संकीर्ण मानसिकता छोड़ संवारो अपना कल

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Published on : 19 May, 17 08:05

अब आप कहेंगे कि बापू बाज़ार की चाट वाली गली के नुक्कड़ पर रहने वाले मुकेश की संकीर्ण मानसिकता से समाज व राष्ट्र का भला क्या लेना देना । यही तो बात है, लेना देना है ।

(ऋतु सोढ़ीइंसान कितना भी पढ़ लिख जाए यदि उसकी मानसिकता संकीर्ण है तो किसी भी रुप में समाज ,परिवार व राष्ट्र का भला नहीं हो सकता ।
अब आप कहेंगे कि बापू बाज़ार की चाट वाली गली के नुक्कड़ पर रहने वाले मुकेश की संकीर्ण मानसिकता से समाज व राष्ट्र का भला क्या लेना देना ।
यही तो बात है, लेना देना है ।
परिवार के किसी भी इंसान की मानसिकता का प्रभाव समाज पर अवश्य पड़ता है। परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई है। मुकेश की छोटी सोच की वजह से उसकी पत्नी सविता हर वक्त दुखी रहती है । पुरुषत्व मुकेश पर हर वक़्त हावी रहता है ना सिर्फ सविता बल्कि उसकी बेटी नेहा और बेटे गोपाल पर भी इसका असर पड़ रहा है। पत्नी पर जरा सी बात में हाथ उठा देना गाली देना बच्चों को मारना मुकेश के लिए आम बात है। उसका मानना है कि औरतें मार खाकर ही मानती हैं। उसके दादा व पिता ने भी गृहस्थी की कमान अपने हाथों में रखी तभी तो आज उसका वंश चल रहा है। उसके जैसे हजारों लाखों पुरुष बस पुरुष होने के नाते दिन-रात महिलाओं का अपमान करते हैं। तभी इतने संसाधन एवं विकास होने के बावजूद निर्भया कांड हो जाते हैं। दोष सड़ी गली मानसिकता का है । मुकेश को देखकर सामने की गली वाले दिनेश, रमेश और मुरली सभी ऐसा ही करते हैं । यहां दोष पढ़ाई लिखाई का नहीं है। दोष है परवरिश का । औरतें स्वयं को कभी अकलमंद मानती ही नहीं । परिवार का हर महत्वपूर्ण निर्णय पुरुष लेता है। बेटा पैदा करते ही औरतों को लगता है कि उनका नसीब संवर गया। यही भेदभाव आगे चलकर समाज में गहरी खाई बना रहा है । यदि पुरुष और स्त्री दोनों को ही समान भाव से पाला जाए तो समस्या का हल संभव है पुरुष संतान पैदा कर सकता है परंतु पैदा करने में पालने वाली स्त्री का दर्जा दोयम ही रहता है। कभी सुना है कि बेटी के पैदा होने पर ढोल नगाड़े बजे हों। इक्का-दुक्का घर छोड़ भी दो तो बेटी पैदा होते ही मनहूसियत फैल जाती है। जितना खर्च दहेज जुटाने में किया जाता है यदि उतना ही पढ़ाने-लिखाने पर किया जाए तो समस्या जड़ से खत्म हो सकती है। दहेज देने की नौबत ही नहीं आएगी जब हर इंसान पढ़ा लिखा होगा। स्त्री कर्तव्यों के साथ अधिकारों के प्रति भी जागरुक हो तो समस्या ही पैदा नहीं होगी।
