दीप से दीप जलाते चलो ....

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Published on : 18 Oct, 17 15:10

दीपावली रोशनी का पर्व है और यह संदेश देता है कि न केवल हमारा जीवन बल्कि सभी का जीवन आलोकित बना रहे, परिवेश में उजाला बना रहे और कहीं भी अँधेरे का नामोनिशान न रहे।
दो-चार दिन दीप जलाकर रोशनी कर देने का कोई औचित्य नहीं है यदि हमारे अन्तर्मन में दीवाली के दीपों का संदेश साल भर न बना रहे। अंधेरा परिवेश में ही नहीं होता बल्कि हमारे मन-मस्तिष्क में होता है। जब तक मन का अंधेरा दूर नहीं होता तब तक हम बाहर चाहे कितने हजार-लाख दीप जला लें, इनका कोई औचित्य नहीं है।
भीतर का अंधेरा दूर किए बिना बाहरी चकाचौंध का कोई अर्थ नहीं है। मन के कोनों में छाया अंधकार ही हमारी तमाम समस्याओं, आत्महीनता और दुर्भाग्य का सबसे बड़ा कारण है। यह अंधेरा दिल में धड़कनों में उद्विग्नता पैदा करता है, दिमाग में खुराफात की फसलें उगाता रहता है और शरीर को बीमारियों का घर बनाता रहता है।
यह अंधेरा हमें अपने पाशों में इतना अधिक बाँध कर रखता है कि हम उजालों के करीब पहुँचने का साहस तक नहीं जुटा पाते। अन्तर का यह तम ही है जो कि हमें अपने स्वार्थ और कामनाओं से मदान्ध बनाकर अंधेरों की शरण में ले जाता है, अंधेरा पसन्द उल्लुओं, चमगादड़ों और झींगुरों से दोस्ती और तमाम प्रकार के संबंध कायम कराने में अहम् भूमिका निभाता है।
यह अंधेरा ही है जो हमें असत्य, अहंकार और अन्याय की ओर ले जाता है। आज की दुनिया के तमाम अपराधों, अहंकारों, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और हरामखोरी के पीछे यह अंधेरा और अंधेरा पसन्द लोग जिम्मेदार हैं। काले कारनामों के लिए अंधेरा अनिवार्य है।
हम सभी लोग हमेशा इस मुगालते में रहते हैं कि अंधेरे में चाहे जो चाहें, करते रहें, कोई देखने वाला नहीं है। हमें नहीं पता कि हमारी आत्मा की महीन ज्योति निरन्तर प्रज्वलित रहा करती है और उसके पास हमारे सारे कारनामों का भरा-पूरा रिकार्ड बना रहता है।
तभी तो हमारे भीतर अपराध बोध और आत्महीनता का वायरस हमेशा जिन्दा रहा करता है। और इससे इतना अधिक भय बना रहता है कि हमें नींद नहीं आती, तनावों का बोझ हमेशा बना रहता है और इनसे बचाव के लिए हम डॉक्टरों, बाबाओं, ध्यानयोगियों, राजनेताओं और संरक्षकों की शरण में आते-जाते रहते हैं।
हमारे अपने अपराधों को छिपाने और अभयदान पाने के लिए हम अच्छे-बुरे लोगों का आश्रय पाने और उनकी गोद या माँद तलाशने में लगे रहते हैं।
जिन्दगी भर हम अपने स्वार्थों और कामनाओं के दास होकर इधर-उधर सब तरफ भटकते रहते हैं, सैकड़ों लोगों के आगे हाथ पसारकर क्रीत दास-दासियों की तरह कृपा की भीख माँगते रहते हैं फिर भी हमारा कुछ भला नहीं हो पाता क्योंकि हमारे भीतर का अंधियारा हमें हर तरह के उजालों के करीब जाने से रोके रखता है।
‘अप्प दीपो भव’ की भावनाओं को साकार करते हुए अपने अन्तर्मन में आत्म विश्वास के साथ अपने और ईश्वर के प्रति आस्था का नन्हा सा दीप जलाने मात्र से जीवन के तमाम अंधकारों से हम मुक्त हो सकते हैं। इस सूक्ष्म विज्ञान को जानने की आवश्यकता है।
छोटी सी दीप वर्तिका या ज्योति बड़े से बड़े अंधकारों को नष्ट करने का सामथ्र्य रखती है। दीपावली पर दीप जलाने के पीछे केवल रोशनी या चकाचौंध पैदा कर रखना ही उद्देश्य नहीं है बल्कि यह पर्व प्रकृति और पंच तत्वों के प्रति आदर-सम्मान के भावों को दर्शाता है।
