“प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की पुण्य तिथि पर उन्हें नमन”

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Published on : 19 Sep, 17 08:09

आज आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी है। आज के ही दिन विक्रमी सम्वत् 1925 में स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी का देहपात हुआ था। उस दिन अंग्रेजी तिथि 14 सितम्बर, 1868 थी। स्वामी विरजानन्द जी का महत्व इस कारण अधिक हो जाता है कि वह महर्षि दयानन्द के विद्या गुरू थे और उन्होंने ही ऋषि दयानन्द जी को देश से अन्धविश्वास दूर कर ऋषि वा वेद परम्परा को पुनर्स्थापित करने की प्रेरणा की थी। ऋषि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द जी से वेद व्याकरण की अष्टाध्यायी महाभाष्य पद्धति का अध्ययन किया था। इसमें पारंगत होने सहित निरुक्त व निघण्टु का अध्ययन कर वह इनका उपयोग करते हुए वेद भाष्य के सुयोग्य पात्र बने थे। इन सबका परिणाम स्वामी दयानन्द जी द्वारा किया गया वेद प्रचार का कार्य है जिसमें सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन सम्मिलित है। इसी उद्देश्य से स्वामी जी ने विश्व में प्रचलित सभी मतों का अध्ययन किया और उनमें निहित सत्यासत्य का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया। उनका यह अध्ययन ही भविष्य में सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना का निमित्त बना और इस ग्रन्थ के अन्त के चार अध्याय ऋषि दयानन्द जी ने भारत देशीय और विदेशी मतों की समालोचना को समर्पित किये। स्वामी जी ने मौखिक व लिखित दोनों प्रकार से वेद व वैदिक साहित्य का प्रचार किया। मौखिक प्रचार में उनके प्रवचन व उपदेश आते हैं, इतर विद्वानों से शंका समाधान व वार्तालाप होने सहित सभी मतों के विद्वानों से शास्त्रार्थ आदि सम्मिलित है। लिखित प्रचार की बात करें तो इसमें स्वामी दयानन्द जी द्वारा लिखे गये सभी ग्रन्थ जिनमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, पंचमहायज्ञविधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि आते हैं। स्वामी जी का समस्त पत्र-व्यवहार भी एक प्रकार का सिद्धान्त ग्रन्थ ही सिद्ध होता है जिससे अनेक शंकाओं का समाधान व तत्कालीन इतिहास सहित उनके जीवन पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। स्वामी विरजानन्द जी की शिक्षा का ही प्रभाव था कि स्वामी जी ने देश भर में वेद प्रचार के लिए वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानने व सिद्ध करने वाली संस्था ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की। सत्यार्थ प्रकाश में अन्य मतों के लोगों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने एक स्थान पर लिखा है कि जो उन्नति करना चाहते हो तो आर्यसमाज के साथ मिलकर कार्य करना स्वीकार करो वरना आपके हाथ कुछ न लगेगा। स्वामी दयानन्द जी ने जो यह सब कार्य किये उनका आंशिक श्रेय स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी को भी है।

स्वामी विरजानन्द जी का जन्म पंजाब के कर्तारपुर में विक्रमी संवत् 1835 वा आंग्ल वर्ष सन् 1778 में पिता नारायणदत्त, एक सारस्वत ब्राह्मण, के यहां हुआ था। 5 वर्ष की आयु में विरजानन्द जी की नेत्र ज्योति चली गई थी। वह विद्याध्ययन के लिए किसी विद्यालय या पाठशाला में नहीं गये। आठ वर्ष का होने पर उन्होंने अपने पिता से ही संस्कृत व्याकरण पढ़ना आरम्भ किया था। कुछ काल बाद ही उनके माता पिता का देहान्त हो गया। उनका एक बड़ा भाई था। उसका व उसकी पत्नी का विरजानन्द जी के प्रति अच्छा व्यवहार नहीं था। इस कारण उन्होंने गृह त्याग का निर्णय लिया। विरजानन्द जी ने अपने भावी जीवन का विचार कर गृह त्याग कर ऋषिकेश का आश्रय लिया। विरजानन्द जी को ऋषिकेश में एक दिन एक स्वप्न आया जिसके प्रभाव से वह ऋषिकेश से कनखल आ गये। कनखल में उन्हें स्वामी पूर्णाश्रम जी का सत्संग प्राप्त हुआ। उन्हीं से उन्होंने संन्यास ले लिया। स्वामी विरजानन्द जी की स्मरण शक्ति गजब की बताई जाती है। वह जो ग्रन्थ पढ़ते थे उसे स्मरण कर लेते थे। कनखल में ही उन्होंने ‘कौमुदी’ का पाठ सुना और उसे स्मरण कर लिया था।

