‘ऋक्सूक्ति रत्नाकर वैदिक साहित्य का एक प्रमुख महनीय ग्रन्थ’

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Published on : 17 Feb, 17 15:02

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। यह वाक्य सभी ऋषि भक्तों व आर्यसमाज के सदस्यों के जिह्वाग्र पर विद्यमान रहता है। हम यदि चारों वेदों का अध्ययन करें तो इसके लिए कई महीनों का समय लग सकता है। इसका दूसरा सरल उपाय है कि हम किसी वेदज्ञ विद्वान् के वेदों पर प्रमुख मंत्रों का भाष्य पढ़ लें तो यह भी सम्पूर्ण रूप में न सही, किन्तु उस वेद का कुछ अंश हमें विदित हो सकता है। इससे भी सरल उपाय है कि किसी योग्य विद्वान का प्रत्येक वेद पर सरल, सुबोघ और प्रभावशाली सूक्ति संग्रह हमें प्राप्त हो जाये तो वेदों की भावनाओं को हम सरलता से आत्मसात् कर सकते हैं। सम्भवतः इसी दृष्टि से आर्यसमाज में अनेक विद्वानों ने वेदों व अन्य ग्रन्थों के सूक्ति संग्रहों का प्रकाशन किया है जिससे पाठक लाभान्वित होते हैं। पाठक को इन सूक्तियों के स्वाध्याय से तो लाभ होता ही है इसके अतिरिक्त भी इन प्रमुख सूक्तियों को स्मरण कर वार्तालाप व उपदेश आदि में भी इनका उपयोग कर इससे अपनी बात को प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है। ऐसे अनेक लाभ वेदों के सूक्ति संग्रहों के होते हैं।

आर्य साहित्य में सभी वेदों पर सूक्ति संग्रह उपलब्ध हैं। उसी श्रृंखला में ‘‘ऋक्सूक्ति रत्नाकर” नाम से डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी का नवीनतम् सूक्ति संग्रह प्रकाशित हुआ है। इस सूक्ति संग्रह के प्रकाशक हैं आर्य साहित्य के प्रमुख प्रकाशक यशस्वी श्री प्रभाकरदेव आर्य व उनकी प्रकाशन संस्था ‘‘श्री घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी-322230’’। पुस्तक में ऋग्वेद की तीन हजार से अधिक सूक्तियां विभिन्न शीर्षकों से दी गई हैं। यह पुस्तक अक्तूबर, 2016 में प्रकाशित की गई है। 262 पृष्ठीय इस पुस्तक का मूल्य रू. 120.00 है जिसकी छपाई व कागज उत्तम है एवं मुद्रण नयनाभिराम एवं सुरुचिपूर्ण है। हम इस महनीय पुस्तक के प्रकाशन के लिए इसके संकलयिता डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी व प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव आर्य जी को बधाई देते हैं। हमने इस पुस्तक का पुरोवाक् एवं इसकी अनेक सूक्तियों को देखा है। इसका पारायण कर रहें हैं जो शीघ्र ही पूर्ण हो जायेगा। हमें लगता है कि प्रत्येक स्वाध्यायशील ऋषिभक्त को इसे प्राप्त कर इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिये। यही लेखक व प्रकाशक के पुरुषार्थ का वास्तविक उद्देश्य होता है। ऐसा करके मनुष्य की आत्मा व बुद्धि को भोजन प्राप्त होने से दोनों शारीरिक प्रमुख अवयव स्वस्थ एवं ज्ञानादि गुणों से सम्पन्न व समृद्ध होते हैं।

