मुनि संभ्रांत सागर का सल्लेखना पूर्वक श्रेष्ठ समाधि मरण

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Published on : 23 Oct, 17 08:10

मुनि संभ्रांत सागर का सल्लेखना पूर्वक श्रेष्ठ समाधि मरण आचार्यश्री सुनीलसागरजी ससंघ में विराजित मुनि संभ्रांत सागर का सल्लेखना पूर्वक श्रेष्ठ समाधि मरण षनिवार की मध्य रात्री 2 बजे हुआ। अध्यक्ष षांतिलाल वेलावत ने बताया कि प्रातः 6.30 बजे मृत्यु महोत्सव का भव्य जुलूस, डोला-यात्रा आचार्यश्री ससंघ सानिध्य में जैन समाधि स्थल अषोक नगर जैन मन्दिर के पीछे के लिए रवाना हुआ। वहां पहुंचने के बाद आचार्यश्री के सानिध्य में परिवार द्वारा विधिवत संस्कार सम्पन्न करवा कर अन्तिम संस्कार किया गया। अन्तिम संस्कार के बाद सकल दिगम्बर जैन समाज की ओर से प्रातः साढ़े नौ बजे विनयांजलि सभा के बाद आयोजित हुई। देवेन्द्र छाप्या ने बताया कि आचार्यश्री ससंघ में उदयपुुर में चातुर्मास के दौरान यह तीसरा समाधि मरण है। प्रचार- प्रसार मंत्री पारस चित्तौड़ा ने बताया कि अभी वर्तमान में दो आर्यिका माताएं आचार्यश्री ससंघ में समाधिरत हैं।
मुनि संभ्रांत सागर का जीवन परिचय
मुनिकुंजर आचार्यश्री आदिसागरजी महाराज अंकलीकर परंपरा के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज विशाल संघ के भव्य चातुर्मास के अंतिम माह में श्रेष्ठ समाधि मरण ले आदर्श प्रैक्टिकल रूप से दिखाए जा रहे है। गत १ अक्टूबर २०१७ को जैनेश्वरी दीक्षा समारोह में डुंगरपुर निवासी धर्मात्मा श्रेष्ठी श्रावक देशव्रती नानालालजी वोरा (उम्र ८७ वर्ष) ने सल्लेखना समाधि साधना का संकल्प स्वीकार कर क्षुल्लक दीक्षा आचार्यश्री से प्राप्त की। बचपन से ही गुरु संगति व धार्मिक संस्कारो के बीच पले-बड़े, अभक्ष्य का पूर्ण त्याग था। ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश करते हुए भी अत्यंत न्याय नीतिपूर्वक व्यापार-दान पुण्य, गुरु सेवा करते और समस्त कर्तव्य को निभाया। उन्होंने सन् २००० में आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेकर अब निरंतर आत्मकल्याण के पथ पर चलने का संकल्प लिया। उदयपुर चातुर्मास से वह तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मतिसागरजी से श्रद्धा पूर्वक जुड़ गए थे, प्रति वर्ष चैका लेकर जाना और निर्दोष पूर्वक व्रतों का पालन करते थे। वर्ष २०१० में तपस्वी सम्राट गुरुवर से कोल्हापुर में सात प्रतिमा का व्रत लिया और घर में शुद्धिपूर्वक विरक्त जीवन जीते थे। अब ८७ वर्ष उम्र, शरीर भी जवाब दे चुका था, मन से सम्पूर्ण परिग्रह व विकल्प त्यागकर एकमात्र समतापूर्वक समाधिमरण की उत्कृष्ट भावना लेकर गुरु सुनीलसागरजी चरणों में आए। गत १ अक्टूबर को दीक्षा हुई- तब से केवल जल लेकर धीरे धीरे वह शरीर व कषायो को विधिपूर्वक क्रश कर रहे थे। आचार्यश्री का पूरा वात्सल्य व आशीर्वाद निरंतर प्राप्त कर, सभी मुनि महाराज द्वारा वैयावृत्ति, देखरेख एवं उनके ग्रहस्थ पुत्र महेंद्र जी एवं परिवार सेवा में लगा हुआ था। पर क्षुल्लक संभ्रांत सागरजी अत्यंत निर्मोही होकर समस्त विकल्प का त्यागकर शांति से अपनी चर्या का पालन करते थे। पूर्व दिन से स्वास्थ्य थोड़ा नरम दिख रहा था, सभी णमोकार का जाप सुना रहे थे, रात के करीब १.३० बजे थे, आचार्यश्री को भी उनका ध्यान आया, वे उठकर क्षुल्लकजी के पास आए। अवस्था देखी, भावना पूछी, उनके परिणाम देख उसी स्वरूप उन्हें मुनि दीक्षा के संस्कार प्रदान कर अरिहंत सिद्ध का स्मरण, आत्मा का संबोधन, पद्मासन में बैठे बैठे गुरु सानिध्य में अत्यंत शांत निर्मल परिणामों से रात्रि २.०० बजे देह विसर्जन कर पुण्यात्मा ऊर्ध्वलोक की यात्रा करी। ग्रहस्थ जीवन में रहकर भी कैसे अपना कल्याण साधना होता है, पुत्र कैसे कर्तव्य निभाये इसका इस काल में उत्कृष्ट उदाहरण व आदर्श प्रस्तुत किया गया।

