क्रोध आत्मा का स्वभाव नहीं होता: आचार्यश्री सुनील सागरजी

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Published on : 13 Nov, 17 09:11

सुनील सागर चातुर्मास व्यवस्था समिति

क्रोध आत्मा का स्वभाव नहीं होता: आचार्यश्री सुनील सागरजी उदयपुर, हुमड़ भवन में आयोजित प्रात:कालीन धर्मसभा में आचार्य सुनीलसागरजी महाराज ने कहा कि क्रोध हमेशा ही जीवन में नुकसानदायक नहीं होता है और ना ही हमेशा शारीरिक और मानसिक पीड़ा का कारण बनता है। कभी कभी क्रोधभी पुण्य का काम भी कर देता है जब मान- मर्यादा, आन-बान शान और धर्म के लिए किया जाए। अगर धर्म पर कोई आंच आ रही है, आपके सम्मान को ठोस पहुंच रही है, या कहीं कोई मर्यादा भंग हो रही है तो उस समय क्रोध करना वाजिब है और वह क्रोध पुण्य का कारक भी बन जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि क्रोध आत्मा का स्वभाव है। क्रोध तो कभी भी आत्मा का स्वभाव रहा ही नहीं है। सद्कार्यों के लिए क्रोध करना वाजिब है लेकिन वह भी एक सीमा में ऐसा नहीं है कि एक दूसरे के साथ मार-काट ही मचा दें। संयमित भाषा और पूरे तर्क- वितर्क के साथ अपनी बात को सामने वाले के सामने रखी जाए। इनके अलावा अगर अगर कोई क्रोध को ही अपना स्वभाव बना ले जो कि आत्मा के स्वभाव के बिलकुल ही विपरीत है तो उसका जीवन औरण मरण दोनों बिगडऩा तय है। जो हम संसार में स्वाथ के वशीभूत होकर राग, द्वेष, विकार या कषाय करते हैं इनकी वजह से क्रोध पैदा होता है। यह आत्मा का स्वभाव नहीं है। आत्मा का स्वभाव तो है शांति, सम्यगदृष्टि और सब तरह के विकारों से मुक्ति।
आचार्यश्री ने कहा कि बाहरी बुराईयों, कषायों या विचारों पर तो हम नियंत्रण कर सकते हैं, लेकिन जो हमारे भीतर कषाय और विकार पैदा होते हैं, उन पर नियंत्रण पाना आसान नहीं है। जैसी हमारी रूचि होगी, जैसा हमारा स्वभाव होगा हमारी शक्तियां भी वैसा ही काम करेगी। भीतर के कषायों पर नियंत्रण करना है तो आत्मा को जानना होगा और आत्मबोध करना होगा। हर जगह पर हर व्यक्ति नहीं आता है, जिसकी जहां रूचि होती है वो वहीं पर जाता है। हर व्यक्ति धर्मसभा में जा आए, हर व्यक्ति पूजा-पाठ में आ जाए, सत्संग में आ जाए या धर्म अनुष्ठानों में आ जाए यह सम्भव नहीं है। किसी की धर्म ध्यान में रूचित है तो किसी की फिल्म और टीवी सीरियल देखने में रूचि है। किसी की घूमने फिरने में रूचि है तो किसी की स्वादिष्ट भोजन में रूचि रहती है। जैसी आपकी रूचि होती है आपका शरीर और आपकी शक्तियां उसी अनुरूप काम करते हैं। जरूरी थोड़े ही है कि घर में माता- पिता के कमरे में भगवान की तस्वीर है, गुरूओं की तस्वीर लगी है तो उनके बच्चों के कमरे में भी लगी हो, वो फिल्मी हीरो या हीरोईन की तस्वीर लगाएंगे, या किसी सिनसिनेरी, गार्डन की या स्वयं की ही तस्वीर लगाएंगे। यह उनकी स्वयं की रूचि है। जिसकी जैसी रूचि होती उसका स्वभाव भी वैसा ही होगा। आचार्यश्री ने कहा कि कोई भी कितना भी कठिन कार्य हो, उसमें पूर्ण रूचि और भावना होगी तो काम अवश्य ही सफल हो जाएगा। अगर हमारी रूचि धर्मध्यान की तरफ होगी तो हमारे लिए मोक्ष मार्ग के दरवाजे खुल जाएंगे। काम और क्रोध में रूचि रखने से कुछ नहीं होता है इनसे तो और जीवल ही खराब होता है। क्रोध भी करना चाहिये लेकिन आपकी रूचि बात- बात में क्रोध करने में ही है तो जीवन सफल नहीं होगा, और जो काम हो रहे होंगे वो भी बिगड़ जाएंगे। इसलिए क्रोध करना हर समय बुरा नहीं होता है। लेनिक क्रोध का उद्देश्य निर्मल और अच्छा होना चाहिये। अगर धर्म पर आंच आ रही है या हमारी मर्यादाओं और प्रतिष्ठा का हनन हो रहा है तो क्रोध करना बुरी बात नहीं है लेकिन वह भी एक सीमा तक। दुनिया में जन्म तो हर इंसान लेता है और अपनी आयु पूरी करके चला भी जाता है। लेकिन इस दुनिया में जन्म लेना कितनों का सार्थक होता है। दुनिया में जन्म और मरण दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं। दोनों को ही सार्थक करना होता है। मनुष्य का जीवन और मरण तब ही सार्थक है जब वह तमाम विकारों और कषायों से दूर रहे, त्याग, तपस्या और संयम का जीवन जीये। जो दुनिया में आया है, चाहे वह राजा हो या फकीर सभी को एक दिन तो जाना है। लेकिन दुनिया में पुरूषार्थी वो ही कहलाता है जो संयमित जीवन जीकर अपने आत्मस्वरूप को उपलब्ध होकर मरण को प्राप्त करे।
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