गुरू और शिष्य का संबंध यज्ञ व आहुति जैसा हो-आचार्य द्विवेदी,

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Published on : 26 Jun, 16 08:06

गुरू और शिष्य का संबंध यज्ञ व आहुति जैसा हो-आचार्य द्विवेदी, आचार्य डॉ. इच्छाराम द्विवेदी ने कहा कि गुरू और शिष्य का संबंध यज्ञ और आहुति की तरह होना चाहिए तभी गुरू और शिष्य परम्परा क निर्वहन संभव है। आचार्य द्विवेदी शनिवार को कल्याण महाकुंभ के उपलक्ष्य में व्यासपीठ से कार्तिकेय कथा का मर्म बखान कर रहे थे।
उन्होनें कहा कि शिष्य की मुक्ति से ही गुरू को भी वेकुंठ मिल सकता है इसी भाव से शिष्य को ज्ञानार्जन करना चाहिए। उन्होनें कहा कि भगवान महेश के वृहद पुत्र कार्तिकेय की महिमा से ब्रम्हाड कल्याण के लिए निश्रित स्कंद पुराण हमें पारलोकिक सुखों की अनुभूती कराता है। भगवान शिव ने गणेश को कार्तिकेय से ज्ञानार्जन का उपदेश देकर उन्हें देवगिरी पर जाने का आदेश देते हुए कहा कि शास्त्र परम्परा अनुसार जीवन में जप तप सेवा पुरूषार्थ करते समय अंश मात्र भी अहंकार नहीं आना चाहिए। इसी संदर्भ में डॉ. द्विवेदी ने रावण द्वारा शिव स्तुति का उल्लेख करते हुए कहा कि रावण ने स्वरचित स्त्रोत शिव को एक बार सुनाकर स्वयं को धन्य किया लेकिन वहीं स्त्रोत दूसरी बार बाणासुर द्वारा सुनाया गया।
उन्होनें कहा कि स्वामी कार्तिकेय ने भी गणेश को रावण स्तुति का रहस्य बताते हुए ज्ञानार्जन का उपदेश दिया। कार्तिकेय से ज्ञानार्जन करने के सुझाव पर गणेश ने भगवान महेश से कहा कि वे ११ माह तपस्या के बाद केवल एक माह के लिए बाहर आते है ऐसे में सम्पूर्ण ज्ञान केसे संभव होगा, तब शिव ने कहा कि गुरू की एक पल की कृपा से ही शिष्य सम्पूर्ण ज्ञानी बन सकता है। यह सुनकर गणेश देवगिरी पहुंचे और लगातार ११ माह तक परिक्रमा करने के बाद जब द्वार खुलने का समय आया तो वे वहीं ज्येठ भ्राता कार्तिकेय की प्रतिक्षा करने लगे और उन्होनें उसी समय शिव स्तुति जब प्रारंभ की तो कार्तिकेय प्रफुल्लित हो गए और उन्हें शिव दरबार की स्मृतियां हो आई। आखिर कार्तिकेय और गणेश का भ्रातृ मिलन हुआ तब कार्तिकेय ने गणपति को नगजानन व गजानन कहते हुए गले लगा कर एकाकार हो गए। तब दोनो भाई कहने लगे की वे प्रतिपल एक दूसरे को याद करते है। इसी क्रम में आचार्य ने गणपति स्तुति के रूप में ओम गम गणपतये नमों नमरू सुनाकर सम्पूर्ण वातावरण को गणपतिमय बना दिया। तब गणेश जी ने अनुनय आग्रह करते हुए कहा कि अब वे उनके अग्रज नहीं बल्कि गुरू और स्वामी है तभी से कार्तिकेय के नाम के साथ स्वामी जुड गया।
आचार्य द्विवेदी ने शेषावतार को ब्रम्हांड का ज्ञानी निरूपित करते हुए कहा कि भगवान विष्णु से शेष ने ज्ञानार्जन के साथ ही भगवान शिव के सानिध्य में शास्त्र एवं वेदों का ज्ञान प्राप्त किया, इसीलिए वे वेदमूर्ति कहलाए। उन्होनें कहा कि शेषावतार के सहस्त्र मुख है और वे श्वेतवर्णीय है। उन्होनें कहा कि भगवान शेष ने गरूण को पिंगल विद्या देकर भुजंग प्रियांक की स्तुति सुनाते हुए ज्ञान दिया। प्रारंभ में आचार्य द्विवेदी ने ठाकुर श्री कल्लाजी की पूजा अर्चना की तथा वेदपीठ की और से वेदज्ञ डॉ. विजयशंकर शुक्ला एवं अन्य न्यासियों ने व्यासपीठ की पूजा कर आचार्य द्विवेदी का आत्मिक स्वागत अभिनन्दन किया।



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