विद्या प्राप्ती के लिए स्वामी जी ने काशी, गया और सोरों अलवर आदि की यात्रायें भी कीं। सोरों में आपकी भेंट अलवर नरेश विनयसिंह जी से हुई। उन्होंने स्वामी जी को विष्णु स्तोत्र का पाठ करते सुना तो वह उनके शब्दोच्चार व शुद्ध स्वर पर मोहित हो गये। नरेश विनयसिंह जी को अध्ययन कराने की शर्त पर वह उनके साथ अलवर आ गये। स्वामी जी तीन चार वर्ष अलवर रहे। एक दिन विनयसिंह जी अध्ययन के लिए नहीं पहुंचे। इससे खिन्न होकर उन्होंने अलवर छोड़ दिया था।

स्वामी विरजानन्द जी ने मथुरा आकर एक पाठशाला स्थापित की थी जहां निःशुल्क शिक्षण हुआ करता था। ऋषि दयानन्द जी भी इसी पाठशाला में पढ़े थे। एक किराये का मकान भी लिया गया था जहां विद्यार्थी पढ़ते थे। अलवर, जयपुर, भरतपुर राज्यों से इस पाठशाला को आर्थिक सहायता प्राप्त होती थी। मथुरा में रहते हुए स्वामी विरजानन्द जी का एक प्रसिद्ध सनातनी विद्वान कृष्ण शास्त्री से संस्कृत व्याकरण विषयक शास्त्रार्थ हुआ था। पक्ष स्वामी विरजानन्द जी का ठीक था परन्तु धन के बल पर काशी के पण्डितों ने कृष्ण शास्त्री के पक्ष में व्यवस्था दी थी। इससे स्वामी जी को खेद हुआ था।

दण्डी जी के जीवन पर दृष्टि डाले तो वह विद्या प्राप्ति के सच्चे पिपासु सिद्ध होते हैं। यही कारण था कि उन्होंने विलुप्त व अप्रचिलत अष्टाध्यायी व महाभाष्य पद्धति को प्राप्त किया व उसका सफल अध्यापन किया। स्वामी जी का सारा जीवन विद्या प्राप्ति और शिष्यों को उसके अध्यापन द्वारा उसके प्रचार में व्यतीत ही हुआ। देश में फैली अविद्या एव पाखण्ड से वह अन्दर ही अन्दर दुःखी थे। यदि वह नेत्रान्ध न होते तो वह भी वही कार्य करते जो स्वामी दयानन्द जी ने अपने जीवन में किया है। उनकी साधना विफल नहीं गई। उन्हें जीवन की समाप्ति से आठ वर्ष पूर्व स्वामी दयानन्द जी जैसे अपूर्व शिष्य मिले जिन्होंने स्वामी विरजानन्द जी की विद्या और नाम को संसार में अमर कर दिया। केवल नाम को अमर नहीं किया अपितु भारत को उसके प्राचीन गौरव से परिचित भी कराया और उसकी प्राप्ति के उपाय भी बताये। ऋषि दयानन्द ने महाभारतकाल व उसके बाद विलुप्त अध्ययन अध्यापन की अनार्ष प्रणाली के स्थान पर आर्ष प्रणाली का प्रचार किया। इसका परिणाम कालान्तर में उनके शिष्यों द्वारा आर्ष व्याकरण का पठन पाठन कराया गया। स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने आर्ष व्याकरण के प्रचार व प्रसार के क्षेत्र में महनीय कार्य किया है।

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