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ऋषि दयानन्द का संसार, देश व समाज पर ऋण

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20 Oct 17
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।आज हम जो कुछ भी जानते है उस ज्ञान को हम तक पहुंचानें में हमसे पूर्व के ऋषियों व विद्वानों का महत्वपूर्ण योगदान है। सृष्टि के आरम्भ से अध्ययन अध्यापन की परम्परा का आरम्भ हुआ जो आज पर्यन्त चला आ रहा है। माता-पिता अपने नवजात शिशु को संस्कार देने के साथ भाषा व आवश्यक बातों का ज्ञान कराते हैं ओर बड़ा होने पर विद्यालय या गुरुकुल में पढ़ने के लिए भेजते हैं। धीरे धीरे बालक ज्ञानार्जन करते हुए वह सब कुछ जान लेता जो वह जानना चाहता है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिनमें इस संसार को बनाने वाले, इसे चलाने वाली सत्ता तथा अपनी आत्मा, व्यक्तित्व व स्वरूप को जानने के साथ मनुष्य जीवन को जानने, समझने व उस लक्ष्य को प्राप्त करने के साधनों को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है जिसके लिए हमारा यह मनुष्य जन्म हुआ है। उस लक्ष्य को उसे पूरा करने के लिए बहुत कम मनुष्य प्रयत्न किया करते हैं। ऋषि दयानन्द अपने समय में ऐसे विरले मनुष्यों में से एक थे और उन्होंने उन प्रश्नों को जानने में रुचि व दृणता प्रदर्शित की जिन्हें आज के मनुष्य जानना ही नहीं चाहते। ऋषि दयानन्द का जीवन एक सच्चे जिज्ञासु व जिज्ञासा को दूर करने के लिए आजीवन संघर्ष करने व उससे प्राप्त ज्ञान को दूसरों को वितरित करने वाले एक संघर्षशील सफल व्यक्ति वा महापुरुष का जीवन है।

ऋषि दयानन्द एक सच्चे व सिद्ध योगी, वेद ज्ञानी ऋषि वा महर्षि थे। उन्होंने अपने अपूर्व संघर्षशील जीवन में सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को परमात्मा से प्राप्त चार वेदों के ज्ञान को प्राप्त कर उनसे सारे संसार के रहस्यों को जानने व जनाने का सफल प्रयास किया था। उनका संघर्ष चौदह वर्ष की आयु से आरम्भ हुआ था और सन् 1863 तक चला जब उन्होंने मथुरा में दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से वेद व वेदांगों का ज्ञान प्राप्त किया था। शिक्षा पूरी होने पर गुरुजी ने अपने योग्यतम शिष्य को संसार में फैले हुए अविद्यान्धकार से परिचित कराया था और उसे दूर कर मनुष्यों को सच्चा ज्ञान कराकर उन्हें कर्तव्य बोध कराने की प्रेरणा की थी। गुरु की इस आज्ञा व परामर्श को एक आदर्श शिष्य स्वामी दयानन्द ने स्वीकार किया था। गुरु से दीक्षा लेकर स्वामी दयानन्द संसार से अज्ञान मिटाने और सूर्य के समान ईश्वरीय ज्ञान का प्रकाश करने के लिए निकल पड़े थे। आरम्भ में उन्होंने प्रवचन, उपदेश व व्याख्यानों द्वारा एक नगर से दूसरे फिर तीसरे आदि में घूम कर मौखिक प्रचार किया। वह साथ साथ शंकालु व जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान भी करते थे। वह जहां जाते थे लोग उनके दर्शन करने और उनके विचार सुनने के लिए उमड़ते थे और बहुत से लोग उनकी मान्यताओं को स्वीकार कर उनके अनुगामी भी बन जाते थे। इसके विपरीत भिन्न भिन्न मतों के अनुयायी अपने मत की अविद्या व अन्धविश्वासपूर्ण बातों को ही मानने का आग्रह करते और उन पर विचार करने को भी तत्पर नहीं थे।

