मूलनिवासी और विदेशी की अवधारणा की प्रासंगिकता या जरूरत ही नहीं

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Published on : 06 May, 16 20:05

सामाजिक न्याय की लड़ाई में मूलनिवासी और विदेशी की अवधारणा की प्रासंगिकता या जरूरत ही नहीं है!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'मैंने 20 साल 9 माह 5 दिन भारत सरकार के अधीन मजदूरी की है। स्वेच्छिक सेवानिवृति के बाद अब पेंशन ले रहा हूँ। इस दौरान अनेक तरह के छोटे-बड़े लोक सेवकों से वास्ता पड़ा। सरकारी क्षेत्र में मनुवादी आतंक और संघ का असली घिनौना चेहरा भी देखा। जमकर सामना किया। अजा, अजजा, मुसलमानों, ओबीसी और स्त्रियों के साथ खुलकर अन्याय, विभेद, शोषण और अत्याचार होते हुए देखा। प्रशासन पर काबिज मनुवादियों और मनुवादियों के चमचे दलित-आदिवासियों का आतंक और भ्रष्टाचार भी देखा। सेवारत रहते हुए ही सामाजिक न्याय के मसीहा कांशीराम जी के आंदोलन से प्रभावित होकर पे बैक टू सोसायटी की अवधारणा पर भी काम किया। लेकिन आज तक देशभर में कहीं भी देशी, विदेशी के नाम पर विभेद या अत्याचार होते हुए नहीं देखा, न सूना। अजा/अजजा अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 3 में सभी तरह के अन्याय और अत्याचार वर्णित हैं, लेकिन देशी-विदेशी का अत्याचार इसमें भी नहीं है। भारतीय दण्ड संहिता में भी कभी पढ़ने को नहीं मिला। दर्जनों राज्यों की यात्राओं और सभाओं तथा लोगों से संपर्क के दौरान अनेक बार मैंने यह सवाल पूछा कि क्या कभी भारतीय मूल के वाशिंदे होने के कारण किसी के साथ किसी प्रकार की अप्रिय स्थिति या अत्याचार की घटना घटी? लेकिन अत्याचार का एक भी उदाहरण मेरी जानकारी में नहीं आया।

इस पृष्ठभूमि में यह सवाल बार-बार कौंधता रहता है कि- सामाजिक। न्याय की प्राप्ति के लिए "मूलनिवासी एकता, जयमूलनिवासी" जैसे आत्मघाती नारों और विचारधारा की क्यों जरूरत पड़ी और इस प्रायोजित सोच को आगे बढ़ाने वाले लोगों का वास्तव में मकसद क्या है? विशेषकर तब जबकि यह ऐतिहासिक सत्य है कि वर्तमान भारत में तकरीबन 90 फीसदी विदेशी मूल के लोगों के वंशज निवास करते हैं। लेकिन मूलवंश या नस्ल के आधार पर कोई विभेद नहीं होता। ऐसे में क्यों देशी और विदेशी का मनगढ़न्थ राग अलापा जा रहा है। हकीकत में भारत में जन्म के आधार पर विभेद होता है, न कि मूल देश के वंश के आधार पर, बेशक जन्मने वाले व्यक्ति का मूलवंश कुछ भी क्यों न हो? गुजरात और मध्य प्रदेश में ऐसे अनेकों उदाहरण देखे जा सकते हैं, जिनमें बामणों और बनियों की वैध तरीके से उत्पन्न औलादें दलित-आदिवासियों के परिवारों की बेटियों के साये में पल रही हैं। जिन्हें उनके पिताओं द्वारा अपनाने से इनकार करने के कारण उनके साथ जन्म/परिवार के आधार पर विभेद जारी है। यह विषय सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुँच चुका है। जिसमें जन्म और पालन पोषण को ही मूलाधार माना गया है। ऐसे में कूटरचित मूलनिवासी शब्द की षड्यंत्रपूर्ण राजनैतिक मार्केटिंग सामाजिक न्याय के आंदोलन को भटकाने और भारत के असली मूलवासी आदिनिवासियों के ऐतिहासिक अस्तित्व के साथ जानबूझकर खिलवाड़ करके वंचित वर्ग को बांटने का काम कर रही है। जिस पर वंचित most वर्ग को गम्भीरता पूर्वक विचार करने की जरूरत है। क्योंकि सामाजिक न्याय की लड़ाई में मनगढ़ंत मूलनिवासी और विदेशी की अवधारणा की प्रासंगिकता या जरूरत ही नहीं है!

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