विष्वविद्यालय द्वारा रचना पाठ कार्यक्रम का आयोजन

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Published on : 12 Oct, 17 07:10

 विष्वविद्यालय द्वारा रचना पाठ कार्यक्रम का आयोजन हिंदी विभाग, मोहनलाल सुखाडया विष्वविद्यालय द्वारा रचना पाठ कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम संयोजक डॉ. नवीन नंदवाना ने बताया कि इस कार्यक्रम में इलाहाबाद से आए हिंदी के दो वरिश्ठ साहित्यकारों श्रीप्रकाष मिश्र एवं श्रीरंग ने अपनी कविताओं का पाठ किया।
हिंदी के प्रसिद्ध कवि व उपन्यासकार श्रीप्रकाष मिश्र ने प्रकृति, पर्यावरण और आदिवासी चिंंतन से जुडी विविध कविताओं का पाठ किया। उनकी रचना ’कभी सोचा न था कि, एक दिन ऐसा आयेगा, जब बिक जायेगा, नदियों का पानी, पेडों की हवा, हमारे घरों में आती रोषनी, हमारे पहाड! हमारे खेत !! जिसमें हम हल चलाते थे, धरती का तोडकर हाड, खोदकर निकाले जायगे खनिज, विदेषी व्यापारियों के लिए।।‘‘ कविता के माध्यम से उन्होंने आदिवासी जीवन के यथार्थ को उद्घाटित करने का प्रयास किया। रोटी की बात करते हुए श्री मिश्र ने कहा कि- ’’रोटी की बात आते ही, गेहूँ मेरे सामने हता है। उसकी नियति होती है, कुट-पिस कर आटा बन जाना, मद्धिम आंच में तपकर रोटी बन जाना, भूख मिटाना। और उसकी संभावना होती है, धरती में गिरकर बीज बन जाना, बाली बन दस गुन देना।।‘‘ इस प्रकार श्रीप्रकाष मिश्र की कविताओं ने मानव जीवन व पर्यावरण से जुडे विभिन्न विशयों को श्रोताओं के सम्मुख रखकर आज के जीवन की विविध समस्याओं को रखते हुए समाधान का मार्ग सुझाया।
कार्यक्रम में रचना पाठ कर रहे दूसरे साहित्यकार कवि श्रीरंग ने अपनी कविताओं के माध्यम से जीवन व जगत के विविध विशयों को बडी सूक्ष्मता से उठाया। ’पेड और पत्तियाँ‘ नामक उनकी कविता ने खूब तालियां बटोरी। ’’पेड के जीवन में, आती-जाती हैं, न जाने कितनी पत्तियाँ, पत्तियों के जीवन में आते नहीं दूसरे पेड। पेड के होते हैं कई बसंत, पत्तियों में होते हैं सिर्फ दो बसंत, एक बसंत, दूसरा बस-अंत।।‘‘ उनकी कविता ’’मां के प्रति‘ भी भावपूर्ण थी। ’’पिता, मैं बहुत थोडा हूँ तुम्हारा, और बहुत सारा हूँ उसका, जिसका नाम तुम्हारे दफ्तर के लोग नहीं जानते, नहीं जानती सरकारी फाइलें, नहीं जानती मरी टीचर, नहीं जानते मेरे दोस्त भी।‘‘ कविता के माध्यम से रचनाकार ने मां के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करते हुए इस बात को उजागर करने का प्रयास किया है कि आज भी हमारे समाज में पिता को प्रमुखता दी जाती है। माँ और उसकी पहचान आज भी कहीं उपेक्षित हैं। ’दुनियादारी‘ कविता के माध्यम से उन्होंने यह दर्षाने का प्रयास किया है कि ’पहले की तरह, सब कुछ होता है, तुम्हारे न रहने पर भी, कितना भी बडा क्यों न हो, किसी एक आदमी से नहीं होती दुनियां।। ... एक आदमी पूरी दुनियां को नहीं जान सकता, एक आदमी को पूरी दुनियां जान सकती है।।‘‘
इस कार्यक्रम में डॉ. आषीश सिसोदिया, डॉ. राजकुमार व्यास, डॉ. नीता त्रिवेदी सहित कई षोधार्थी और विद्यार्थी उपस्थित थे।
कार्यक्रम का संचालन डॉ. नवीन नंदवाना ने किया जबकि आभार डॉ. नीतू परिहार ने व्यक्त किया।

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