“हमारी आत्मा के भीतर व बाहर होने पर भी हम ईश्वर का अनुभव क्यों नहीं कर पाते हैं?”

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Published on : 18 Aug, 17 09:08

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ओ३म्
चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वरीय ज्ञान है जो ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा नाम वाले चार ऋषियों को दिया था। यह चारों ऋषि अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न हुए थे। वेदों के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। इन गुणों व विशेषणों वाला ईश्वर ही संसार की मनुष्य रूप में विद्यमान सभी जीवात्माओं के लिए उपासनीय, विचार, चिन्तन व ध्यान करने योग्य है। वेद बताते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी है। इसका अर्थ है कि ईश्वर हमारे शरीर व जीवात्मा के भीतर भी है और बाहर भी है। अब प्रश्न यह है कि यदि ईश्वर हमारे निकट व निकटतम है तो फिर हम इसे देख क्यों नहीं पाते और इसका अनुभव क्यों नहीं कर पाते? इस प्रश्न का यदि सही उत्तर मिल जाये और उसे हम समझ सकें तो ईश्वर विषयक हमारी सारी भ्रान्तियां दूर हो सकती हैं और हम सच्चे आस्तिक बन सकते हैं।

सृष्टि में हमें यह नियम दिखाई देता है कि जो वस्तु बहुत पास हो या फिर बहुत दूर हो, वह हमें दिखाई नहीं देती हैं। आंख के एक कोने में पड़ा सूक्ष्म व बारीक तिनका आंख के अति निकट होने पर भी आंखों को या आंखों से दिखता नहीं है। इसी प्रकार हम कुछ मीटर 200 से 500 या 1000 मीटर या कुछ अधिक दूरी तक की वस्तुओं को ही देख पाते हैं। इससे अधिक दूर की वृहद वस्तुएं हमें अधिक दूरी के कारण दिखाई नहीं देती हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि हमें आंखों से स्थूल पदार्थ ही दिखाई देते हैं। सूक्ष्म पदार्थों में न केवल ईश्वर अपितु अनेक भौतिक पदार्थ भी दिखाई नहीं देते हैं। हम अपनी व अन्य शरीरों में विद्यमान जीवात्माओं को भी कहां देख पाते हैं? वायु में अनेक गैसों के परमाणु वा अणु होते हैं परन्तु वह इतने सूक्ष्म हैं कि उनका अस्तित्व होने पर भी वह हमें दिखाई नहीं देते। वायुमण्डल के अनेक सूक्ष्म किटाणु भी हमें दिखाई नहीं देते परन्तु सूक्ष्मदर्शी यन्त्र अर्थात् माइक्रोस्कोप से उन्हें देखा जा सकता है। हमारे रक्त में अनेक प्रकार के कण होते हैं जिन्हें हमारे चिकित्सक यन्त्रों की सहायता से स्पष्ट रूप में देख लेते हैं। ईश्वर इन सबसे अर्थात् सभी प्रकार के भौतिक कणों, अणु व परमाणुओं, यहां तक की जीवात्मा से भी सूक्ष्म है। इस कारण भी हम ईश्वर का दर्शन नहीं कर पाते। अतः यह सिद्धान्त है कि आंखों से दिखाई न देने वाले पदार्थों के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। यदि कोई करता है तो यही कहा जायेगा कि उसका ज्ञान सीमित है।

