‘वेद स्वतः प्रमाण धर्म ग्रन्थ और अन्य सभी ग्रन्थ वेदानुकूल होने पर ही परतः प्रमाण’

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Published on : 20 Apr, 17 11:04

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य का जन्म वाद-विवाद के लिए नहीं अपितु सत्य व असत्य का निर्णय कर सत्य का ग्रहण व उसका पालन करने क लिए हुआ है। सत्य का निर्णय करने का साधन व कसौटी क्या है? इसका उत्तर धर्म व सत्य की जिज्ञासा होने पर ईश्वरीय ज्ञान चार वेद की मन्त्र संहिताओं के सत्यार्थ ही परम प्रमाण हैं। संसार के अन्य सभी मत, पन्थ व इतर विषयों के ग्रन्थ तभी प्रमाण माने जा सकते हैं यदि वह पूर्णतः वेदों के अनुकूल हों तथा प्रतिकूल विचार व मान्यताओं के न हो। इन विचारों को पढ़कर वेद के महत्व से अपरिचित व्यक्ति यह प्रश्न करेगा कि वेदों में ऐसी कौन सी विशेषता है जिसके कारण वेदों को परम प्रमाण होने का गौरव प्राप्त है? इसका विवेक पूर्ण उत्तर ऋषि दयानन्द ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में व अन्यत्र भी दिया है जो सर्वथा उचित एवं माननीय है। इसका संक्षिप्त उत्तर है कि वेद पौरुषेय नहीं अपतिु अपौरुषेय वा ईश्वरकृत ज्ञान है। इसके लिए हमें सृष्टि के आरम्भ में जाकर देखना है कि संसार में ज्ञान की उत्पत्ति कैसे हुई? हम जानते हैं कि सृष्टि में एक नियम कार्य कर रहा है, वह यह कि जिसकी उत्पत्ति होती है उसका अन्त भी अवश्य होता है। हमारी यह सृष्टि जिसमें सूर्य, चन्द्र व पृथिवी एवं इसके सभी पदार्थ नित्य व सनातन नहीं हैं अपितु सुदीर्घ पूर्व काल में बने व रचे गये हैं। इनका रचयिता कोई सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, निराकार, सत्य-चित्त-आनन्दस्वरूप, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी व अमर सत्ता अर्थात् परमात्मा है। चेतन पदार्थ व सत्ता का मुख्य गुण व स्वभाव ज्ञान व कर्म होता है। ज्ञान की संवेदना से विहीन सत्ता जड़ कहलाती है और ज्ञान ग्रहण करने व उसका प्रचार करने वाली सत्ता ही चेतन सत्ता होती है। यह सृष्टि किसी जड़ सत्ता के द्वारा बिना चेतन सत्ता के ज्ञान व सामथ्र्य के बनना असम्भव है। उदाहरण है कि मिट्टी से घड़ा स्वमेव नहीं बनता अपितु कुम्हार के द्वारा बनता है। यदि कुम्हार न हो तो घड़ा तीन काल भूत, वर्तमान व भविष्य में कभी नहीं बन सकता। कुम्हार एक सत्य-चित्त गुणों व स्वभाव से युक्त सत्ता है जिसमें ज्ञान व कर्म करने की शक्ति है और वही मिट्टी से घड़े को बनाता है। इसी प्रकार से संसार के सभी पौरुषेय अर्थात् मनुष्कृत पदार्थ बने हैं। यह सृष्टि मनुष्यकृत न होकर अपौरुषेय अर्थात् किसी महान चेतन सत्ता जिसे ईश्वर कहते हैं, उसके द्वारा बनी सिद्ध होती है। यह सृष्टि बनी है इसी कारण इसकी प्रलय अर्थात् मृत्यु भी होती है और मृत्यु के बाद पुनः इसकी रचना ईश्वर से होती है। संसार में तीन पदार्थ नित्य व अनादि हैं जिनके नाम हैं ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर व जीव चेतन पदार्थ हैं और प्रकृति जड़ है। ईश्वर सर्वव्यापक है, जीव एकदेशी है तथा मूल प्रकृति सूक्ष्म कणों सत्व, रज व तमों गुणों वाली है जो कारण अवस्था में इस ब्रह्माण्ड व आकाश में सर्वत्र फैली हुई विद्यमान रहती है जैसा कि गैस के मामले में होता है। इस प्रकृति से ही ईश्वर सृष्टि के आदि काल में इसकी रचना स्वसामथ्र्य अपने अनन्त नित्य ज्ञान, बल वा शक्ति से कर्ता है। सृष्टि की रचना जीवात्माओं को उनके पूर्व जन्मों व कल्पों में मनुष्य शरीरों में रहकर किये गये भले व बुरे कर्मों का सुख व दुःख रूपी भोग कराने के लिए ईश्वर करता है। सृष्टि की रचना पूर्ण हो जाने पर ईश्वर मनुष्य व अन्य प्राणियों की अमैथुनी सृष्टि करता है। इन सब प्राणियों को अपने जीवन को सुचारू रूप से व्यतीत करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। यह ज्ञान उन आदि काल में उत्पन्न मुनष्यों को जड़ प्रकृति वा सृष्टि से नहीं मिल सकता। इसकी दाता सृष्टि के आरम्भ काल में केवल एक ही सत्ता होती है जो कि ईश्वर है और उसी से वेद रूपी ज्ञान मनुष्यों के अग्रणीय चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को मिलता है। उन ऋषियों से वेद के पठन पाठन की परम्परा आरम्भ होती है जो ब्रह्मा से आरम्भ होकर आज तक चली आई है।