बेटा पैदा होते सीना गर्व से ना फुलाएं बल्कि उसे अच्छा इंसान बनाएं। बिना स्त्री के एक पुरुष कभी बाप नहीं बन सकता। स्त्रियां भी पढ़ी लिखी होंगी तो बेकार के शक नहीं करेंगी। परिवार संभालने का अर्थ महज़ चूल्हा चौका और बर्तन मांजना नहीं है। संस्कार देने का अर्थ सवेरे भजन लगा लेना , व्रत व पूजा पाठ नहीं है। शाकाहारी हो जाने मात्र से विचार सात्विक नहीं होते हैं। मंत्र पढ़ लेने से मन में छुपी गंदगी साफ नहीं होती है यदि समाज व राष्ट्र को बदलना है तो पहले स्त्री व पुरुष को अपनी अपनी सोच बदलनी होगी। शादी का अर्थ सिर्फ बच्चे पैदा कर वंश चलाने तक का नहीं है। बच्चों को सही गलत का अर्थ समझाएं। खुलकर जीने का अर्थ यह नहीं है कि बच्चे बड़ों का आदर सम्मान ना करें । मुकेश जैसे पुरुष स्त्रियों का सम्मान करना सीखें। स्त्रियां भी आत्मनिर्भर बनें। बेटियों के साथ बेटों को भी टोकना सीखें।
परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र बनता है। संकीर्ण सोच राष्ट्र को बीमार कर रही है।
अंतरराष्ट्रीय जगत में निर्भया जैसे कांडों ने अपने देश की छवि खराब की है ।अरब देशों व पाकिस्तान जैसे मुल्क में स्त्री की स्थिति खराब होना फिर भी समझ आता है
भारत जैसे देश में जहां स्त्री की पूजा होती है स्त्रियों से संबंधित अपराधों का बढ़ना सच में चिंताजनक है। कारण कई हो सकते हैं पर सबसे महत्वपूर्ण कारण है असहिष्णुता का बढ़ना। संकीर्ण सोच औरत की तरक्की सहन नहीं कर पाती। उसका बोलना , चलना, देर रात तक बाहर रहना पुरुषों के लिए असहनीय है । महीने में हजार रुपए के लिए हाथ फैलाने वाली स्त्री आज लाखों कमा रही है।
विधवा होते हुए भी कई औरतें कमाकर अकेले गृहस्थी का भार उठा रही हैं वह उन औरतों से लाख गुना ऊपर हैं जो सवेरे सवेरे विधवा का मुंह देख कर दिन भर गालियां देती हैं। दो घंटे में काम खत्म कर हर औरत व लड़की की बखिया शान से उधेड़ती हैं। संकीर्ण सोच सिर्फ पुरुषों की नहीं बल्कि बल्कि औरतों की भी है जिनका काम सिर्फ मीन मेख निकालना है। कामकाजी महिलाओं के प्रति उनकी सोच संकीर्णता से भरी है । ऐसी औरतें जब बेटियां ब्याहती हैं तो उनके दामाद घर जमाई बन बेटियों के आगे पीछे डोला करते हैं परंतु जब ऐसे घरों में बहू आती है तो उनका बेटा जोरू का गुलाम बन जाता है। दिनभर ताने मारना, बहुओं को पानी पी पीकर कोसना संकीर्ण मानसिकता नहीं तो और क्या है । दिन भर कमर तोड़ कर कमा कर आने वाले पति पर शक करना संकीर्णता ही तो है।
सोच बदलो, संकीर्णता छोड़ो। समाज और राष्ट्र अपने आप बदल जाएंगे। बेटा हो या बेटी दोनों का पालन पोषण समानता से करो। हर पुरुष स्त्री से नफरत न कर उसे अपने बराबर मान दे और हर स्त्री पुरुष के साथ कंधा मिलाकर चले और परिवार को सही राह दिखाए। पश्चिम देशों की तरह हमारे यहां भी स्त्री खुलकर सांस ले सके ऐसा वातावरण क्यों नहीं बन सकता? बात बात में स्त्री की इज्जत रौंदने का साहस कोई पुरुष नहीं कर सकेगा यदि उसकी मां ने उसे संकीर्ण सोच से परे हटकर पाला हो।
तो आज से ही कसम लीजिए कि संकीर्णता छोड़ देंगे। परिवार, समाज और राष्ट्र की नींव आपकी सही सोच ही तय करती है।
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