‘समस्त जड़-चेतन जगत सकल ऐश्वर्य से सम्पन्न, सर्वशक्तिमान् परमात्मा से आच्छादित एवं व्याप्त है’

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Published on : 22 Jul, 17 10:07

प्रस्तुतकर्ता-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भूमिकाः आर्यसमाज 11 उपनिषदों को प्रमाणिक मानता है व उन्हीं का प्रचार व प्रसार करता है। इन उपनिषदों में ईशोपनिषद् प्रथम स्थान पर है। ईश शब्द से आरम्भ होने के कारण ही इसका नामकरण ईश-उपनिषद किया गया है। यह उपनिषद यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय पर आधारित है जिसमें कुछ मंत्रों में क्रम-भेद व दो पाठ भेद हैं। यहां हम प्रतिदिन एक एक मन्त्र का ऋषि दयानन्द कृत भाषार्थ, भावार्थ आदि प्रस्तुत कर रहे हैं। इसकी प्रेरणा हमें देहरादून के उच्च कोटि के ऋषिभक्त व 80 वषीर्य आर्य विद्वान् श्री चण्डीप्रसाद शर्मा ममगांई जी से मिली है। उन्होने फोन कर हमें ईशावास्योपनिषद के इन मंत्रों के ऋषिकृत भाष्य की महत्ता बताई और कहा कि जितने भी भाष्य उपलब्ध हैं उनमें ऋषि का भाष्य वा भाषार्थ ही सर्वोत्तम एवं गहन-गम्भीर अर्थों से युक्त है। इसका अधिक से अधिक प्रचार होना चाहिये। उन्होंने मन्त्रों की व्याख्या को पुस्तकाकार प्रकाशित करने का भी परामर्श दिया। हमने उन्हें कहा कि यदि पुस्तक प्रकाशित करायें तो क्रेता नहीं मिलते। प्रकाशन का हमारा अनुभव भी नहीं है। यदि पुस्तक प्रकाशित कराके उसे निःशुल्क भी वितरित करें तो अधिकांश लोग उसे पढ़ते नहीं हैं। इस पर उन्होंने कहा कि वह इस स्थिति को जानते व समझते हैं परन्तु यदि एक भी पात्र व्यक्ति इसे पढ़ लेता है तो हमारा उद्देश्य सफल होगा। हम उनके आदेशानुसार आज दिनांक 20-5-2017 को उनसे मिले और दो घण्टे से अधिक समय तक इस विषय व कुछ अन्य विषयों पर चर्चा की। हमने उन्हें बताया कि हम अपनी सामर्थ्यानुसार फेसबुक सहित वाट्सअप तथा इमेल से अपने सभी मित्रों तक ऋषि के वचनों को पहुंचाने का प्रयास करेंगे। इसी कड़ी में हम ईशावास्योपनिषद् के पहले मन्त्र की ऋषिकृत व्याख्या को प्रस्तुत कर रहे हैं।

हमने मन्त्र व्याख्या का यह अंश आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘उपनिषद प्रकाश’ ग्रन्थ से ले रहे हैं। इस ट्रस्ट की स्थापना सुप्रसिद्ध ऋषिभक्त महात्मा दीपचन्द आर्य जी ने की थी। उन्होंने आर्यसमाज के साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए जो कार्य किया वह इतिहास की धरोहर है। आर्यसमाज को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने में उनका महनीय योगदान है। उनके सुपुत्र यशस्वी श्री धर्मपाल आर्य जी सम्प्रति दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा के यशस्वी प्रधान हैं। आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट के आप सम्मानित मंत्री हैं। आर्य जगत् की प्रमुख मासिक पत्रिका ‘दयानन्द सन्देश’ का प्रकाशन करते हैं। ऋषि दयानन्द जी की अमर कृति तथा संसार के धार्मिक साहित्य में शीर्ष स्थान पर सुशोभित ‘सत्यार्थप्रकाश’ ग्रन्थ का शुद्ध, सुन्दर, भव्य व चित्ताकर्षक संस्करण प्रकाशित कर स्वल्प मूल्य 30 रूपये में प्रचारित करते हैं। आर्यसमाज के इतिहास में ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थों की संख्या (दिसम्बर, 2016 तक 13 लाख 53 हजार 650 प्रतियों का प्रकाशन) का आपने कीर्तिमान बनाया है जो आने वाले कई दशकों तक किसी के द्वारा टूट नहीं सकता। आपके द्वारा अन्य अनेक ऋषि ग्रन्थों का प्रकाशन भी किया जाता है। बहुत से ग्रन्थ ऐसे भी हैं जो पुनः प्रकाशन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इन ग्रन्थों का उपलब्ध न होना हमें कुछ असह्य सा भी लगता है तथापि हम जानते हैं कि प्रकाशन में बड़ी धनराशि व्यय होती है और पाठक उसको अपनाते भी नहीं हैं। यदि अप्राप्य ग्रन्थों को ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ एवं ‘श्रीघूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ ट्रस्ट, हिण्डोनसिटी’ के सहयोग से प्रकाशित करने का प्रयास किया जाये तो इससे लाला दीपचन्द जी और इन ग्रन्थों के सम्पादको के तप व कार्यों से आर्यजगत् के पाठक लाभान्वित होंगे, ऐसा हम अनुभव करते हैं। हमारी भावना यह है कि यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय में किए वेदमंत्रों के ऋषि के व्याख्यानों का अधिक से अधिक प्रचार हो। निवेदक-मनमोहनकुमार आर्य।

