नैतिक मूल्य होने चाहियेः यम व नियम

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Published on : 02 Dec, 17 07:12

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
आर्यसमाज धामावाला देहरादून का तीन दिवसीय वार्षिकोत्सव 26 नवम्बर, 2017 को समाप्त हो चुका है। उत्सव के प्रथम दिन 24 नवम्बर, 2017 को अपरान्ह के सत्र में मुख्य अतिथि विद्वान डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री जी का महत्वपूर्ण प्रवचन हुआ। अपने व्याख्यान के आरम्भ में उन्होंने कहा कि मतमतान्तर व सम्प्रदायों को आजकल धर्म कहा जाता है। आचार्य जी ने कहा किसी संस्था व मत-मतान्तर की पहचान उसके 3 प्रमुख मन्तव्यों से होती है। यह मन्तव्य हैं उस संस्था की विचारधारा क्या है अथवा वह किन बातों पर आस्था रखते हैं ? दूसरा वह किन नैतिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं? और तीसरा वह अपनी विचारधारा को कार्यरूप देने के लिए कर्मकाण्ड किस प्रकार से करते हैं। संस्था की विचारधारा का उल्लेख कर आर्य विद्वान ने आर्यसमाज के विषय में कहा कि सारे जग का कर्ता ब्रह्म है। संसार में तीन अनादि पदार्थ हैं ईश्वर, जीव व प्रकृति। आचार्य जी ने कहा कि मनुष्य ज्ञान व कर्म में अल्प सामर्थ्य वाला है। ईश्वर का ज्ञान व सामर्थ्य अनन्त है। आचार्य जी ने ईश्वर व जीवात्मा के गुण व कर्मों पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि ईश्वर उपास्य है और हम उसके उपासक हैं। ईश्वर और जीवात्मा का आधार आधेय सम्बन्ध है। उन्होंने कहा कि वेद की विचारधारा ऋषियों व देवताओं की विचारधारा हैं। सृष्टिकाल का उल्लेखकर उन्होंने कहा कि सृष्टि की उत्पत्ति से अब तक 1,96,08,53,117 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। आचार्य जी ने कहा कि संसार में 4200 वर्षों से अधिक पुराना कोई धार्मिक मत व सम्प्रदाय नहीं है। सृष्टि के आरम्भ और 4200 वर्ष पूर्व तक सृष्टि में प्रमुख धार्मिक पुस्तक के रूप में एक वेद व उसमें निहित ज्ञान ही प्रवृत्त रहा है। इसके बाद पारसी, बौद्ध, जैन, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि मत संसार में फैले हैं। आचार्य जी ने कहा कि जब तक वेद की विचारधारा संसार में थी तब तक मत-मतान्तरों का अस्तित्व नहीं था। उन्होंने कहा कि असुर, राक्षस व पिशाच आदि मनुष्य वेद की विचारधारा के विरुद्ध आचरण किया करते थे। वैदिक विद्वान डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री ने कहा कि देवता, ऋषि व ब्राह्मण आदि वेद को मानने से आर्य थे। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में मत-मतान्तरों की भ्रान्तियों पर प्रकाश डाला और उनका खण्डन किया। आचार्य जी ने बहावी मुसलमानों की मान्यताओं पर भी प्रकाश डाला और जेहादियों की मनोस्थितियों का सजीव चित्रण किया। उन्होंने कहा कि यह लोग धर्म तत्व व नैतिक मूल्यों से दूर हैं।

डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री ने कहा कि सभी धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं का यह दायित्व है कि उनकी विचारधारा तर्क से सिद्ध होनी चाहिये। सभी मत-मतान्तरों के मनुष्यों को सभी मत-पुस्तकों को पढ़ना चाहिये और उनमें विद्यमान सत्यासत्य से परिचित होना चाहिये। आचार्य जी ने बताया कि स्वामी दयानन्द ने मत-मतान्तरों की विचारधाराओं में संघर्ष का स्वागत किया था। उन्होंने कहा कि मत-मतान्तरों के विचारों के संघर्ष का उद्देश्य सत्यासत्य का निर्णय करना व सत्य को स्वीकार करना होना चाहिये। सभी मतों के आचार्यों में प्रीतिपूर्वक संवाद होना चाहिये। उन्होंने कहा कि यम व नियम सारे समाज के नैतिक मूल्य होने चाहिये। आचार्य जी ने कहा जीवन मूल्य भी यही पांच यम और नियम हैं। विद्वान आचार्य ने कहा कि धर्म आचरण की चीज है। उन्होंने कहा कि बकरी, गाय, भेड़ आदि को मारना और खाना धार्मिक विचारधारा नहीं है। ऐसा करना अमानवीय और अधर्म है।

आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द का उल्लेख कर उन्होंने बताया कि आर्यसमाज काकड़वाड़ी प्रथम आर्यसमाज है जिसके सदस्यों के नामों में इस संस्था के संस्थापक ऋषि दयानन्द जी का नाम बाईसवें स्थान पर है। अन्य संस्थाओं की स्थिति इसके विपरीत है। वहां उनके संस्थापक का नाम सबसे प्रथम स्थान पर होता है। आचार्य जी ने कहा कि किसी भी धार्मिक व सामाजिक संस्था के नैतिक नियम क्या हैं, यह महत्वपूर्ण है। आचार्य जी ने रामरहीम जैसे अनेक गुरुओं के धर्म विरोधी कार्यों की भी चर्चा की और उन पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज नैतिक मूल्यों के प्रचार की बात करता है। आचार्य जी ने संस्कारविधि और पंचमहायज्ञविधि की चर्चा की और उनकी विषय वस्तु एवं उनके महत्व पर प्रकाश डाला। अपने वक्तव्य को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि सभी मतों के लोग प्रीतिपूर्वक संवाद कर सत्य का निर्णय करें और उसी का आचरण करें। आवश्यकता होने पर विद्वानों के शास्त्रार्थ भी होने चाहिये। आर्यसमाज के प्रधान डा. महेश चन्द्र शर्मा ने आचार्य जी के विद्वतापूर्ण एवं प्रभावशाली व्याख्यान के लिए उनका धन्यवाद किया।

आचार्य जी से पूर्व आर्य विद्वान डा. विनय विद्यालंकार का सम्बोधन हुआ। उन्होंने कहा कि अहंकार से मनुष्य के जीवन में दुःख उत्पन्न होता है। विद्वान वक्ता ने कहा कि परमात्मा ने हमें अद्वेषी बनाया है। उन्होंने कहा कि द्वेष का कारण लोभ होता है। डा. विनय जी ने श्रोताओं व अधिकारियों को कहा कि अपना द्वेष परमात्मा को सौंप दीजिये। ऐसा करके हम सहृदय मनुष्य बनेंगे। एक महत्वपूर्ण बात उन्होंने यह कही कि मन की शक्ति के विकास का साधन वेद और वैदिक साहित्य का स्वाध्याय है। डा. विनय विद्यालंकार ने कहा कि द्वेष पाप है। उन्होंने कहा कि संसार में आर्यत्व तब बढ़ेगा जब हम ईश्वर के वेदज्ञान को फैलायेंगे। आर्य विद्वान ने कहा कि आज हमारे जीवन नहीं वाणी बोलती है। उन्होंने कहा कि हमारे जीवन बोलने चाहियें। आर्यसमाज के प्रधान जी ने डा. विनय विद्यालंकार जी का धन्यवाद किया। इससे पूर्व बिजनौर के आर्य भजनोपदेशक पं. मोहित शास्त्री ने भजन प्रस्तुत किये। उनका पहला भजन था ‘ऋषिवर न अपनी मुसीबत पर रोये, रोये तो भारत की हालत पर रोये।’ उनका दूसरा भजन था ‘मैं पागल हूं दीवाना हूं अलमस्त मस्त मस्ताना हूं। जो शमा जलाई ऋषिवर ने उस शमा का मैं परवाना हूं।।’ कार्यक्रम में गुरुकुल पौंधा के आचार्य डा. धनंजय जी का शाल आदि ओढ़ाकर सम्मान किया गया।

हमने आर्यसमाज धामावाला के वार्षिकोत्सव के दौरान इस लेख को मिलाकर कुल 9 लेख लिखे हैं। हमने जो बातें नोट की थी वह सभी इन लेखों के माध्यम से प्रस्तुत कर दी हैं। इन लेखों में तपोवन आश्रम का आचार्य ज्वलन्त शास्त्री जी के साथ भ्रमण व आचार्य आशीष जी से भेंट की रिर्पोट और स्थानीय आर्यविद्वान डा. नवदीप कुमार जी पर एक लेख भी सम्मिलित है। हमने यह सभी लेख फेस बुक पर डाले और मित्रों को व्हटशप भी किये। ईमेल से भी मित्रों को भेजा है। हमें लगता है कि लोगों ने इन्हें पसन्द किया है। हमारा इस कार्य को करने में लगा श्रम हमें सार्थक प्रतीत होता है। उत्सव विषयक यह लेखमाला आज समाप्त होती है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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