“नई पुस्तक ‘स्वामी नारायण-सम्प्रदाय और मूर्तिपूजा”

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Published on : 26 May, 17 10:05

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

उपर्युक्त पुस्तक कल हमें डाक से प्राप्त हुई है। यह पुस्तक हमें आर्य विद्वान और ऋषि भक्त श्रद्धेय श्री भावेश मेरजा जी ने प्रेषित की है। यह पुस्तक गुटका आकार में है। पुस्तक के लेखक आर्यजगत के वरिष्ठ विद्वान ऋषि भक्त डा. भवानीलाल भारतीय, श्रीगंगानगर निवासी हैं। सारा आर्यजगत डा. भवानीलाल भारतीय जी के व्यक्तित्व व कृतित्व से परिचित है। इस पुस्तक का प्रकाशन आर्य साहित्य के प्रमुख प्रकाशक ‘श्री घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डौन सिटी-राजस्थान’ ने किया है। 64 पृष्ठों वाली इस पुस्तक का मूल्य मात्र 10.00 रूपये है। प्रकाशक द्वारा यह पुस्तक 400 रूपये सैकड़ा की मूल्य दर से भी उपलब्ध कराई जा रही है। पुस्तक के अन्त में आर्यसमाज के दस नियम भी दिये गये हैं।

पुस्तक का परिचय व महत्ता के विषय में ‘भूमिका’ में प्रकाश डाला गया है। भूमिका लेखक का नाम पुस्तक में नहीं दिया गया है। हमें लगता है कि यह भूमिका आर्य विद्वान श्री भावेश मेरजा जी द्वारा लिखित हो सकती है और इस पुस्तक के प्रकाशन का श्रेय भी उन्हीं को प्रतीत होता है। पुस्तक व भूमिका दोनों महत्वपूर्ण हैं। हम यहां पाठकों की जानकारी के लिए पूरी भूमिका प्रस्तुत कर रहे हैं।

भूमिका में लिखा है कि ‘आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती जी (1825-1883 ई0) ने समस्त मानव जाति के ऐक्य एवं सर्वविध कल्याण के लिए ऋग्वेदादि चार मन्त्र संहिताओं को ईश्वर प्रणीत घोषित कर उन्हीं की शिक्षाओं के अनुसार अपने ‘सत्यार्थप्रकाश’ आदि ग्रन्थों की रचना की है। स्वामी जी मानव ऐक्य के पुरोधा थे। सत्य ओर न्याय के आधार पर मानव ऐक्य के स्वप्न को साकार करने के लिए वे आजीवन पुरुषार्थ करते रहे और इसी कार्य को करते हए उन्होंने अपना बलिदान दिया। स्वामी जी ने वेद और ऋषि-मुनियों द्वारा प्रणीत वेदानुकूल ग्रन्थों की सार्वभौम उदात्त शिक्षाओं के वैश्विक प्रचार-प्रसार के लिए आर्यसमाज की स्थापना की।

स्वामी जी की दृष्टि में विभिन्न मत-पन्थ-सम्प्रदायों के कारण सत्य सनातन वेद धर्म की महती हानि हई है। अतः स्वामी जी ने धर्म या अध्यात्म के नाम पर खड़े किए गए व्यक्ति केन्द्रित मत-पन्थ-सम्प्रदायों की वेद-विरुद्ध मान्यताओं तथा क्रियाकलापों का खण्डन कर इन मत-पन्थ-सम्प्रदायों को समूल नष्ट करने का अभियान चलाया। इसी अभियान के अन्तर्गत उन्होंने ‘शिक्षापत्री ध्वान्त निवारण’ (अथवा ‘स्वामी नारायण मत खण्डन’) नामक एक लघु ग्रन्थ लिखा जिसमें गुजरात में पैदा हुए स्वामी नारायण सम्प्रदाय की मूल पुस्तक ‘शिक्षा-पत्री’ की प्रमाण-पुरस्सर समालोचना की गई है। स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश के 11वें समुल्लास में भी स्वामी सहजानन्द (1781-1830 ई0) द्वारा चलाए गए इस सम्प्रदाय की समीक्षा की है।

आज यह स्वामी नारायण सम्प्रदाय केवल गुजरात में सीमित नहीं रहा है। देश के कई अन्य प्रान्तों, महानगरों में तथा विश्व के अनेक देशों में इस सम्प्रदाय के मन्दिर बन गए हैं। दिल्ली का प्रसिद्ध अक्षरधाम भी इसी सम्प्रदाय का एक प्रमुख केन्द्र है।

इसी सम्प्रदाय के एक विद्वान् ने ‘सनातन धर्म अभिगम’ नामक अपनी एक गुजराती पुस्तक में मूर्तिपूजा का समर्थन करने का प्रयास किया है। आर्यसमाज के लब्धप्रतिष्ठित विद्वान् लेखक प्रो0 (डा0) भवानीलाल जी भारतीय ने ‘सनातन धर्म अभिगम’ के मूर्तिपूजा प्रकरण की तार्किक समालोचना ‘स्वामी नारायण मत और मूर्तिपूजा’ लेख के रूप में लिखी है, जिसका प्रकाशन ‘आर्यजगत्’ साप्ताहिक के दो अंकों (दि0 16-22 तथा 23-29 अक्टूबर 2016) में किया गया है। पाठकों का ज्ञानवर्धन हो सके इस प्रयोजन से डा0 भारतीय जी के इस लेख को इस पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया जाता है।

इसी के साथ-साथ डा0 भारतीय जी प्रणीत ‘भारतवर्षीय मत मतान्तर समीक्षा’ नामक ग्रन्थ का ‘स्वामी नारायण मत खण्डन’ विषयक प्रकारण तथा स्वामी दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के 11वें समुल्लास में प्रस्तुत स्वामी नारायण की समीक्षा विषयक प्रकरण का भी इस पुस्तिका में समावेश किया गया है।

आशा है कि इस पुस्तिका के तटस्थ अध्ययन से पाठकों को स्वामी नारायण मत विषयक यथार्थ जानकारी प्राप्त होगी।’ (भूमिका यहां पर समाप्त होती है।)

हमें यह पुस्तक कल 24 मई 2017 को डाक में मिली। कल ही हमने इसे आद्योपान्त पढ़ा। पुस्तक अपने विषय पर प्रमाणित पुस्तक है। यह वेद और आर्यसमाज की मान्यताओें के अनुरूप है। इससे नारायण स्वामी मत द्वारा प्रचारित मूर्तिपूजा विषयक समस्त भ्रान्तियों का निराकरण व समाधान हो जाता है। स्वामी नारायण मत के अनुयायी साधु श्री हरिदास द्वारा अपनी पुस्तक़ ‘सनातन धर्म अभिगम’ में मूर्तिपूजा को लेकर जिन भ्रमों का प्रसारण व प्रचार किया गया है, उसका सप्रमाण खण्डन डा. भारतीय जी की इस पुस्तक की सामग्री व उनके लेख हुआ है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही सत्य को मानना, मनवाना व प्रचार करना तथा असत्य को छोड़ना, छुड़वाना व निष्पक्ष भाव से समाज हित में खण्डन करना आदि है। यह पुस्तक अपने उद्देश्य में पूर्ण सफल रही है। इसके प्रकाशन के लिए हम इसके प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव आर्य जी को साधुवाद देते हैं। इसके सम्पादक महोदय जी को भी उनके प्रशंसनीय सत्प्रयास के लिए हम धन्यवाद करते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
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