सत्यार्थप्रकाश में वाघेर लोगों की वीरता की प्रशंसा

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Published on : 18 Feb, 17 09:02

यदि सन् 1857 में श्री कृष्ण के सदृश कोई होता तो वह अंग्रेजों के धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते।”

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून। इसका उत्तर देते हुए महर्षि कहते हैं सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में ऋषि दयानन्द जी ने एक प्रश्न प्रस्तुत किया है। (प्रश्न) द्वारिका जी के रणछोड़ जी जिस ने ‘नर्सीमहिता’ के पास हुण्डी भेज दी और उस का ऋण चुका दिया इत्यादि बात भी क्या झूठ है? (उत्तर) किसी साहूकार ने रुपये दे दिये होंगे। किसी ने झूठा नाम उड़ा दिया होगा कि श्री कृष्ण ने भेजे। जब संवत् 1916 (सन् 1857) के वर्ष में तोपों के मारे मन्दिर मूर्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थी तब मूर्ति (वा उसकी ईश्वरीय शक्ति) कहां गई थीं? प्रत्युत बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की और लड़े, शत्रुओं को मारा परन्तु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्री कृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके (अंग्रेजों के) धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिस का रक्षक मार खाय उस के शरणागत क्यों न पीटे जायें?

सत्यार्थप्रकाश में इस विवरण को पढ़कर हमारे मन में विचार आता है कि महर्षि दयानन्द तक यह समाचार व तथ्य कैसे पहुंचे होंगे। यह तीन प्रकार से सम्भव हो सकते हैं। प्रथम समाचार पत्र या पुस्तक पढ़कर, द्वितीय किसी प्रामाणिक अनुभवी प्रत्यक्षदर्शी से सुनकर और तृतीय स्वामी दयानन्द स्वयं इन घटनाओं के प्रत्यदर्शी रहे हों। समाचार व पुस्तक पढकर इस लिए सम्भव नहीं है कि उन दिनों आजकल की तरह समाचार पत्र व पत्रिकायें आदि प्रकाशित नहीं होते थे। यह तो ऐसा समाचार था जिसे कोई प्रकाशित कर भी नहीं सकता था। यदि करने का साहस करता तो उसे जब्त कर लिया जाता और उसके प्राणों के लाले पड़ जाते। किसी पुस्तक में लिखा गया हो, इसकी सम्भावना भी नहीं है। यदि देश विदेश में गुप्त रूप से कहीं लिखा भी गया हो तो वह स्वामी दयानन्द जी तक कैसे पहुंचा होगा और एक गुजराती व संस्कृत जानने वाले को उसका ज्ञान होना सम्भव नही लगता। दूसरी सम्भावना यह है कि यह घटना उन्हें किसी से सुन कर विदित हुई हो। हमें इसकी सम्भावना भी नहीं लगती। जहां युद्ध हो रहा हो, वहां ऐसा कौन व्यक्ति रहा हो जो इसका प्रत्यक्ष दर्शी रहा हो और उसने आकर स्वामी दयानंद जी को यह बात बताई हो। यदि इसे स्वीकार भी कर लिया जाये तो इससे इन घटनाओं के प्रति स्वामी दयानन्द जी की रूचि का होना सिद्ध होता है। बताने वाला व्यक्ति उसको वही बातें बताता है जिसे कि सुनने वाला पसन्द करता हो। अतः बताने वाले को इस बात का पता होना चाहिये कि जिससे वह बातें कर रहा है उसकी पसन्द व नापसन्द क्या क्या हैं? यदि किसी ने स्वामी दयानन्द जी को यह तथ्य बतायें स्वीकार करें तो यह मानना होगा कि वह व्यक्ति अवश्य जानता रहा होगा कि स्वामी जी की इन घटनाओं में गहरी रूचि है। इससे भी स्वामी जी की उन घटनाओं में किसी किसी न रूप में संलिप्तता प्रतीत होती है।

