामी जी ने उस व्यक्ति को वचन दे दिया। बाद में जब स्वामी जी ने उसे खोलकर देखा तो सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को देखकर अत्यन्त क्रोधित हुए। कुछ देर बाद शान्त होने पर उन्होंने सेचा कि पढ़ने से कोई हानि तो होगी नहीं, क्यों न एक बार इसे पढ़ लू। ऐसा सोचते हुए उस सेवा करने वाले व्यक्ति की चित्र उनकी आंखों के ससामने था। उन्होंने यह भी विचार किया कि पढ़ने के बाद मैं इस पुस्तक की बातों को मानूंगा नहीं। यह विचार कर उन्होंने उस सत्यार्थप्रकाश को पढ़ा। स्वामी जी का मन व आत्मा पवित्र थे। सत्यार्थप्रकाश में वर्णित सत्य मान्यताओं का प्रभाव स्वामीजी पर हुआ। जब पुस्तक पूरी हुई तो स्वामीजी पौराणिकता से दूर जा चुके थे और सच्चे वैदिकधर्म की शरण प्राप्त कर चुके थे। इन स्वामीजी ने ‘सन्मार्ग दर्शन’ नाम से एक अति सुन्दर ज्ञानवर्धक ग्रन्थ लिखा है। सभी को उस ग्रन्थ को भी पढ़ना चाहिये। अतः जीवन में स्वाध्याय व ईश्वरोपासना रूपी सत्संग अवश्य ही करना चाहिये। ओ३म् शम्।

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