लक्ष्मीनाथ की कृपा निराली

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Published on : 19 Oct, 17 15:10

लक्ष्मीनाथ की कृपा निराली लक्ष्मी नारायण खत्री
जैसलमेर आने वाले पर्यटक प्रायः पूछते है इस मरूस्थली पिछडे भू-भाग में इतने सुन्दर एवं भव्य, किला, मंदिर महल एवं हवेलियां कैसे बन गए। जब इन्हें बताया जाता है कि यह रेतीला क्षेत्र किसी समय में हिन्दुस्तान का माना हुआ व्यापारिक केन्द्र था। इसी भू-भाग से इराक, ईरान अरब देशों को बहुमूल्य वस्तुओं का आयात-निर्यात किया जाता था। यही कारण भी है कि जैसलमेर में व्यापार के बल पर लक्ष्मी का प्रवाह भरपूर था।

जैसलमेर के व्यापारी उच्च महत्वाकांक्षी थे। धन प्राप्ति के लिये वे नियमित परिश्रम तो करते ही थे साथ ही ईमानदारी तथा गहन भक्ति व साधना कर भक्ति भाव से लक्ष्मी को खूब रिझाते थे। यहाँ के स्वर्ण दुर्ग में लक्ष्मीनाथ मंदिर लक्ष्मीजी की आराधना का प्रमुख स्थान है।

रियासत के महारावल के राजा
लक्ष्मीनाथ (लक्ष्मी एवं विष्णु), यहां धन, यश, सुख एवं शांति के प्रतीक के रूप में पूजनीय है तथा इस मंदिर का इतिहास एवं स्थापत्य कला बेजोड है। जैसलमेर के चन्द्रवंशी भाटी महारावल लक्ष्मीनाथजी को राज्य का मालिक तथा स्वयं को राज्य का दीवान मानकर शासन किया करते थे। राज्य के समस्त पत्र व्यवहार, अनुबंधन एवं शिलालेखों पर सर्वप्रथम लक्ष्मीनाथजी शब्द लिख कर शुभारंभ करने की परम्परा रही है। परम्परानुसार मंदिर के लिये सामग्री भी राजघराने की ओर से दी जाती थी।
स्वर्ण आभूषणों से श्रृंगारित

दुर्ग में बने इस मंदिर का निर्माण महारावल बेरसी के राज्यकाल में माघ शुक्ला पंचमी शुक्रवार अश्वनी नक्षत्र में विक्रम संवत १४९४ को हुई थी। लक्ष्मीनाथ जी की मूर्ति सफेद संगमरमर में तरासी हुई है इसका मुख पश्चिमी दिशा की ओर है तथा घुटने पर अर्द्धागिंनी लक्ष्मी विराजमान है। मूर्ति का सिर, कान, हाथ, कमर, पांव स्वर्णाभूषणों एवं विविध वस्त्रों इत्यादि से सजे संवरे है। मूर्ति में लक्ष्मीनाथ जी एवं लक्ष्मी जी का स्वरूप मारवाडी सेठ-सेठानी सरीखा दिखता है।

हीरों पन्नों व सोने चांदी के बर्तनों, आभूषणों से लक्ष्मीनाथ जी का भंडार भरा है। मंदिर की सम्पन्नता का मुख्य कारण स्थानीय सेठों द्वारा आय का कुछ भाग नियमित चढावा रहा है। लोग व्यवसाययिक गतिविधियां शुरू करने से पूर्व लक्ष्मीनाथजी से मन्नत मांगते थे। जब मन्नत पूर्ण हो जाती थी तब लोग लक्ष्मीनाथजी के चरणों में खुलकर बहूमूल्य श्रद्धासुमन अर्पित करते थे। इसके अलावा विवाह इत्यादि कुछ जातियों से कर वसूला जाता था, जो मंदिर में जमा होता था। इसका संचालन राज्य कामदारों एवं प्रतिष्ठित माहेश्वरी सेठों की एक कमेटी करती थी।
मावे का पेडा

शाकद्विपीय भोजक ब्राहमण मसूरिया सेणपाल के वंशज इसके पुजारी है मंदिर सवेरे एवं सांय खुलता है। दिन में कुल पांच आरतियां कर लक्ष्मीनाथजी का यशोगान किया जाता है सेणपाल के वंशज बढने के कारण पुजारी बारी-बारी से बदलते रहते है। पुजारी को वेतन नहीं मिलता बल्कि जलोट (पाट) कर आया चढावा मिलता है। लक्ष्मीनाथ जी की सेवा के दौरान पुजारी को पारंपरिक रीति-रिवाज निभाने पडते है। परम्परानुसार लक्ष्मीनाथजी को दूध के मावे का पेडा प्रसाद के रूप में चढाया जाता है। यहां आने वाले सभी भक्तों को मावे का प्रसाद व पवित्र जल चरनामृत के रूप में दिया जाता है। इसके साथ ही विविध व्यंजनों का प्रतिदिन भोग लगाया जाता है। यहां आने वाला भक्त चन्दन का टीका भी लगाता है जो मंदिर में हमेशा रहता है।

स्थापत्य की बेजोड कृति

लक्ष्मीनाथ जी का मंदिर स्थापत्य कला की दृष्टि से बेजोड कृति है। इसके स्तंभों, पत्थरो में खुशी महीन पुष्पलताएँ, देव प्रतिमाएं, पशु पक्षी आदि चित्रात्मक है। मंदिर के सभा मंडप में बनी रंग रोगन की चित्रकारी भी नयनाभिराम है। मंदिर की दीवारों, तोरणों व खम्भों को देखने से आभास होता है मंदिर की स्थापत्य कला १४वीं सदी की न होकर पूर्व की है ऐसा लगता है कि इसके पत्थर किसी पूर्व ध्वस्त मंदिर के लाकर लगाए गए है। प्रारंभ में यह मंदिर छोटा था, बाद में कुछ पर्चो, चमत्कारों के कारण इसका विकास हुआ। यह मंदिर सैकडों वर्ष पुराना है पर धन, यश सुख की इच्छा रखने वाले लोग आज भी नहा धोकर सुबह लक्ष्मीनाथजी के दर्शन करने जाते है।

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