ईश्वरोपदेश--मनुष्य इस संसार में धर्मयुक्त वेदोक्त, निष्काम-कर्मों को करता हुआ ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करे।”

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Published on : 22 Jul, 17 10:07

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमने कल ईशावास्योपनिषद के प्रथम मन्त्र का ऋषि दयानन्द कृत भाषार्थ, भावार्थ तथा उसका भाष्यसार एवं उस मन्त्र की ऋषि दयानन्द जी द्वारा अन्यत्र की गई व्याख्या को प्रस्तुत किया था। आज इस उपनिषद् के मन्त्र संख्या 2 व 3 को प्रस्तुत कर रहे हैं।

ऋषि दीर्घतमाः। देवता आत्मा=परमात्मा। छन्द भुरिगनुष्टुप्। स्वर धैवतः।।

अब वैदिक कर्म की प्रधानता का उपदेश किया जाता है।

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।40/2।।

भाषार्थः मनुष्य (इह) इस संसार में (कर्माणि) धर्मयुक्त वेदोक्त, निष्काम-कर्मों को (कुर्वन्नेव) करता हुआ ही (शतम्) सौ (समाः) वर्ष (जिजीविषेत्) जीने की इच्छा करे।

(एवम्) इस प्रकार से धर्मयुक्त कर्म में लगे हुए (त्वयि) तुझ (नरे) व्यवहारों के नायक नर में (कर्म) अपने मनोरथ से किए अधर्म युक्त, अवैदिक कर्म का (न लिप्यते) लेप नहीं रहता है।

(इतः) इस वेदोक्त प्रकार से भिन्न (अन्यथा) अन्य प्रकार से कर्म के लेप का अभाव (न) नहीं (अस्ति) है। 40/2।।

भावार्थ-मनुष्य लोग आलस्य को छोड़ कर सबके द्रष्टा न्यायाधीश परमात्मा को, और आचरण करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ-कर्मों को करते हुए और अशुभ कर्मों को छोड़ते हुए, ब्रह्मचर्य के द्वारा विद्या और उत्तम-शिक्षा को प्राप्त करके उपस्थ-इन्द्रिय के संयम से वीर्य को बढ़ाकर अल्पायु में मृत्यु को हटावें, और युक्त आहार-विहार से सौ वर्ष की आयु को प्राप्त करें।

जैसे-जैसे मनुष्य श्रेष्ठ-कर्मों की ओर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे ही पाप-कर्मों से उनकी बुद्धि हटने लगती है। जिसका फल यह होता है कि-विद्या, आयु अरौर सुशीलता आदि गुणों की वृद्धि होती है।।40/2।।

भाष्यसार-वैदिक कर्म की प्रधानता-मनुष्य इस संसार में वैदिक निष्काम कर्म करता हुआ ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करे। तात्पर्य यह है कि मनुष्य आलस्य को छोड़कर, सबके द्रष्टा, न्यायाधीश, परमात्मा को तथा आचरण करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ कर्म करता हुआ और अशुभ कर्मों को छोड़ता हुआ, ब्रह्मचर्य में विद्या और सुशिक्षा को प्राप्त करके, उपस्थेन्द्रिय के संयम से वीर्य को बढ़ाकर अल्पायु का विनाश करे। युक्त आहार-विहार से सौ वर्ष की आयु को प्राप्त करे।

इस प्रकार से वैदिक (धर्मयुक्त) कर्म में प्रवृत्त होने से मनुष्य अपने मनोरथ से किये अवैदिक (अधर्मयुक्त) कर्म में लिप्त नहीं होता। जैसे-जैसे मनुष्य वैदिक कर्मों में प्रवृत्त होता है वैसे-वैसे पापकर्म से उसकी बुद्धि निवृत्त होती जाती है। विद्या, आयु और सुशीलता बढ़ती है। इस प्रकार को छोड़कर (अवैदिक) कर्म में लेपाभाव का अन्य कोई प्रकार नहीं है।।40।2।।

अन्यत्र व्याख्यात-जो परमेश्वर की पुरुषार्थ करने की आज्ञा है, उसको जो कोई तोड़ेगा वह सुख कभी न पावेगा। जैसे ‘‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः” (य.40/2) परमेश्वर आज्ञा देता है कि मनुष्य सौ वर्ष पर्यन्त अर्थात् जब तक जीवे तब तक कर्म करता हुआ जीने की इच्छा करे, आलसी कभी न हो। (सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास)।।40।2।।