प्रभु सुमिरन के साथ मरण ही सुमरण होता हैः आचार्यश्री सुनीलसागरजी
हुमड़ भवन में आयोजित धर्मसभा में आचार्यश्री सुनील सागरजी महाराज ने अपने प्रवचन में कहा कि-दुनिया के प्रपंचों में षांति का हरण होता है लेकिन प्रभु के चरणों में षांति का वरण होता है। प्रभु का सुमिरन करते करते मरण हो वही सुमरण कहलाता है। मरण बहुत होते है, रोज होते है। बिस्तर पर सोते सोते मरने वाले बहुत है, संस्तर पर हस्ते हुए नियमपूर्वक मरने वाले वीरले होते है। लेटे लेटे सब मरते है, बैठे बैठे मरने की विधि जिनशासन में पाई जाती है। मरना तो है ही, पर होश पूर्वक मरना, अत्यंत शांति समता से देह को छोड़ना, वीरता पूर्वक और सुमरण मरण कहलाता है। यू ंतो बेहोषी में कायरों की तरह हॉस्पिटल में चारों तरफ नली लगाकर मरना सुमरण नहीं कहलाता है।
आचार्यश्री ने कहा कि जहाँ बाहर परिग्रह छोड़, अंतरंग धन, परिवार, देह सब ममत्व व विकल्प छोड़ दिए, मतलब अब संसार भी छूट ही जाएगा, तब जाकर सुमरण होता है, वह एक दिन जन्म-मरण से छूट जाता है, यह विधि सिर्फ जिनशासन में ही कही गई है। श्रेष्ठ यह है कि युवा अवस्था में होश पूर्वक संयम पालो, यदि ग्रहस्थ में प्रवेश करो तो भी कर्तव्यों से निवृत्त होकर ऐसे सल्लेखना की साधना स्वीकारो। मारना तो है ही, ऐसे जीयो की जीवन सुधर जाए, साथ ही मरण सुधारकर भव भव सुधर जाए। निरंतर साधु की सेवा, धर्म स्थान, निर्मल परिणाम, अत्यंत पुरुषार्थ से किसी के ऐसे भाव बनते है और सद्भावना को सम्भालनेवाले सहयोगी कम ही मिल पाते है। हमें भी यह अवसर पाकर अपने लिए निरंतर समाधि मरण की भावना भाते रहना चाहिए, बेटे संकल्प ले ले कि माता-पिता के संयम मरण में सहायक बनेगे।
8 दिवसीय सिद्धचक्र मण्डल विधान 28 से
प्रचार प्रसार मं़त्री पारस चित्तौ़ा ने बताया कि आचार्यश्री सुनीलसागरजी के सानिध्य में अश्टान्हिका में 8 दिवसीय सिद्धचक्र मण्डल विधान 28 अक्टूबर से 5 नवम्बर तक हुमड़ भवन में होगा जो सवेरे 6 बजे से 9 बजे तक चलेगा। इस दौरान विभिन्न धार्मिक अनुश्ठान सम्म्पादित होंगे। षाम को भक्ति संध्या एवं सांस्कृृत कार्यक्रम होंगे। नाटिका की प्रस्तुति अलवर के भक्ति मण्डल द्वारा की जाएगी। यह जानकरी संघस्थ ब्रह्मचारी अमृ्ता दीदी ने दी।
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