पुस्तक के आरम्भ में पुरोवाक् में सूक्तियों का महत्व बताते हुए ग्रन्थकार डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी लिखते हैं कि ये लघु, अतिलघु सूक्तियां मानवमात्र के जिह्वाग्र पर बनी रहती हैं, जिनका प्रयोग वक्ता एवं लेखक प्रसंगानुसार सामान्य वाणी व्यवहार से लेकर उच्च स्तरीय लेखों, व्याख्यानों, प्रवचनों, उपदेशों आदि में करते रहते हैं। यही कारण है कि इन सूक्तियों के छोटे-बड़े अनेक संकलन प्रकाशित किये गये हैं। ‘सुभाषित भण्डागार’ संस्कृत साहित्य का एक बृहत् प्रसिद्ध सुभाषित ग्रन्थ है। संस्कृत साहित्य में रामायण, महाभारत आदि महाकाव्यों तथा कालिदास आदि कवियों की काव्य-कृतियों से रोचक एवं शिक्षाप्रद सूक्तियों का संकलन कर उन्हें ग्रन्थ रूप में प्रकाशित करवाया गया है।

लेखक महोदय आगे महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए बतातें हैं कि इसी श्रृंखला में वैदिक साहित्य में भी भिन्न-भिन्न विद्वानों द्वारा चारों वेदों से ऐसी सूक्तियां संकलित कर सूक्ति-संग्रह के रूप में प्रकाशित की गई हैं, जो अत्यन्त रोचक, शिक्षाप्रद, नित्य प्रति के व्यवहार में आने वाली हैं। वेदज्ञ श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने अपने वेदभाष्यों के प्रारम्भ में प्रत्येक वेद की सूक्तियों का अर्थ सहित संकलन किया है। पद्मश्री डा. कपिलदेव द्विवेदी ने भी चारों वेदों के सुभाषित अलग-अलग पुस्तक के रूप में संकलित एवं प्रकाशित करवाये हैं। मेरे पूज्य पिता आचार्य रामनाथ जी वेदालंकार ने अथर्ववेद की 1000 सूक्यिों का अर्थ सहित संग्रह किया था, जो ‘वैदिक सूक्तियां’ नाम से गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्वालय द्वारा प्रकाशित किया गया था। उनका विचार था कि यदि पाठकों ने रुचि दिखाई तो भविष्य में अन्य वेदों की सूक्तियां का संकलन किया जा सकता है। पाठकों में ‘‘वैदिक सूक्तियां” लोकप्रिय हुई और श्री घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डौन सिटी द्वारा इसके दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। पर इतर महत्वपूर्ण कृतियों के प्रणयन में व्यस्त हो जाने के कारण वे अन्य वेदों की सूक्तियों के संकलन के विचार को कार्यान्वित नहीं कर सके।

किसी भी पुस्तक के विषय-क्रम का अपना महत्व होता है जिससे पुस्तक में क्या क्या लिखा व कहा गया है, विदित होता है। इस पुस्तक में कुल नौ अध्याय हैं। पहला अध्याय ‘प्रभु-चरणों में’, दूसरा ‘वेदोक्त विभिन्न नाम वाले ईश्वर का महिमा-गान’, तीसरा ‘मानवोचित गुणों की पुकार’, चतुर्थ अध्याय ‘गृहस्थ-जीवन के धर्म’, पांचवा ‘उन्नति के पथ पर’, छठा ‘शरीर की रक्षा’, सातवां ‘त्रैतवाद’, आठवा ‘माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ तथा नौवां अध्याय ‘विविधा’ है। इन सभी अध्यायों में अनेक उपशीर्षकों से मंत्रों की सूक्तियां दी गई है। पहले अध्याय का एक उपाशीर्षक है ‘ईश्वर के उद्गार’। इसमें दी गईं 22 सूक्तियों में से हम प्रथम पांच सूक्तियां प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे पाठक इसका आनन्द ले सकें। ‘अहं कविरुशना पश्यता मा’ (4/26/1) अर्थात् मैं कवि हूं, स्नेही हूं मेरा दर्शन करो। दूसरी सूक्ति ‘अहं भूमिमददामायीय’ (4/26/2) है जिसका अर्थ है ‘मैंने ही आर्य को भूमि प्रदान की है।’ तीसरी सूक्ति ‘अहं वृष्टिं दाशुषे मत्यीय’ (4/26/2) है जिसका अर्थ है ‘मैं दानी मनुष्य के ऊपर सुख की वर्षा करता हूं।’ चैथी सूक्ति है ‘मम देवासो अनु केतमायन्’ (4/26/2) जिसका अर्थ है ‘देव पुरुष मेरे ही निर्देश के अनुसार चलते हैं।’ पांचवी सूक्ति ‘नेन्द्रो अस्तीति नेम उ त्व आह’ (8/100/3) का अर्थ है ‘कई कहते हैं कि ईश्वर है ही नहीं।’ ऐसी ही 3 हजार से अधिक सूक्तियां पढ़कर पाठक ऋग्वेद से काफी कुछ परिचित हो सकते हैं।