इससे पूर्व कि हम ईश्वर के अनुभव न होने संबंधी विषय की चर्चा करें, हम ईश्वर के दर्शन व प्रत्यक्ष पर कुछ और चर्चा कर लेते हैं। यह नियम है कि आंखों से गुणों का दर्शन होता है गुणी का नहीं। अग्नि को लीजिये, अग्नि में प्रकाश, गर्मी वा दाहकता तथा आकाश की दिशा में जाने का गुण होता है। इन्हें देख कर ही इसे अग्नि कहा जा सकता है। परन्तु यह प्रकाश व दाहकता आदि तो अग्नि के गुण हैं। इन गुणों वाली अग्नि तो किसी को दिखाई ही नहीं देती। इसी प्रकार से संसार की सभी वस्तुओं में जो गुण विशेष हैं, उन गुणों को उन पदार्थों में स्थापित करने व उन्हें नियम में रखने के कारण ईश्वर का ज्ञान भी उन सभी पदार्थों से होता है। हम संसार में नाना प्रकार के पदार्थों को देखते हैं। सब पदार्थों की रचनाओं में अन्तर है। यह अलग अलग रचनायें व उनके पृथक पृथक गुण इनके रचयिता का बोध व ज्ञान कराते हैं। विविध फूलों में अलग अलग रचना, आकर्षक रंग व मनमोहक आकृतियां तथा नाना प्रकार की सुगन्ध आदि विशेष गुणों को देखकर इसके कर्ता ईश्वर का ज्ञान होता है। संसार में जो भी रचनायें हैं, जिन्हें मनुष्य नहीं कर सकता, वह रचनायें अपौरुषेय कहलाती हैं। उनका रचयिता ईश्वर ही होता है, कोई पुरुष वा मनुष्य नहीं हो सकता। विचार करने पर यह सिद्ध होता है जड़ पदार्थ न किसी नियम का पालन कर स्वयं कुछ उपयोगी पदार्थ बन सकते हैं और न वह अपने भीतर उन पदार्थों के गुण ही उत्पन्न कर सकते हैं। पदार्थों की बुद्धिपूर्वक रचना करना व उनमें नाना प्रकार के गुण उत्पन्न करना व उन पदार्थों का विशेष नियमों के अन्तर्गत व्यवहार करना ईश्वर की व्यवस्था व रचनादि गुणों के कारण ही सम्भव होता है।

ईश्वर का अनुभव न होने का एक कारण यह भी है कि हम कभी भलीभांति ईश्वर के अस्तित्व व हमारे भीतर व बाहर उसकी उपस्थित पर चिन्तन ही नहीं करते। यदि करें तो उसका अनुभव अवश्य होगा। ब्रह्माण्ड में अनन्त सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि लोक लोकान्तर अपौरूषेय सत्ता अर्थात् ईश्वर द्वारा रचित है। पृथिवी पर सब पदार्थ अग्नि, वायु, जल व आकाश आदि भी ईश्वर रचित हैं। मनुष्य, पशु व पक्षियों आदि को भी वही बनाता व जन्म देता है। अन्न, फल व वनस्पतियों आदि तथा गोमाता में दुग्ध को भी परमात्मा ही सर्वत्र बनाता है। यह सभी रचनायें परमात्मा संसार में सर्वत्र, दूर दूर व पूरे ब्रह्माण्ड में करता है। इससे उन सभी स्थानों पर उसकी उपस्थिति सिद्ध होती है। इसका कारण यह है कि रचना वहीं होती है जहां कि रचनाकार व रचना की सामग्री उपस्थित हो। इस प्रकार से विचार करने पर ईश्वर सर्वव्यापक, निराकार, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ व सच्चिदानन्द आदि सिद्ध होता है। जब ईश्वर के विषय में इस प्रकार तर्क पूर्वक विचार करते हैं तब यही अन्तिम उत्तर मिलता है कि संसार व सभी अपौरूषेय पदार्थों का रचयिता ईश्वर है। इसके बाद हमें ईश्वर को अनुभव करना ही शेष रहा जाता है। किसी पदार्थ व सत्ता की कहीं उपस्थिति को अनुभव करने के लिए मन को उस वस्तु में लगाकर विचार व ध्यान करना होता है। यदि हमारा ध्यान हमारे सामने घट रही घटना में उपस्थित न हो तो आंखे खुली होने पर भी हमें उसका ज्ञान नहीं होगा। एक पान लगाने व बेचने वाला अपने काम में व्यस्त है। उससे किसी ने पूछा कि यहां से कोई बारात तो नहीं गई? वह उत्तर देता है और कहता है कि साहब मुझे पता नहीं, मेरा ध्यान तो पान लगाने में व्यस्त था। इस उदाहरण का प्रयोग करते हुए जब हम गम्भीरता से ईश्वर के वेद वर्णित गुणों को अपनी आत्मा के बाहर व भीतर अनुभव करने हेतु विचार व चिन्तन अथवा ध्यान करेंगे तो कुछ समय बाद निश्चय ही हमें ईश्वर की उपस्थिति का ज्ञान होगा।

