‘मनुष्य का प्रथम कर्तव्य क्या है?’

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Published on : 24 Jan, 18 10:01

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
हम मनुष्य हैं और हम अपनी बुद्धि से सोच व विचार कर निर्णय करते हैं। हमारा प्रथम कर्तव्य क्या है इस पर भी हम विचार करते हैं, नहीं करते तो कर सकते हैं। विचार करने पर हमें ज्ञात होता है कि हमें किसी अदृश्य सत्ता ने बनाया है। माता-पिता अवश्य हमारे जन्म में सहायक हैं परन्तु वह हमारे शरीर की रचना व रोग होने पर उसे ठीक करने के विज्ञान से परिचित नहीं होते। कोई भी माता-पिता यह दावा नहीं करता कि वह अपनी सन्तानों के आत्मा वा शरीर का निर्माता व रचयिता है। अतः हमारे शरीर की रचना, क्योंकि यह नाशवान है अर्थात् मृत्यु को प्राप्त होने वाला होता है, किसी अदृश्य सत्ता से हुई निश्चित होती है। वह सत्ता कैसी है व उसमें क्या गुण हैं, तो हमें अपने शरीर व सृष्टि को देखकर यह निश्चित होता है कि वह सत्ता ज्ञानवान सत्ता है। ज्ञानवान सत्ता जब कोई रचना करती है तो उसे उपादान कारण एवं भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है जैसे कि एक कुम्हार को मिट्टी की आवश्यकता होती है जिसे रूपान्तरित कर वह नाना प्रकार के उपयोगी सामान बनाता है। इसी प्रकार संसार में विद्यमान ज्ञानवान सत्ता जिसने सृष्टि की रचना की है वह किसी जड़ भौतिक पदार्थ से सृष्टि की रचना करती है। वेद एवं शास्त्रकारों ने इसका विवेचन किया है और सृष्टि का कारण सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति को बताया है और यह भी बताया है कि यह मूल प्रकृति अनादि व नित्य है एवं यह नाश अर्थात् अभाव को कभी प्राप्त नहीं होती। इस मूल प्रकृति से ही इस सृष्टि अर्थात् सूर्य, चन्द्र, पृथिवी और लोक लोकान्तरों की रचना सहित सृष्टि के पदार्थों से ही हमारे शरीरों की भी रचना हुई हैं। इस सृष्टि की रचना करने वाली सत्ता को ही वेद एवं शास्त्रों में ईश्वर कहा गया है। ईश्वर का अर्थ ऐश्वर्य सम्पन्न व मनुष्यों को ऐश्वर्य देने वाला कहा जाता है।

मनुष्य का प्रथम व मुख्य कर्तव्य क्या है? इस पर विचार करते हैं तो हमें अपने प्रमुख जन्मदाता का निश्चय करना होता है। वह सत्ता ईश्वर ही है जिसने हमारी आत्मा को हमारे शरीर के साथ, माता-पिता को साधन बनाकर, संयुक्त किया है। अतः हमारा प्रथम कर्तव्य उसको व स्वयं को जानना होता है। उसे कैसे जान सकते हैं? इसका उत्तर है कि ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेद उत्पन्न कर मनुष्यों को प्रदान किये हैं। यह वेद हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अर्थववेद। इन वेदों में ईश्वर का सत्य सत्य ज्ञान है। न केवल ईश्वर अपितु संसार के सभी पदार्थों का ज्ञान है। इस ज्ञान की सहायता से हम ईश्वर के सत्यस्वरूप से परिचित हो सकते हैं। ईश्वर के वेदवर्णित सत्यस्वरूप को जानकर हम ईश्वर का, हमें मनुष्य जन्म देने, हमारे लिए यह सृष्टि बनाने और इसके पदार्थ वायु, जल, अग्नि, अन्न, वेद आदि हमें देने के लिए उसका धन्यवाद करना है। इस धन्यवाद करने की उचित व सम्यक रीति को ही ईश्वरोपासना कहते हैं। महर्षि दयानन्द ने ईश्वरोपासना हेतु सन्ध्या की विधि लिखी है। उनका कहना है कि प्रत्येक मनुष्य को प्रातः व सायं दो समय ईश्वर का ध्यान व उपासना करनी चाहिये। जो ऐसा नहीं करते वह कृतघ्न होते हैं। कृतघ्न इस लिए होते हैं कि जिस ईश्वर ने हमें बिना कोई मूल्य लिए हमें संसार की सबसे कीमती वस्तु, यह शरीर दिया है, हम उसे न जाने और उसका उचित रीति से धन्यवाद न करें तो यह कृतघ्ना नहीं तो और क्या हो सकता है अर्थात् यह कृतघ्नता ही होती है। अतः प्रत्येक मनुष्य को वेदों का स्वाध्याय कर ईश्वर के स्वरूप को जानना और ईश्वर के वेद वर्णित गुणों से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना जिसे हम सन्ध्या व ध्यान भी कह सकते हैं, इसे प्रतिदिन प्रातः व सायं करना प्रथम व मुख्य कर्तव्य है। जो ऐसा करते हैं वह भाग्यशाली है और जो नहीं करते उन्हें इसे अवश्य ही करना चाहिये।

ईश्वरोपसना से अनेक लाभ होते हैं। मनुष्य की आत्मा की उन्नति होती है। उपासना से ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार हमारा जीवन बनता है। इससे हमें सुख प्राप्ति होती है। हमें यश प्राप्त होता है। हमारी बुद्धि व ज्ञान की वृद्धि होती है। ईश्वर का सहाय हमें मिलता है। ऐसा होने पर ही हमारा जीवन सफल होता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन प्रातः व सायं अपने प्रथम कर्तव्य के रूप में ऋषि दयानन्द प्रणीत सन्ध्या विधि से ईश्वरोपासना करनी चाहिये। इससे ईश्वर का ऋण चुकता तो नहीं परन्तु हम ऐसा करके ईश्वर को प्रसन्न कर सकते हैं। ईश्वरोपासना की ऋषि दयानन्द प्रदत्त विधि सन्ध्या व उपासना की सर्वोत्तम विधि है। ओ३म् शम्।

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