राष्ट्रीय प्राकृत भाषा संगोष्ठी सम्पन्न

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Published on : 18 Nov, 17 21:11

राष्ट्रीय प्राकृत भाषा संगोष्ठी सम्पन्न उदयपुर, प्राकृताचार्य आचार्यश्री सुनील सागरजी महाराज की श्रुतसन्निधि में सुनीलसागर जी महाराज चातुर्मास समिति, जैन विद्या एवं प्राकृतिक विभाग, मोहनलाल सुखाडिय़ा विवि उदयपुर एवं भारतीय प्राकृति स्कॉलर्स सोसायटी उदयपुर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित अखिल भारतीय प्राकृत संगोष्ठी का समापन आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज के सानिध्य में शनिवार को हुमड़ भवन में हुआ। दूसरे दिन दो सत्रों में हुई संगोष्ठी में दस पत्रों का वाचन हुआ तथा विद्वानों ने प्राकृत भाषा पर अपने-अपने व्याख्यान प्रस्तुत किये।
अध्यक्ष शांतिलाल वेलावत ने बताया कि संगोष्ठी का शुुभारम्भ दीप प्रज्वलन एवं मंगलाचरण के साथ हुआ। डॉ. राजेश कुमार जैन के संचालन में प्रात: 8 बजे हुई गोष्ठी के अध्यक्ष उदयपुर के डॉ. उदयचन्द्र थे जबकि संयोजक इन्दौर के डॉ. महेन्द्र कुमार जैन मनुज थे। पत्रवाचन से पहले 105 आर्यिका सुदृढ़मति माताजी ने आशीर्वचन प्रदान करते हुए प्राकृत भाषा के महत्व को विस्तार से समझाया।
महामंत्री सुरेश पदमावत ने बताया कि पत्रवाचकोंं में उदयपुर के डॉ. एसएल गदावत, नई दिल्ली से आये डॉ. जयकुमार उपाध्येय, उदयपुर के डॉ. ज्योति बाबू जैन, जयपुंर के प्रो. श्रेयांस सिंघई, इटावा के पत्रकार विष्णु चौधरी, जयपुर के प्रो. कमलेश कुमार जैन, लोहारिया के पं. कोमलचन्द शास्त्री, उदयपुर के प्रो. जिनेन्द्र कुमार जैन तथा उदयपुर के ही डॉ. सुभाष कोठारी थे। सभी ने अपने- अपने पत्रों के माध्यम से प्राकृत भाषा की आज के समय में उपयोगिता को लेकर अपने- अपने विचार रखे। पत्रों के माध्यम से बताया गया कि प्राकृत भाषा सबसे सुदृढ़ और समृद्ध भाषा है, लेकिन समय के साथ- साथ भाषाएं भी बदल गई। लेकिन इस बदलाव के चलते जो पौराणिक और अनादिकाल से चली आ रही प्राकृत भाषा में न तो कोई बदलाव हुआ है और न ही इसमें बदलाव सम्भव है। यह भाषा अपनों की भाषा है। इस भाषा में माधुर्य है, मिठास है। आज के समय में भी इसकी सार्थकता को नकारा नहीं जा सकता है। इसलिए इसकी समृद्धि को फिर से दुबारा लाने के प्रयासों के तहत ही ऐसी संगोष्ठियां और सम्मेलन आयेाजित होते हैं, जिससे कि युवा पीढ़ी इसके महत्व को समझ सके।
प्रचार मंत्री पारस चित्तौड़ा ने बताया कि अन्तिम सत्र डॉ. रेखा जैन एवं समाज की बहनों के गाये मंगलाचरण के साथ हुआ। अध्यक्ष उदयपुर के प्रो. पारसमल अग्रवाल , मुख्य अतिथि नई दिल्ली के प्रो. जय कुमार उपाध्येय, सारस्वत अतिथि डॉ. श्रेयांश कुमार जैन थे। संगोष्ठीका प्रतिवेदन प्रो. जिनेन्द्र कुमार जैन ने प्रस्तुत किया। समापन सत्र के बाद चातुर्मास समिति के अध्यक्ष शांतिलाल वेलावत, महामंत्री सुरेश पदमावत, जनकराज सोनी, पारस चित्तौड़ा, कल्याणमल कारवा, सेठ शांतिलाल नागदा आदि ने विद्वानों का सम्मान- अभिनन्दन किया। डॉ. ज्योति बाबू जैन ने आभार ज्ञापित किया जबकि संगोष्ठी का संयोजन एवं संचालन डॉ. राजेश कुमार जैन ने किया।
सिद्धान्त नहीं रास्ता बदलो: आचार्यश्री सुनील सागरजी
इस अवसर पर आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने कहा कि अगर आपके सपने सच नहीं होते हैं तो उनके पीछे सिद्धान्त मत बदलो, रास्ते चाहे बदल दो। क्योंकि जीवन में सिद्धान्तों का बड़ा ही महत्व होता है। जिसके जीवन में कोई सिद्धान्त नहीं होता है उसका जीवन महत्वहीन हो जाता है। हर कार्य में सफलता कोई निश्चित नहीं होती है और ना ही सफलता का कोई पैमाना होता है। लेकिन कोशिशें करते रहना चाहिये। जरूरी नहीं है कि एक बार के प्रयास में ही आपको सफलता मिल जाए। कई बार कड़ी मेहनत और लगन से प्रयास करने के बावजूद भी सफलता नहीं मिल पाती है। कोई बात नहीं इससे विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। दुबारा फिर से प्रयास करो। ईमानदारी और सिद्धान्तपूर्वक किये गये प्रयास हमेशा से ही सफल होते हैं। हो सकता है सफलता मिलने में कुछ समय लग जाए। क्योंकि कमियां रहना तो स्वाभाविक है। लेकिन उन कमियों से सबक ले कर दुबारा प्रयास करने चाहिये। अगर एक बार असफलता से आप विचलित हो गये, सिद्धान्तों और अपने सद्कर्मों से भटक गये तो फिर जीवन में कभी भी न तो कोई सफलता मिल सकती है और ना ही कोई सपने पूरे हो सकते हैं।
आचार्यश्री ने कहा कि अगर व्यक्ति में योज्यता है तो बिना मांगे ही बहुत कुछ मिल जाता है और यदि योज्यता नहीं है, जीवन में कोई सिद्धान्त नहीं है तो बार- बार मांगने पर भी कुछ नहीं मिलता है। हमारी प्राकृत भाषा है तो देवी है, सबकी मां है। समय के साथ हर वस्तुएं चीजें बदलती है, परिवर्तन संसार का नियम है तो भाषाएं भी बद गई। लेकिन प्राकृतिक भाषा का मूल स्वरूप आज भी जिन्दा है। और उसे यथावत रखने के लिए प्रयासों में कोई कमी नहीं रखनी चाहिये। प्राकृत भाषा आदिकाल से चली आ रही है। यह मधुर, और मीठी भाषा है। इसे बोलने में और सुनने में अपनापन और स्नेह झलकता है। इसलिए इसके मूल स्वरू को कायम रखने का हम सभी का दायित्व है, कर्तव्य है। इसके लिए प्रयासों में कोई कमी नहीं रखनी चाहिये।
पारस चित्तौड़ा
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