वैदिक विचारधारा का प्रचार करते हुए उन्होनें भिन्न भिन्न मतों की अविद्या सहित मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्येतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद, बाल विवाह, अनमेल विवाह आदि का तीव्र खण्डन किया और सुशिक्षा, गुण-कर्म-स्वभाव अनुसार वर्ण व्यवस्था, समान गुण, कर्म व स्वभाव के युवक व युवतियों का परस्पर सहमति से विवाह आदि का समर्थन किया था। उन्होंने सभी मतों के आचार्यों से अनेक विषयों पर प्रीतिपूर्वक शास्त्रार्थ भी किये जिसमें वेद धर्म की विजय हुई। वेद को उन्होंने ईश्वरीय ज्ञान घोषित किया और इसके लिए अनेक तर्क व प्रमाण दिये। वेद मन्त्रों की व्याख्यायें करने के साथ वेदों पर अनेक ग्रंथ लिखे और संस्कृत व हिन्दी में वेद भाष्य भी किया जो उनके समान उनके पूर्व उनकी योग्यता के किसी व्यक्ति द्वारा किया गया उपलब्ध नहीं था। स्वामी जी को सलाह दी गई कि आप अपनी मान्यताओं का एक ग्रन्थ लिख दें जिससे जो लोग उनके व्याख्यानों में किसी कारण से नहीं आ पाते, वह लोग भी लाभान्वित हो सकें। स्वामी जी ने इस परामर्श को स्वीकार कर लिया और कुछ ही महीनों, लगभग साढ़े तीन महीनों, में सत्यार्थ प्रकाश जैसा एक अपूर्व ग्रन्थ लिख दिया जो आर्य वा आर्यसमाजियों का धर्मग्रन्थ है। इसकी यह विशेषता है कि यह सभी मत पुस्तकों व धर्मग्रन्थों से विशेष वा महत्वपूर्ण हैं तथा इसकी सभी बातें ज्ञान व विज्ञान से पूर्ण व तर्क एवं युक्ति से सिद्ध हैं। इसमें व्यर्थ के मिथ्या व कल्पित कहानी किस्से नहीं है। वेद और मनुस्मृति आदि अनेक प्रमाणों से यह सुसज्जित है।

स्वामी दयानन्द जी की एक देन आर्यसमाज जैसा अपूर्व संगठन है जो वेदों को परम प्रमाण मानता है और बुद्धि, तर्क व युक्तियों से सत्य व असत्य का निर्णय करता है। सत्य को स्वीकार करता है और असत्य का त्याग करता है। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करता है। आर्यसमाज की स्थापना होने से देश व देशवासियों को अनेक लाभ हुए हैं। आज हम विश्व में भारत व इसके आध्यात्मिक ज्ञान की जो प्रतिष्ठा देख रहे हैं वह आर्यसमाज के कारण से ही है। पहले हमारे पौराणिक वा सनातनी मत की मान्यताओं पर विधर्मी आक्षेप करते थे परन्तु हमारे पास उनका उत्तर नहीं होता था। आज हम सभी आक्षेपों का उत्तर भी देते हैं और उनकी अविद्यायुक्त बातों पर आक्षेप करते हैं और वह उत्तर न होने के कारण मौन रहते हैं। यह वेद, ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की देन है। ऋषि दयानन्द के प्रचार और आर्यसमाज की स्थापना होने से देश को आजाद कराने के विचार मिले, आर्यसमाज ने अंग्रेजों के अत्याचार व अन्यायों का विरोध किया व देश की आजादी के लिए किये गये क्रान्तिकारी व अहिंसात्मक आन्दोलन में सबसे अधिक सहयोग किया। देश को स्वराज्य व सुराज्य के शब्द सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने ही दिये थे। उन्होंने कहा कि जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। विदेशी राज्य कितना ही अच्छा क्यों न हो वह स्वदेशीय राज्य से अच्छा कदापि नहीं हो सकता। इसी का परिणाम देश की आजादी रहा।

