उदयपुर अशोक नगर स्थित श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर में बिराजित आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने प्रात:कालीन धर्मसभा में कहा कि पानी से तो सिर्फ शरीर शुद्धी होती है लेकिन निर्मोही होने से आत्मा की शुद्धि होती है। लोक की कक्षाएं आत्मा के लिए नुकसानदायक होती है। आशाएँ ओर आकांक्षाओं के गुलाम बन कर जीने वाले दुनिया में कभी भी सुख चैन से नहीं जी सकते हैं। व्यक्ति का जीवन खत्म हो जाता है लेकिन उनकी आशाएं- आकांक्षाएं कभी पूरी नहीं होती है। कई लोग ऐसे भी होते हैं जो मोक्ष मार्ग पर आकर भी संसार में प्रवृत्त रहता है तो कोई घर में रह कर भी वैरागी बना रहता है। कोई संसार में ही उलझा रहता है तो कोई मजबूरीवश उसमें उलझता जाता है। संसार में रह कर आत्मशुद्धि का मार्ग अपनाने वाले कोई बिरले ही होते हैं।
आचार्यश्री ने कहा कि निर्मोही होने का मतलब यह नहीं कि आप अपने कर्तव्यों से ही विमुख हो जाओ या किसी के प्रति द्वेष भाव अपना लेना। द्वेषता से हमेशा दुख व क्लेश ही मिलता है। विवेक पूर्वक अगर वैराज्य हो तो वह जीवन में निर्मलता और शांति बढ़ाने में सहायक होता है। जितनी आप बाहरी शुद्धता बढ़ाओगे उतनी भीतर की शुद्धता भी बढ़ानी होगी। भीतर की शुद्धता बढ़ाने के लिए बाहर की शुद्धता भी बीुत जरूरी है। जिस तरह से आज का खान-पान अशुद्ध हो रहा है तो साथ में खानदान भी अशुद्ध हो रहा है। इस कारण लोगों के आचार- विचार पर भी बहुत ही गहरा असर पड़ रहा है। मुनिराज को आहार कभी भी प्लास्टिक के बर्तनों या थैलियों में न देना चाहिये और ना ही लाना चाहिये। जैसे शास्त्रों में लिखा गया है वैसे मुनि आज नहीं होते लेकिन आज भी वैसे मुनि विद्यमान हैं जो शास्त्रों के अनुसार ही अपनी चर्या करते हैं और वो ही परम्परा का पालन करते हैं। हमेशा अतिथिदेवो भव: का पालन करें। साधु- सन्तों की सेवा में हमेशा आगे रहें ताकि आपका जीवन भी मंगलमयी हो।
अध्यक्ष रोशन चित्तौड़ा एवं व्यवस्थापक अजीत मानावत ने बताया कि धर्मसभा से पूर्व प्रात: मंगलाचरण एवं दीप प्रज्वलन हुआ। समिति के अशोक गोधा गजेन्द्र मेहता ने बताया कि प्रात: शांतिधारा, नियनियम पूजा, शास्त्र भेंट, चित्र अनावरण एवं आचार्यश्री के पाद प्रक्षालन जैसे धार्मिक अनुष्ठानों के बाद धर्मसभा प्रारम्भ हुई।
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