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निराश होती दिख रही है उत्तर प्रदेश में भाजपा

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26 Mar 15
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उम्मीद के विपरीत मोदी सरकार का दस माह का रिपोर्ट कार्ड सही नहीं रहा है। खासकर कृषि और किसानों की समस्याओं को लेकर सरकार कसौटी पर खरी नहीं उतर पाई है, जबकि मनामोहन सरकार से त्रस्त किसानों ने आम चुनाव में दिल खोलकर मोदी का साथ दिया था। किसानों की माली हालत आज भी जस की तस है। आर्थिक तंगी और प्रकृति की मार से किसानों को होने वाले नुकसान से बचाने केन्द्र या फिर राज्य सरकार के पास कोई नीति नहीं होने के कारण भारत की रीढ़ की हड्डी (किसान) कमजोर होती जा रही है। 1990 के दशक से किसानों की आत्महत्याओें के मामले सुर्खियां बटोर रहे हैं। प्राकृतिक उतार−चढ़ाव के कारण तो किसान मरता ही है, इसके अलावा लालफीताशाही, समय पर बीज, खाद, सिंचाई के लिये पानी नहीं मिल पाने के कारण भी उसे नुकसान उठाना पड़ता है। आंकड़े बताते हैं कि 1995 से लेकर अब तक करीब तीन लाख किसान परेशान होकर आत्महत्या कर चुके हैं।

मोदी ने आम चुनाव के प्रचार के समय बाजार और किसानों के बीच किसानों की मेहनत का बढ़ा हिस्सा हजम कर जाने वाले बिचौलियों, साहूकारों को लेकर काफी हमलावर रूख अपनाया था, लेकिन किसान आज भी बिचौलियों और साहूकारों के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाया है। एक तरफ तंगहाली और भुखमरी से किसान जूझ रहा है तो दूसरी तरफ किसानों के नाम पर नेतागिरी हो रही है। पीएम मोदी लगातार और किसानों से आकाशवाणी पर 'मन की बात' में कहते हैं कि विपक्ष किसानों को बरगला रहा है, वहीं विपक्ष मोदी सरकार पर किसानों के हितों से खिलवाड़ करने का आरोप लगा रहा है। इस खेल में वो कांग्रेस सबसे आगे है जिसने करीब आधी सदी तक मुल्क पर हुकूमत की है। राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि यह पता ही नहीं चल पा रहा है कि किसको किसानों की चिंता है और कौन घडि़याली आंसू बहा रहा है। नेता तो नेता किसानों के नुमांइदे भी सच्चाई सामने नहीं ला रहे हैं। किसान लगातार बदहाल होता जा रहा है वहीं किसान को नाम पर राजनीति करने वाले बलवान हो रहे हैं। शहीद दिवस के मौके पर पंजाब में एक कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बेमौसम बरसात के कारण बर्बाद हुई फसल का मुआवजा देने और किसानों को पांच हजार रूपया पेंशन देने की बात कहकर विपक्ष और समाज सेवी अन्ना हजारे की मुहिम को झटका दिया और किसानों को खुश करने की कोशिश जरूर की है लेकिन देखना है कि उनका यह वादा अमल में आ पाता है या नहीं।

आजादी के पहले तो किसान मर ही रहा था आजादी के बाद भी किसान की स्थिति में किसी तरह का सुधार आने के बजाय हालात खराब होते जा रहे हैं। हर आधे घंटे में भारत में एक किसान आत्महत्या करता है। असल आकंड़े इससे भी भयानक हैं, क्योंकि हिन्दुस्तान की हुकूमतों ने 'किसान' शब्द की व्याख्या ही सही नहीं की है। भारत सरकार की नजरों में किसान वही है जिसके नाम जमीन हो। वह स्त्रियों, दलितों, किराये पर जमीन ले कर खेती करने वालों और आदिवासी खेतीहरों को किसानों की श्रेणी में ही नहीं रखता है। इसलिये ऐसे लोगों की आत्महत्या के कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। सिर्फ सरकारी आंकड़ों पर ही ध्यान दिया जाये तो अकेले वर्ष 2009 में ही 17,638 किसानों ने आत्महत्या की। 2010 में एक किसान ने तो जान देने से पहले एक महंगे स्टैम्प पेपर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखा था कि उसकी आत्महत्या का कारण 2 साल से उनकी फसल का नाश और कर्ज उगाहने के लिये की गई प्राइवेट बैंकों की प्रताड़ना है। महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्याएं की घटनाएं सबसे अधिक होती हैं। वहीं उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में सूखे, भुखमरी और सूदखोरों के कारण किसान जान दे रहे हैं।
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