स्वामी जी ने देश मे ंव्याप्त सामाजिक असमानता पर भी अपना ध्यान केन्द्रित किया ओर जन्मना जाति व्यवस्था को अनुचित व अव्यवहारिक बताया। वह न्याय सहित गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित सामाजिक व्यवस्था जिसे वर्ण व्यवस्था कह सकते हैं, के पक्षधर थे। आर्यसमाज के लोगों ने समाज से जातीय भेदभाव दूर करने के लिए सबसे अधिक कार्य किया। स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा इस निमित्त किये गए कार्यों वा आन्दोलनों को भुलाया नहीं जा सकता। नारी जाति को शिक्षा व युवावस्था में अपने अनुरूप विवाह का अधिकार भी स्वामी दयानन्द जी ने दिया। नारियों सहित सभी शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार भी उन्होंने दिया जिसे पौराणिक आचार्य वेद विरुद्ध घोषित कर चुके थे। स्वामी दयानन्द गुरुकुलीय शिक्षा के समर्थक थे जहां वेदों के साथ साथ आधुनिक शिक्षा का भी प्रबन्ध हो। देश को तकनीकि ज्ञान सम्पन्न कराने के लिए भी उन्होंने सक्रिय प्रयास किये थे। आध्यात्म के क्षेत्र में भी उनका सबसे अधिक योगदान है। उन्होंने ईश्वर व जीवात्मा का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत किया और जीवात्मा का मुख्य उद्देश्य सांसारिक सभी अच्छे कार्यां को बताते हुए ईश्वर भक्ति वा उपासना को बताया जिससे जीवात्मा सभी दुर्गुणों से मुक्त होकर व सद्गुणों से पूर्ण होकर ईश्वर का साक्षात्कार कर सके। इसकी विधि वही है जो योगदर्शन में वर्णित है। स्वामी दरयानन्द जी स्वयं सिद्ध योगी थे। उन्होंने पर्यावरण की शुद्धि, स्वस्थ जीवन व्यतीत करने व दूसरों को स्वास्थ्य प्रदान करने के वैदिक तरीके अग्निहोत्र यज्ञ का वैज्ञानिक स्वरूप व उसकी सरल विधि से देश व समाज को परिचित कराया और उसे प्रातः व सायं दोनों कालों में करने के पूर्व विधान की पुष्टि कर लोगों को इसे करने को प्रेरित किया। देश की राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था कैसी हो, इसका रूप भी हमें उनके सत्यार्थप्रकाश एवं इतर ग्रन्थों में देखने को मिलता है। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका और वेदभाष्य तथा संस्कार विधि उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं। उनके अन्य अनेक ग्रन्थों में पंचमहायज्ञविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, गोकरूणानिधि, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थ हैं। अनेक लोगों ने उनके जीवनचरित लिखे हैं जो एक प्रकार से मनुष्यों के लिए आचारशास्त्र के समान हैं जिससे मनुष्य जीवन के रहस्य को समझ कर अपने कर्तव्य का चयन कर पारलौकिक उन्नति भी कर सकता है।

स्वामी दयानन्द जी का देश व समाज को जो योगदान है वह इतना व्यापक है कि इसको एक लेख में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। हमने कुछ बातों का संकेत किया है। आज दीपावली के दिन उनका बलिदान दिवस है। हमें उनके ऋण से उऋण होना है। इसके लिए हमें यथाशक्ति वेदों का प्रचार व प्रसार करने के साथ स्वयं के जीवन को उनके जीवन के समान वा वेदानुरूप बनाना है। इससे हमें ही लाभ होगा। हमारा यह जीवन भी सुधरेगा और परलोक में भी हम उन्नत व सुखी होंगे। इन्हीं पंक्तियों के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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