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चार कविताएं-गीता खटीक

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06 Jul 17
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जिंदगी
अजीब सी उलझनें हैं जिंदगी की,
रिश्ते भी धागे की तरह उलझते जाते हैं,
रिश्तों की डोरी हाथों से फिसलती जाती है,
अजीब कशमकश है जिंदगी की...
अपने भी पराए हो जाते हैं,
खून के रिश्ते भी झूठे हो जाते ह,
अपने ही अपनों के दुश्मन बन जाते हैं,
अजीब सी उलझने हैं जिंदगी की...
एहसासों का कोई मोल नहीं,
जज्बातों की कोई कदर नहीं,
अजीब सी उलझने हैं जिंदगी की...
नीरवता है छायी है जीवन में,
जहां कोई अपना नहीं,
कोई हमदर्द नहीं,
बस साँसें ही चलती जाती हैं,
समय गुजरता जाता है,
अजीब सी कशमकश है जिंदगी की...?
ख्वाब
ख्वाब क्या टूटे,
अपनों ने ही मुंह मोड लिया,
सारे रिश्ते बेगाने हो गए।
दिल पर लगे जख्मों को हम गिनने लगे।
खुद को अपने में समेटते रहे...
आईना दिखाई देने पर खुद से रूबरू न हो पाए।
सारा अस्तित्व धुंधला-सा दिखाई देने लगा।
रह गई खडी अकेली जिंदगी की राहों में,
जहां कभी किसी ने हाथ थाम,
साथ चलने का भरोसा जताया था।
वही राहें, वही सब,
बस नहीं है कोई जो कहे,
कि तुम साथ हो तो जिंदगी की सफर बडा सुहाना लगता है।
कि तुम साथ हो तो जिंदगी की डगर आसान है।
और यह कहें कि बस तुम आ जाओ
जिंदगी तुम बिन अधूरी-सी लगती है...
सांसें भी तुम बिन भारी-सी लगती है
जो यह कहे कि सफर कितना भी मुश्किल हो,
मैं हर घडी तुम्हारे साथ हूं।
जो मेरे लडखडाते कदमों को संभाल ले,
और मुझे गिरने से पहले उठा ले।
आ जाओ लौटकर तुम,
हर सांस तुम बिन भारी-सी लगती है।
नहीं उठाया जाता शरीर का बोझ अब,
तुम ही बताओ,
क्या संभव है? आत्मा बिन शरीर से जुडे रहना,
क्या संभव है? खुद के वजूद से अलग होना,
आ जाओ लौटकर तुम
जिंदगी तुम बिन अधूरी-सी लगती है...
जिंदगी तुम बिन अधूरी-सी लगती है...?
अहसास
बातों को वो समझ ना सके
बिकते रहे एहसास मेरे
हम कुछ कर न सके।
जिस हसीं ख्वाब की तमन्ना थी दिल को
ख्वाब वह आंखों के सामने टूटते रहे
हम कुछ कर ना सके
कुछ नहीं था बस में मेरे
तुम्हें जाते हुए हम रोक न सके
लाख कोशिश की इस दिल ने
पर तुम को समझा न सके
मेरी रूह को मुझ से दूर कर गए
जाने क्या जादू सा एहसास था उनमें
मुझको मुझी से दूर कर गए
बहुत मुश्किल लगता है
तुम बिन जिंदगी का यह सफर
हूं परेशान तुम्हें न पाकर
बस एक खामोशी चाहिए
जिसमें हो सुकून की नींद
वही तुम रहो, वही मैं रहूं
और वही ख्वाब मेरे हो ?
मेरी मां
है सबसे अनमोल मेरी मां,
है सबसे न्यारी मेरी मां।
जिक्र जब तुम्हारा आता है,
कलम भी मेरी रुक जाती है,
शब्द नहीं जुटा पाती है।
है ईश्वर की अनमोल कृति,
या फिर उसी का दूसरा रूप,
महिमा तुम्हारी समझ पाना,
है मेरी समझ से परे।
घर में ना पाकर तुम्हें,
एक मायूसी सी छा जाती है।
एक चेहरा देख तेरा,
सारे गम दूर हो जाते हैं।
हर मुश्किल को तुम,
यूं ही आसान बना देती हो,
थक जाती हूं जब कभी,
आकर गोद में तुम्हारी,
पाकर स्नेह, दुलार तुम्हारा,
सारे गम भूल जाती हूं,
जग सारा कहता तुम्हें माँ है
अगर मैं कहूं तो मेरी दुनिया हो तुम
अस्तित्व मेरा तुममें ही सिमट जाता
तुमसे ही मैं हूं, तुमसे ही जीवन है।
मेरी प्यारी माँ... ?
शोधार्थी, हिन्दी विभाग-मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय
उदयपुर (राज.) मो. ९८२८७४२६१६

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