किसी भी पुस्तक की गुणवत्ता उसके लेखक के ज्ञान व परिश्रम पर निर्भर करती है। इस ग्रन्थ के लेखक प्रसिद्ध आर्य विद्वान डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी माता श्रीमती प्रकाशवती जी और पिता वैदिक विद्वान एवं सामवेदभाष्यकार डा. रामनाथ वेदालंकार जी के सुपुत्र हैं। आपका जन्म 4 जून सन् 1942 को उत्तर प्रदेश राज्य के बरेली जनपद के फरीदपुर में हुआ था। आप शिक्षा के क्षेत्र में विद्यालंकार, एम0ए0, पी-एच0डी0 (संस्कृत) हैं। आपने गोविन्द बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय पंतनगर के प्रकाशन निदेशालय में सह-सम्पादक, सम्पादक, सह-निदेशक तथा प्रबन्धक के रूप में लगाभग 33 वर्षों तक कार्य किया है। आपको अनुवाद, लेखन, सम्पादन आदि का विस्तृत ज्ञान व अनुभव है। आपने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। हमारी दृष्टि में सभी ग्रन्थ महत्वपूर्ण हैं परन्तु स्वामी श्रद्धानन्द: एक विलक्षण व्यक्तित्व, शतपथ के पथिक स्वामी समर्पणानन्द: एक बहुआयामी व्यक्तित्व (दो खण्ड), श्रुति-मन्थन, यजुः सूक्ति-रत्नाकर, अथर्ववेदीय चिकित्सा शास्त्र (स्वामी ब्रह्ममुनि कृत) आदि आपकी आर्यसमाज में बहुचर्चित एवं पढ़ी जाने वाली कृतियां हैं। अनेक आर्य व इतर संस्थाओं की स्मारिकाओं का सम्पादन भी आपने समय-समय पर किया है। अनेक संस्थाओं ने लेखन, सम्पादन एवं विद्वता के लिए आपका अभिनन्दन कर सम्मानित भी किया है। यह सूची बहुत विस्तृत है जिसे स्थानाभाव से हम यहां दे नहीं पा रहे हैं। सम्प्रति आप आर्य वानप्रस्थाश्रम, ज्वालापुर, हरिद्वार में निवास करते हैं एवं आर्य ग्रन्थों के लेखन व सम्पादन के कार्य में संलग्न हैं।

डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार अहर्निश वैदिक साहित्य के लेखन व सम्पादन के प्रति समर्पित एक ऋषि भक्त एवं उच्च कोटि के वैदिक विद्वान हैं। हमें आशा है कि आपसे अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ आर्यसमाज के विज्ञ पाठकों को प्राप्त होंगे। हम आपके स्वस्थ जीवन एवं दीर्घायु की कामना करते हैं। हम पाठकों से यह भी आशा करते हैं कि लेखक की कृति ऋक्सूक्ति रत्नाकर को पढ़कर पाठक उनका उत्साहवर्धन करेंगे। साथ ही पाठक वेद का पढ़ना-पढ़ाना रूपी परम धर्म का पालन कर पुण्य के भागी भी होंगे। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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देहरादून-248001
फोनः09412985121

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