तीसरी घटना स्वामी दयानन्द जी के प्रत्यक्ष दर्शन व अनुभव पर आधारित हो सकती है। इसका अनुमान ही किया जा सकता है परन्तु प्रमाण के अभाव में इस पर अधिक कुछ कहा नहीं जा सकता। हमने पहले भी वरिष्ठ विद्वानों से सुना व पढ़ा है और आज भी हमारे एक अनुभवी मित्र विद्वान चर्चा कर रहे थे कि कई बार कुछ ऐसी घटनायें यथार्थ में घटती हैं जिनकी की हम न तो कल्पना कर सकते हैं और न ही अनुमान। क्या यहां भी ऐसा हुआ होगा? हम आर्य विद्वानों से यह अपेक्षा करते हैं कि वह इसकी उपेक्षा न कर अपने अनुमान कि ऋषि द्वारा वर्णित इस घटना का वास्तविक आधार क्या हो सकता है, हमें अपने कमेन्ट के रूप में अवश्य सूचित करें। हम उनके आभारी होंगे।

हम जब ग्यारहवां समुल्लास पढ़ते हैं और उसमें पौराणिक मन्दिरों में होने वाली घटनाओं का वर्णन पढ़ते हैं तो वह हमें उनके प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित ही प्रतीत होती हैं। स्वामी जी ने गुवाहटी में कामाख्या मन्दिर का भी सजीव चित्रण किया है। यदि स्वामी जी वहां गये ही नहीं तो फिर किसी पुस्तक को पढ़कर कर बिना उसका परीक्षण किये कोई विद्वान उसे कैसे सत्य स्वीकार कर सकता है। और जब वह स्थान व वस्तु किसी धार्मिक पर्यटन प्रिय व्यक्ति वा विद्वान् को देखने व परीक्षण के लिए उपलब्ध हो तो क्या वह उसे देखना नहीं चाहेगा व देखेगा नहीं? क्या यह स्वामी जी के लिए असम्भव था? यह भी हो सकता है कि स्वामी जी ज्ञान प्राप्ती व पोप लीला का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने के लिए कामाख्या आदि स्थानों पर गये हों और उन्होंने वहां जाकर इनका प्रत्यक्ष सचक्षु दर्शन किया हो? इस विषय में भी विद्वानों से मार्गदर्शन की अपेक्षा करते हैं।

अन्त में हम यह भी निवेदन करना चाहते हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि स्वामी दयानन्द जी कि श्री कृष्ण व बाघेर लोगों की प्रशंसा में लिखित उपर्युक्त पंक्तियां ही उनकी मृत्यु का कारण बनी हों। पं. लेखराम जी और श्री आदित्य मुनि जी का मानना तो यही है। उनके अनुसार सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्करण में इस घटना का उल्लेख नहीं था। द्वितीय संस्करण के पृष्ठ-320 पर जब इस घटना का विवरण 27 अगस्त 1883 तक मुद्रित होकर ऋषि दयानन्द के पास जोधपुर में पहुंचा तो 320 पृष्ठ की अधूरी छपी पुस्तक की एक प्रति उनसे 5 रुपये मूल्य देकर खरीद ली गई जबकि बाद में सम्पूर्ण पुस्तक का मूल्य ढाई रु. ही (डाक व्यय सहित) रक्खा गया। इसके कुछ दिनों के अन्दर ही उन्हें विष देकर अंग्रेजों द्वारा षड़यन्तत्रपूर्वक मरवा डाला गया। (द्रष्टव्य-महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन-चरित्र पं. लेखराम कृत पृ. 385) यह भी बता दें कि महर्षि दयानन्द जी को जोधुपर में विष 29 सितम्बर, 1883 की रात्रि को दिया गया था। ऋषि दयानन्द के पास अप्रकाशित व अधूरे सत्यार्थ प्रकाश पहुंचने और उन्हें दिये गये विष के बीच 33 दिनों का अन्तर है। पुस्तक का क्रेता कौन था, यह किसी को पता नहीं। उसने अधूरी पुस्तक दुगुने दाम पर क्यों खरीदी, यह भी अस्पष्ट है। ऐसे अनेक प्रश्न और भी हो सकते हैं जो कि अनुत्तरित हैं।

एक ओर तो अंग्रेज शासक वीर सावरकर की पुस्तक ‘‘सन् 1857 का प्रथम स्वातन्य संग्राम” को प्रकाशित होने से पहले ही बैन व जब्त करने की घोषणा करते हैं वहीं दूसरी ओर सन् 1884 में प्रकाशित सत्यार्थप्रकाश में इन व ऐसे अन्य प्रकरणों की उपेक्षा करते हैं, तो इससे क्या अनुमान किया जा सकता है?

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