सम्भावनायें चाहता है आदमी

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Published on : 06 Jul, 17 13:07

सम्भावनायें
चाहता है आदमी
भर लेना
दूधिया चान्दनी
शीतल हवायें
अपनी बाहों में
भूलाना चाहता है
नश्तरों की चुभन
जो
दी है/उसे अपने-अपनों ने
प्रभावित नहीं करती
अब
झूठी प्रशतियाँ
भयग्रस्त है
धरती से निकलते
लावे को देख
जो
तबदील हो जायेगा
इक दिन
सख्त चिट्टानों में
और फिर दिखाई नहीं देगा
जीवनदायी बीज
खेत-खलियानों में।
पर-क्या होगा
माहौल के प्रति
विरोध प्रगट कर
होता ही रहा है ?
शोषण-मुफलिस का
सामन्ती सोच में।
फिर भी
लडना तो होगा/समय के
अन्धियारों से
ताकि
जीवित रहे वेद-ऋचायें
पीढियों में
और
ढोना न पडे अन्तर मन में
अपराध-बोध
ख्वाबों के खण्डहरों का।
जिन्दा रहने के लिए
जरूरी है
जिन्दा रहे असंख्य
सपने।
ताकि नकार कर
कुहासे धुएं
ढूंढ सके
उलझे सवालों का
सिरा
मन समंदर की
उत्तल तरगों में
धवल सवेरे की
ज्यति में
भविष्य की आलोकित सम्भावनायें। ?
तुम्हारे जाने से
तुमे खो कर
लगता है जैसे
सूख गया है
रक्त
धमनियों का
खो गया
निर्भय रूप
उदासी के पतझड में
यू तो वक्त
मुठ्ठी से/रेत की तरह
फिसल जाता है
मगर
दर्द भरा ख्याल
बन कर रह जाता है
प्यार का मंजर।
याद आता है समय
जो/गुजरा था
कभी साथ-साथ
अब उठती है
दर्द की तरंगें
उताल करती बेहाल
वक्त की आँधी में
रहते नहीं महफूज
सारगर्भित पल
एकान्त दण्ड
करता/खंड-खंड
कुछ दिये जो रह गये
ताख पर धरे
उन्हीं की रेाशनी में
न जाने कितने
रतजग किये
ओस की बूंद से सपने
गहन ताप में
बिखरे
जीना पडा नदी के
दो पाट की तरह। ?
सवेरा
गगन के विस्तार से
जब
झांकता निश्छल
सवेरा
तलाशता मन
उदीयमान सम्भावनायें
धरती की सौंघी
महक
झंझोडती सुप्त आत्मा के
अन्तहीन सन्नाटे
फगुवा की अंगडाई
करती
भाव-अभाव की
भरपाई
सांसों के सैलाब में
रहती नहीं
फिर
आतुरताई।
शीतल पवन
धवल मुक्ता से
ओस कण
शुक्रतारे का देते
निमन्त्रण
भोर/लालिमा को
रवि किरणें/देती
निमन्त्रण
करती पुलकित मन।
मचलने-लगते
अल्लड सपने
अन्तर मन का
प्यास पनघट।
बहती पुरवा
करती हर्षितमन
आग में तपा
कच्चा घट
बुझाता जन-मन की
थकन। ?

साभार :


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