वेद ही स्वतः प्रमाण क्यों है? इसका उत्तर है कि वेद एकदेशी अल्पज्ञानी मनुष्यों का ज्ञान न होकर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान सत्ता ईश्वर का अपना, निज का नित्य ज्ञान है। मनुष्य इस ज्ञान की सहायता से व इसे पढ़कर ही ज्ञानी बनते हैं। यदि यह ज्ञान न दिया जाता तो संसार में कोई भी मनुष्य ज्ञानी नहीं हो सकता था। सृष्टि की आदि में मनुष्यों की उत्पत्ति होने पर उन्हें पहली वस्तु ज्ञान चाहिये। ज्ञान न होने पर वह अपना कोई भी निजी काम नहीं कर सकते और न दूसरों से किसी प्रकार का व्यवहार कर व करा सकते हैं। न किसी की सहायता कर सकते हैं और न सहायता ले सकते हैं। बिना भाषा व ज्ञान के वह आपस में बातचीत व स्वयं में चिन्तन मनन अर्थात् सोच विचार भी नहीं कर सकते। ईश्वर से ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद उन मनुष्यों की सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि ज्ञान भाषा में निहित होता है। यदि भाषा न हो तो ज्ञान हो ही नहीं सकता। अतः पहले भाषा व ज्ञान, यह दोनों कार्य एक साथ होने आवश्यक हैं। ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को एक-एक वेद का ज्ञान दिया था। ज्ञान भाषा में ही दिया जा सकता है अतः वेदों की भाषा भी साथ साथ उन ऋषियों को दी गई थी। चार ऋषियों ने ब्रह्माजी व अन्य सभी मनुष्यों को पढ़ाया। आरम्भिक ईश्वरीय सृष्टि होने के कारण उन्होंने सभी बातों को अल्प समय में ही सीख लिया था इसका अनुमान होता है। वर्तमान जीवन में हम सब यह भी जानते हैं कि जब किसी निर्माता कम्पनी के किसी नए उत्पाद की लांचिंग की जाती है तो उसकी गुणवत्ता व मूल्य पर विशेष ध्यान दिया जाता है। गुणवत्ता अधिक व मूल्य कम रखा जाता है। अन्य कई रियायतें भी दी जाती हैं जिससे की उनका उत्पाद लोगों में शीध्रातिशीध्र लोकप्रिय हो जाये। ईश्वर ने भी आरम्भिक ईश्वरीय सृष्टि में लोगों के शरीर व बुद्धि उत्तम बनाये थे जिनमें ज्ञान को ग्रहण कर उसे स्मरण रखने की क्षमता आज के मानवों से कहीं अधिक थी, ऐसा अनुमान होता है। किसी भी उत्पाद के विषय में जिस प्रकार उस कम्पनी का अधिकारिक कार्यप्रणाली विषयक पुस्तक वा मैनुअल अधिक लाभप्रद होता है उसी प्रकार से इस सृष्टि को रचने वाले ईश्वर का वेद ही एकमात्र ज्ञान है जो उसने मनुष्य को मार्गदर्शन एवं सत्य व असत्य का विवेक करने के लिए दिया है। अन्य ज्ञान व विचार उसी की देन व नकल हैं। ज्ञान का आधार व बीज वेद है। अतः वेद ही धर्म ग्रन्थ व वेद ही ज्ञान की दृष्टि से सर्वाधिक प्रमाणिक ग्रन्थ हैं। अन्य मत-मतान्तर व इतर ग्रन्थों में जो ज्ञान है वह भी सृष्टि में परम्परा व प्रवाह सहित वेद ज्ञान युक्त लोगों के चिन्तन व वेदों की सुप्त प्रसुप्त चिन्तनधारा व परवर्ती लोगों के मौन रखकर विषय का ध्यान कर उसमें खा जाने वा एकाकार हो जाने पर ही आया है। उसमें विद्यायुक्त बातें तो सभी वेदों की हैं और अज्ञानता की बातें उन्हें बताने व लेखबद्ध करने वालों की अल्पज्ञता व स्वार्थ बुद्धि के कारण हो सकती हैं। ऋषि दयानन्द भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे थे और यह बाद उचित भी लगती है।