बिजली की रोशनी, प्लास्टिक और काँच सामग्री का प्रयोग तथा साज-सज्जा भरी चकाचौंध का दीपावली से कोई रिश्ता नहीं है, यह भ्रम मात्र है। इस सजावट से लक्ष्मीजी को प्रसन्न करने की बातें बेमानी हैं और यही कारण है कि बरसों से तीव्रतर विद्युत रोशनी और भौतिक चकाचौंध के बावजूद समाज और देश के पिछड़ेपन का हाल वही है जो बरसों पहले था।
हम पर्व-त्योहार आदि मनाते हैं, धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाजों और परंपराओं में रमे भी रहते हैं लेकिन कभी इस बात का मूल्यांकन नहीं करते कि हम जो कुछ कर रहे हैं उसका परिणाम क्या सामने आ रहा है।
दीपावाली और दूसरे किसी भी पर्व पर दीपक जलाने में मिट्टी के दीपों का ही महत्व है। इसके पीछे कारण यह है कि जो रोशनी हो, उजाला हो वह पृथ्वी तत्व और अग्नि तत्व के मिश्रण का हो और पृथ्वी तत्व भी शुद्ध हो, अग्नि तत्व के कारक भी शुद्ध हों।
इनके सान्निध्य में जो कुछ आराधना, लक्ष्मीपूजन, जप-तप आदि किए जाते हैं वे धूम्र के माध्यम से संबंधित देवी-देवताओं तक पहुँचते हैं और ऊपर के लोकों तक इनका असर होता है। यदि धरती पर मोमबत्ती, प्लास्टिक और विजातीय द्रव्यों का उपयोग किया जाएगा तो इनका धूम्र और हमारी आराधना की ऊर्जा में विभक्तिकरण रहेगा और उस स्थिति में धुम्रयान का कोई महत्व नहीं रह जाएगा।
इससे दो तरफा नुकसान होगा। एक तो आसमान में प्रदूषण फैलेगा और दूसरी तरफ देवी-देवताओं को रिझाने और लक्ष्मी साधना की दिव्य और दैवीय ऊर्जा के प्रभाव ऊपर के लोकों तक या संबंधित देवी-देवताओं तक नहीं पहुँच पाएंगे। और तीसरा नुकसान यह कि इस चकाचौंध और कृत्रिम रोशनी पर अनाप-शनाप खर्च कर दिए जाने के बावजूद हमें कोई फायदा नहीं पहुंचेगा। धन, समय और श्रम आदि सब कुछ बेकार ही चला जाएगा।
मिट्टी के दीयों के सान्निध्य में की गई लक्ष्मी पूजा और मनायी गई दीपावली सिद्ध होती है, बिजली की चकाचौंध और मोमबत्ती की लौ आदि से कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। जो लोग पृथ्वी तत्व की उपेक्षा कर मिट्टी के दीयों का प्रयोग नहीं करते, उन पर पृथ्वी तत्व, अग्नि तत्व भी कुपित रहते हैं और प्रकृति भी गुस्सायी रहती है।
इस कारण से हमारे शरीर पर भी घातक असर पड़ता है क्योंकि हमारा पूरा शरीर इन्हीं पंच तत्वों से बना है। परंपराओं से मुँह मोड़ना और कृत्रिमता अपनाना ही वह कारण है कि हमें अपने जीवन में मन्दाग्नि, बीमारियों आदि का सामना करना पड़ता है और कभी न कभी वेन्टिलेटर का सहारा लेने के बाद ही देहपात को विवश होना पड़ता है।
दीपावली पर भले ही कम मात्रा में जलाएं लेकिन मिट्टी के दीप जलाएं, यह अपने आप में यज्ञ के बराबर फल प्रदान करते हैं। और एक दीप अपने हृदय में भी जलाएँ जो कि शुचिता, ईमानदारी, पवित्रता और कल्याणकारी भावों से भरा हुआ हो। असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय॥ मृत्योर्माअमृतंगमय॥। दीप से दीप जलाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो.......।
दीपावली एवं नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ .....।

साभार :


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