इसी तथ्य व विधि का उपयोग करते हुए ऋषियों ने ईश्वर के ध्यान व सन्ध्या आदि की विधियां लिखी हैं। आंखें बन्द कर मन को ईश्वर के नाम व गायत्री मन्त्र आदि का अर्थ को स्मरण करते हुए जप करने व सन्ध्या के मन्त्रों के अर्थों पर विचार करते हुए ईश्वर का ध्यान करने से ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव उपासक वा ध्याता को होता है। जब हम आंखे बन्द कर ईश्वर को ‘धियो यो न प्रयोदयात्’ कहते हैं तो हमारे मन में अपने प्रश्न व समस्या विषयक अनेक प्रकार के विचार आते हैं। कई बार हम बहुत सी बातों को भूल जाते हैं तो हम मन को उस विषय में लगा कर उसे स्मरण करने की चेष्टा करते हैं। कुछ समय लगता है और हमें वह भूली बात स्मरण हो आती है। हमें लगता है कि ईश्वर आत्मा में विस्मृत बात का स्मरण कराने में आत्मा व बुद्धि की सहायता करते हैं। हम प्रतिदिन अपने लेखों के विषय के चयन पर विचार करते हैं। कई बार आसानी से विषय उपस्थित हो जाता है और कई बार घंटो तक भी कोई विषय नहीं आता। फिर अचानक आ जाता है। ईश्वर आत्मा में है, अतः वह अपने नियम व व्यवस्था से हमारी सहायता करता है। बात सहायता मांगने व उसके लिए ईश्वर का ध्यान, विषय का ध्यान व उसके अनुरूप कर्म करने की है। विद्वान इस विषय पर और अधिक प्रकाश डाल सकते हैं व विषय को सरल बनाकर समझा सकते हैं। देहरादून में वैदिक साधन आश्रम तपोवन के कीर्तिशेष महात्मा दयानन्द जी ने एक बार सुनाया था कि विदेशों में रहे एक बहुत बड़े डाक्टर ने उन्हें बताया था कि वह आज तक नहीं जान सके कि सड़क पर ठोकर लग कर गिरा मनुष्य कई बार मर क्यों जाता है और कई बार तीसरी मंजिल से गिरे बच्चे को कुछ विशेष चोट क्यों नहीं लगती हैं। ऐसी घटनायें हमारे जीवन में भी हुई हैं। भूकम्पों में भी ऐसे आश्चर्यजनक चमत्कार देखने को मिलते हैं। कई कई दिनों बाद लोग भवनों के मलवे में से जीवित बाहर निकल आते हैं, अस्तु। इतना तो तय है कि हमें ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करने के लिए अपने मन व आत्मा को परमात्मा के ध्यान में लगाना पड़ेगा। ध्यान करते हुए जब मन व आत्मा परमात्मा से एकाकार हो जायेंगे, हमारा ध्यान ईश्वर में स्थिर हो जायेगा, विचलित नहीं होगा तब हमें ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव अवश्य होगा।

पाठक यदि ऋषि दयानन्द द्वारा वेद मन्त्रों के आध्यात्मिक अर्थों सहित आर्याभिविनय आदि का पूरे मनोयोग से स्वाध्याय करेंगे तो उन्हें ईश्वर की उपस्थिति का निश्चय हो जायेगा, ऐसा हम अनुभव करते हैं। ऐसा नहीं है कि वेदों का अध्ययन, सन्ध्या व यज्ञ का अनुष्ठान, महात्माओं के उपदेशों का श्रवण व आत्मचिन्तन करने से कुछ नहीं होता है। यदि कुछ न होता तो सारा संसार नास्तिक होता। मनुष्यों के आस्तिक होने के अनेक कारण हैं। बुद्धिजीवी व वेद के ज्ञानी मनुष्यों के आस्तिक होने का कारण उनके स्वाध्याय से उत्पन्न संस्कार व ईश्वर का सर्व़त्र विद्यमान होना तथा सृष्टि की रचना व व्यवस्था आदि कार्य ही हैं। आईये, प्रतिदिन प्रातः व सायं ईश्वर का ध्यान-चिन्तन करने का संकल्प लें। ऐसा करेंगे तो निश्चय ही ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव होगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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