विवेक का उपयोग सद्कार्यों में करो: आचार्यश्री सुनीलसागरजी

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Published on : 24 Jan, 18 12:01

विवेक का उपयोग सद्कार्यों में करो: आचार्यश्री सुनीलसागरजी उदयपुर, आदिनाथ भवन सेक्टर 11 में विराजित आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने प्रात:कालीन धर्मसभा में कहा कि विवेक का उपयोग हमेशा सद्कार्यों में करना चाहिये। जो अपने विवेक को विकारों, कषायों और पाप कर्मों में करते हैं वह मनुष्य होकर भी पशु तुल्य होते हैं। आचार्यश्री ने मनुष्यवृत्ति और पशु वृत्ति में फर्क बताते हुए कहा कि चौरासी लाख योनि में सर्वश्रेष्ठ मानव पर्याय मिलता है। इसमें शारीरिक सुख हैं, वैभव है लेकिन मनुष्य ज्यादातर जीवन विषय भोग में ही खो देता है। संयम का पालन भी नहीं कर पाता है। ऐसे नारकीय जीवों को दु:ख ही दु:ख भोगना पड़ता है। आपस में लडऩा, झगडऩा, क्रोध, कषाय आदि में ही अपना अमूल्य समय बर्बाद कर देता है। ऐसा करने वाले मनुष्य तो होते हैं लेकिन उनकी वृत्ति पश्ुातुल्य कहलाती है। मनुष्य होने का मतलब है मानवता, परमार्थ, धर्म-ध्यान, संयम, निर्मल और सहज चरित्र, अच्छा बोलना, एक दूसरे का सहयोग करना और सबसे बड़ी बात विवेक का होना यही तो मनुष्य होने की निशानी हैं। अगर विवेक नहीं है, धर्म नहीं है तो समझलो वह मनुष्य योनी में जरूर है लेकिन जो ऐसे दुराचरण वाले होते हैं वह पशु तुल्य ही हैं। पशु और उनमें कोई फर्क नहीं होता है।
आचार्यश्री ने कहा कि पशु जीवन के दु:ख, उनके बंधन, उनकी पीड़ाएं हम रोजाना ही देखते हैं। पशुओं को कहीं पर भी धर्म लाभ का सुख मिलता ही नहीं है, क्योंकि उनमें सब कुछ है लेकिन विवेक नहीं होता है। मनुष्य तो अपने ज्ञान और विवेक से कहीं पर अपना काम कर सकता है, अपना हित साध सकता है लेकिन बेचारा पशु तो ज्ञान और विवेक के अभाव में अपने लिए तो कुछ कर ही नहीं सकता। पत्थर को भी तराशने से वह हीरा बन जाता है। मनुष्य जीवन मिला है तो उसे पशु तुल्य बनाने के बजाए धर्म ध्यान और साधना- संयम से इसे तराश कर मनुष्य रूप को भी परमात्मा स्वरूप बनाया जा सकता है। सारे विकारों और दोषों से अपानी आत्मा को मुक्त कर परमात्मा जैसी शुद्धि पाई जा सकती है। इसलिए बुद्धि का सदुपयोग करो, व्रत, संयम को स्वीकारने का प्रयास करो तो एक न एक दिन जरूर मोक्ष मार्ग की प्राप्ति हो सकती है।
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