ऋषि दयानन्द, उनके बाद आर्यसमाज के विद्वानों व हम जो बातें करते हैं वह वेदों पर आधारित होने से ही महत्वपूर्ण हैं। यदि हमें वेद उपलब्ध होने सहित उनके सत्यार्थ उपलब्ध न होते तो हम ईश्वर व जीवात्मा आदि के विषय में ऐसी प्रमाणिक बातें न कह पाते। वेदेतर ग्रन्थ स्मृति, दर्शन, उपनिषद आदि में भी जो बातें कहीं गईं हैं वह भी ऋषियों ने वेदाध्ययन कर योगनिष्ठ होकर लिखी हैं। अब विचार कीजिए कि महाभारतकाल के बाद समयान्तर पर वेदों के विलुप्त व उनके यथार्थ अर्थ का ज्ञान न होने के कारण संसार में अंधकार फैला। ऐसी अवस्था में ही सभी मत-मतान्तर उत्पन्न हुए। वेद से सर्वथा दूर अर्थात् वेदों के ज्ञान से रहित इन मतों के आचार्यों ने अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार ही अपने मत चलाये व धर्मग्रन्थ व अन्य ग्रन्थों की रचना की जिसमें अविद्या व अज्ञान की अनेक बातें पाईं जाती हैं। आश्चर्य है कि किसी भी मत का कोई व्यक्ति अपने ग्रन्थों की मान्यताओं की सत्यता की पुष्टि पर कभी विचार नहीं करता और अपने मृतक आचार्यों के एक-एक शब्द को प्रामाणिक मानकर विवाद करते हैं, भले ही उनके अनुयायियों को उनसे कितना भी दुःख व कठिनाई क्यों न होती हो। इस प्रकार की कमियां ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों में इस कारण नहीं हैं कि वह वेद व्याकरण पढ़कर व साथ हि सच्चे व सिद्ध योगी बनकर वेदों के सत्य व यथार्थ अर्थों को जानने में समर्थ हुए थे। इस कारण उनके ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि आदि में जो कथन व बातें हैं वह सब वेदानुकूल होने के कारण सत्य व प्रमाणिक हैं। इसी कारण अन्य मतों में वैदिक धर्म के सत्य सिद्धान्तों के कारण खलबली मची है। इससे उनके बुरे मंसूबे धराशायी हुए हैं। यह ऐसा युग है जिसमें सबको धर्म विषय में स्वेच्छाचार की अनुमति है। मुगलों व अंग्रेजों के भारत में आने के बाद उन्होंने धर्म की गुणवत्ता नहीं अपितु अपने स्वेच्छाचार से इस देश के आर्य हिन्दुओं, निर्धनों व असहायों का भय व प्रलोभन आदि नाना अमानवीय तरीकों से धर्मान्तण किया परन्तु आज भी इसे कहीं बुरा नहीं कहा जाता। इससे ज्ञात होता है कि आज भी हमारा समाज सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिए उद्यत नहीं है। वर्तमान स्थिति देखकर तो ऐसा लगता है कि आगे भी ऐसा ही चलेगा और ऐसा भी हो सकता है पूर्ण सत्य पर आधारित वैदिक धर्म कभी आसुरी शक्तियों का शिकार न बन जाये जैसा कि आजकल आतंकवाद के कारण होने की संभावना है।



हमने वेद के स्वतः प्रमाण होने के विषय में विचार किया है जिसका प्रमाण स्वयं वेद है। सूर्य का प्रमाण जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश आदि गुणों से होता है उसी प्रकार वेद का ईश्वरीय ज्ञान होने का प्रमाण वेदों की अन्तःसाक्षी व ज्ञान से होता है। ऋषि दयानन्द का ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं वेदभाष्य वेद ज्ञान के ईश्वरकृत होने का प्रमाण है। हम सभी पाठकों से आग्रह करेंगे कि वह सत्य व असत्य के विवेक के लिए ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित वेदभाष्य का अध्ययन अवश्य करें। इसी से उन्हें सत्य ज्ञान की प्राप्ति होगी। मिथ्या मतों का भी ज्ञान होगा। ज्ञान से ही जीवात्मा की दुःखों से मुक्ति होती है। वेदाध्ययन व योग रीति से ईश्वर की उपासना उन्हें ईश्वर व मुक्ति प्रदान करा सकती है। अन्य कोई मार्ग नहीं है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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