ईशावास्योपनिषद भाष्य आरम्भ करते हैं:

ऋषि दयानन्द ने यजुर्वेद के प्रत्येक अध्याय के भाष्य के आरम्भ में यजुर्वेद के अध्याय 30 के मंत्र 3 को उद्धृत किया है। वह मंत्र यहां भी दे रहे हैं।

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रं तन्नऽआसुव।।

प्रथम मन्त्र के ऋषि दीर्घतमाः। देवता आत्मा=परमात्मा। अनुष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वर।।

मनुष्य परमात्मा को जानकर क्या करें, यह उपदेश किया है।।

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।1।।

भाषार्थ--हे मनुष्य ! तू (यत्) जो (इदम्) प्रकृति से लेकर पृथिवी पर्यन्त (सर्वम्) सब (जगत्याम्) चलायमान सृष्टि में (जगत्) जड़ चेतन जगत् है, वह (ईशा) ईश्वर अर्थात् सकल ऐश्वर्य से सम्पन्न, सर्व-शक्तिमान् परमात्मा के द्वारा (वास्य) आच्छादित अर्थात् सब ओर से अभिव्याप्त किया हुआ है। (तेन) इसलिए (त्यक्तेन) त्यागपूर्वक अर्थात् जगत् से चित्त को हटा के (भुन्न्जीथाः) भोगों का उपभोग कर। (किं च) और (कस्यस्वित्) यह धन किसका है अर्थात् किसी का नहीं, अतः किसी के भी (धनम्) धन अर्थात् वस्तुमात्र की (मा) मत (गृधः) अभिलाषा कर।।40/1।।

भावार्थ-जो मनुष्य ईश्वर से डरते हैं कि यह हमको सब काल में सब ओर से देखता है, यह जगत् ईश्वर से व्याप्त अर्थात् सब स्थानों में ईश्वर विद्यमान है। इस प्रकार उस व्यापक अन्तर्यामी को जानकर कभी भी अन्याय-आचरण से किसी का कुछ भी द्रव्य ग्रहण करना नहीं चाहते, वे इस त्याग से धार्मिक होकर इस लोक में अभ्युदय और परलोक में निःश्रेयस रूप फलों को भोग कर सदा आनन्द में रहते हैं। ।।40/1।।

भाष्यसार-मनुष्य परमात्मा को जानकर क्या करे?-इस चलायमान सृष्टि में प्रकृति से लेकर पृथिवी पर्यन्त जो जड़-चेतन जगत् है, वह सब सकल ऐश्वर्य से सम्पन्न, सर्वशक्तिमान् परमात्मा से आच्छादित अर्थात् सब ओर से व्याप्त है। ईश्वर सर्वत्र है। वह सर्वव्यापक औश्र अन्तर्यामी है। वह सर्वदा सब ओर से मनुष्यों को देख रहा है। ऐसा निश्चित जानकर परमात्मा से डरते रहें। त्यागपूर्वक पदार्थों का उपभोग करें। धार्मिक होकर इस लोक में अभ्युदय फल और परलोक में निःश्रेयस फल को प्राप्त करके सदा आनन्द में रहें। यह धन किस का है? अर्थात् किसी का नहीं। यह सब धन परमात्मा का है। उसी ने कर्मानुसार सब को दिया है। अतः कभी भी अन्याय से किसी के द्रव्य को ग्रहण करने की इच्छा न करें।

अन्यत्र व्याख्यात-हे मनुष्य ! तू जो कुछ इस संसार में जगत् है, उस सब में व्याप्त होकर नियन्ता है, वह ईश्वर कहाता है। उससे डरकर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। अन्याय के त्याग और न्यायाचरण रूप धर्म से अपने आत्मा से आनन्द भोग। (सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास) ।।40/1।।

मनमोहन कुमार आर्य
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देहरादून-248001
फोनः09412985121

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