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अनिला राखेचा की चार कविताएं

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06 Jul 17
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दिल पर पहरा
रफ्तार की पहन पैरों में मुजरी, सर पर बाँध तनाव का सेहरा,
देखो आज लगा दिया लोगों ने, अपने ही दिल पर पहरा...
चेहरे पर विषाद रेखाएँ
नहीं तकते कहीं दाएं-बाएं
नाक सीध पर चलते जाए
घटती रहे चाहे जघन्य घटनाएँ
देख दिल कहीं पिघल न जाए
सो लगा दिया है लोगों ने देखो, अपने ही दिल पर है पहरा,
मासूमियत को बना लिया है देखो, मक्कारी ने अपना है मोहरा...
कानों में डाले बेदर्दी के फाहे,
चीख-चित्कार न इनमें जाए
करुणा खडी पुकार लगाए
विवेक शर्म-सार हो जाए
देख नैनों से कहीं नीरद न बह जाए
सो चढा लिया है लोगों ने देखो, आँखों पर काला चश्मा है गहरा,
संवेदनाओं को कर दिया है देखो, उपेक्षाओं की पीर है बहरा...
माना तू जा पहुँचा है राका
प्रकाश गति को तुमने नापा
मंगल में खींचे जीवन का खाका
पर निज मन में है कितना झाँका
देख कहीं दंभ दंडधारण न कर जाए
सो जमा दिया है लोगों ने देखो, दिलो-दिमाग पर जडता का कोहरा..
मानवता को डस रहा है देखो, भौतिकता का ये सर्प विष भरा...
रफ्तार की पहन पैरों में मुजरी, सर पर बाँध तनाव का सेहरा,
देखो आज लगा दिया लोगों ने, अपने ही दिल पर है पहरा...!! ?
अबूझ कविता
आज सिर्फ रुपये का ही मूल्य कम नहीं हुआ है,
कीमत घटी है हमारे नैतिक मूल्यों की, हमारे आदर्शों
की हमारे विचारों की... हमारे इस बदलते सामाजिक
परिवेश को देख कर मैं हैरान हूँ। अपने अंतरमन की इस हलचल को मैं शब्दों के साचे में ढाल कर आप के समक्ष अपनी बात रखना चाहती हूँ...
ना तो मैं कोई कुरान हूँ, ना ही मैं कोई गीता
तुम जिसे समझ न सके, हूँ मैं वो अबूझ कविता
शब्दों से शब्द झरे, झरे मन की पीर
सूखे-सूने नैनों से, रिसता हृदय का नीर...
किसकिस को सुनाऊँ, जाऊँ किस किस गाँव
बालू के दरिया में देखो, चलती काग*ा की नाव
बस जिस्म चीत्कार रहा, रूह बैठी खामोश
सबको पडी है आज की, कल का किसे है होश...
कुछ दिलवाले बैठे हैं किये बंद हृदय के किवार
थर-थर धरती काँपती कब खुलेंगे उनके द्वार...
आँधी भर के आँख में, रहे अंधाधुंध दौड
तूफानों की इस नगरी से वे जायेंगे किस ओर
नारों से नारे मिले, गूँजे गगन और ये जहान
कल तक जो सरमाया थे वही बना रहे शमशान...
राम हो या श्याम हो या हो रहीम रहमान
सबके पैरों धरती यही, है यही इक आसमान
अल्लाह हो चाहे ईश्वर हो है उनका घर तो एक
रहते वे हिल मिल कर, पर हम दंगे करते अनेक...
कितने तो हम खो चुके, कितने खो के बनेंगे महान...
अब भी जागिये, चेतिये कहीं हम हो जाए ना वीरान...!! ?

बात सतरंगी
इस रंग-बिरंगी दुनिया के, कुछ रंग आज तुम भी चुरा लो,
इन तनाव तंतुओं से बच, कुछ रंग जीवन में तुम भी सजा लो।
नीला-नीला अंबर है, है नीला-नीला सागर,
भर लो इसके रंगों से, तुम अपने चक्षु गागर
कुछ नीले-नीले ख्वाब तुम, अपने नैनों में भी घुला लो,
इस रंग-बिरंगी दुनिया के कुछ रंग आज तुम भी चुरा लो।
देखो, वो सूर्योदय का नारंगी सूर्य सुहाना,
आत्मविश्वास का मानो बुनता ताना-बाना
इन तानों-बानों से तुम, अपने दिल का अंबर सजा लो,
इस रंग-बिरंगी दुनिया के कुछ रंग आज तुम भी चुरा लो।
ये काले बदरा दिल में, अरमान लिए फिरते हैं,
बरसेगी खुशियाँ तुम पे, फरमान लिए फिरते हैं
इनके इन अरमानों से तुम, अपने सारे अरमान मिला लो,
इस रंग-बिरंगी दुनिया के कुछ रंग आज तुम भी चुरा लो।
वसुन्धरा भी लहरा रही, धानी रंग की चुनरिया,
उमंग और उत्साह से खिल रहा उसका मनुआ
हरियाली के इस हर्ष को तुम, अपनी हस्ती में बसा लो,
इस रंग-बिरंगी दुनिया के कुछ रंग आज तुम भी चुरा लो।
कितना निश्चल है ये श्वेत रंग, शांतिदूत बना ये हरदम,
इसमें है इन्द्रधनुषी छाया, फिर भी सादगी का नाम पाया
ऐसी अनोखी सादगी को तुम, अपने जीवन में
अपना लो,
इस रंग-बिरंगी दुनिया के कुछ रंग
आज तुम भी चुरा लो। ?
दरख्त-ए-*ांदगी
वो दरख्त कितना सूना है,
चाहे उसमें कलरव दिन दूना है...
वो शाख अभी तक खाली है, चाहे
उसमें कितने मंजर, फूल और डाली है...
ये जो पीले-हरे कुछ पत्ते हैं,
उनकी ख्वाहिशों के छत्ते हैं...
मत तोडो उनके अरमानों को
उनमें अब भी जीने के जज्बे हैं...
ये कैसी बदकिस्मत परछाई है,
दरख्त की होकर भी क्यूँ पाई इसने जुदाई है...
ये जो सुखे तिनके बिखरे हैं,
जाने किसकी ग*ाल के मिसरे हैं...
वो दरख्त कितना सूना है,
चाहे उसमें कलरव दिन दूना है... ?
फ्लैट २, ए-द्वितीय तल, १२४-ए मोतीलाल नेहरु रोड, भवानीपुर, कोलकाता-७०००२९ (प.बं.)

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