तृतीय मन्त्र व उसका व्याख्यानः

ऋषि दीर्घतमाः। आत्मा=स्पष्टम्। छन्द अनुष्टुप्। स्वर गान्धारः।।

वह आत्मा के हननकर्त्ता अर्थात् आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वाले जन कैसे होते हैं, यह उपदेश किया है।।

असुर्य्या नाम ते लोकाऽअन्धेन तमसावृताः।
तास्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।3।।

भाषार्थ-जो (लोकाः) लोग (अन्धेन) अन्धकाररूप (तमसा) अज्ञान के आवरण से (आवृताः) सब ओर से ढके हुए (ये, के, च) और जो कोई (आत्महनः) आत्मा के विरुद्ध आचरण करने हारे (जनाः) मनुष्य हैं, (ते) वे (असुर्याः) अपने प्राण-पोषण में तत्पर, अविद्या आदि दोषों से युक्त लोगों एवं उनके सम्बन्धियों के स्दृश पाप कर्म करने वाले (नाम) प्रसिद्ध हैं, (ते) वे (प्रेत्य) मरने के पीछे (अपि) और जीते हुए भी (तान्) उन दुःख अज्ञान रूप अन्धकार से युक्त भोगों को (गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं।। 3।।

भावार्थ-वे ही मनुष्य असुर, दैत्य, राक्षस, पिशाच एवं दुष्ट हैं, जो आत्मा में और, वाणी में और तथा कर्म में कुछ और ही करते हैं, वे कभी अविद्या रूप दुःखसागर में पार होकर आनन्द को नहीं प्राप्त कर सकते।

और जो लोग जो आत्मा में सो मन में, जो मन में सो वाणी में, जो वाणी में सो कर्म में कपटरहित आचरण करते हैं, वे ही देव, आर्य, सौभाग्यवान् जन सब जगत् को पवित्र करते हुए इस लोक तथा परलोक में अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं।।40।3।।

भाष्यसार--आत्महन्ता लोग कैसे होते हैं--जो लोग अन्धकार रूप अज्ञान के आवरण से आच्छादित हैं, सब ओर से ढके हुए हैं, और जो आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वाले हैं, वे आत्महन्ता कहलाते हैं। वे ही असुर अर्थात् प्राण-पोषण में तत्पर, अविद्यादि दोषों से युक्त, पापकर्म करने वाले हैं। जो आत्मा में और, वाणी में और तथा कर्म में और ही आचरण करते हैं, वे ही असुर, दैत्य, राक्षस, पिशाच और दुष्ट मनुष्य हैं, वे मरकर तथा जीते हुए भी दुःख एवं अन्धकार से युक्त भोगों को प्राप्त होते हैं। वे कभी भी अविद्या रूप दुःखसागर से पार होकर आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकते।

इसके विपरीत--जो मनुष्य जो आत्मा में सो मन में, जो मन में सो वाणी में, जो वाणी में सो कर्म में निष्कपट भाव से आचरण करते हैं, वे ही देव, आर्य, सौभाग्यशाली, सकल, जगत् को पवित्र करने वाले होते हैं, वह इस लोक और परलोक में अतुल सुख को प्राप्त करते हैं।।40।3।।

अन्यत्र व्याख्यात--(ये) जो (आत्महनः) आत्महत्यारे अर्थात् आत्मस्थ ज्ञान से विरुद्ध कहने, मानने और करने हारे हैं (ते) वे ही (लोकाः) लोग (असुर्या नाम) असुर अर्थात् दैत्य, राक्षस नाम वाले मनुष्य हैं, और वे ही (अन्धेन तमसावृताः) बड़े अधर्म रूप अन्धकार से युक्त होके जीते हुए और मरण को प्राप्त होकर (तान्) दुःखदायक देह आदि पदार्थों को (अभिगच्छन्ति) सर्वथा प्राप्त होते हैं, और जो आत्मरक्षक अर्थात् आत्मा के अनुकूल ही कहते, मानते और आचरण करते हैं, वे मनुष्य विद्यारूप शुद्ध प्रकाश से युक्त होकर देव अर्थात् विद्वान् नाम से प्रख्यात हैं। वे ही सर्वदा सुख को प्राप्त होकर मरने के पीछे भी आनन्द युक्त देह आदि पदार्थों को प्राप्त होते हैं। (व्यवहारभानु)
-मनमोहन कुमार आर्य
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