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अजर-अमर हो गई कृष्ण भक्त मीरा बाई

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23 Apr 17
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अजर-अमर हो गई कृष्ण भक्त मीरा बाई विश्वकी महान कवित्र्यिों में कृष्ण भक्ति ७ााखा की कवियित्री राजस्थान की मीरा बाई का जीवन समाज को अलग ही संदेश देता है वहीं इनके जीवन चरित्र् को आधुनिक युग की कई फिल्मों, साहित्य और कॉमिक्स का विषय बनाया गया हैं। मीरा बाई का जीवन प्रारंभ से ही कृष्ण भक्ति से प्रेरित रहा और वे जीवन भर बावजूद विषम परिस्थितियों के कृष्ण भक्ति में लीन रही। कोई भी बाधा उनका मन कृष्ण भक्त से विमुख नहीं कर सकी। कृष्ण भक्ति में रत रहकर वे अमर हो गई और आज भी उनका नाम पूरी श्रृद्धा, आदर और सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है।


मीरा बाई ने न केवल पावन भावना से कृष्ण की भक्ति की वरण अपनी भावना को कृष्ण के भजनों में पिरोकर उन्हें नृत्य संगीत के साथ अभिव्यक्ति भी प्रदान की। यहीं नहीं उन्होंने जहां भी गई भक्त जैसा नहीं वरण देवियों जैसा सम्मान प्राप्त किया।
स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन-हरन गोसाई।।
बारहिं बार प्रनाम करह अब हरह सोक-समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढाई।।
साधु-सग अरू भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता-पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।
मीराबाई के पत्र् का जवाब तुलसी दास ने इस प्रकार दिया ः-
जाके प्रिय न राम बैदही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्याद सुसंख्य जहॉ लौ।
अंजन कहा ऑखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।
मीरा बाई ने ”वरसी का मायरा,“”गीत गोविन्द टीका,”राग गोविन्द“ एवं ”राग सोरठा के पद“ नामक ग्रन्थों की भी रचना की। मीरा बाई के भजनों व गीतों का संकलन ”मीरा बाई की पदावली“ में किया गया। उन्होंने अपने पदो की रचना मिश्रित राजस्थानी भाषा के साथ-साथ विशुद्ध बृज भाषा साहित्य में भी की। उन्होंने भक्ति की भावना में कवियित्री के रूप में ख्याति प्राप्त की। उनके विरह गीतों में समकालिन कवियों की तुलना में अधिक स्वाभिवकता देखने को मिलती है। उन्हने पदों में श्रृंगार और ७ाान्त रस का वि८ोष रूप से प्रयोग किया। माधुरिय भाव उनकी भक्ति में प्रधान रूप से मिलता है। वह अपने इ६ट देव कृष्ण की भावना प्रियतम अथवा पति के रूप में करती थी। वे कृष्ण की दीवानी थी और रैदास को अपना गुरू मानती थी। मीरा बाई मंदिरों में जाकर कृष्ण की प्रतिमा के समक्ष कृष्ण भक्तों के साथ भाव भक्ति में लीन होकर नृत्य करती थी।
मन रे पासि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल-कोमल त्रििवध-ज्वाला-हरन।
जो चरन प्रह्मलाद परसे इंद्र-पद्वी-हान।।
जिन चरन ध्रुव अटल कीन्हों राखि अपनी सरन।
जिन चरन ब्राह्मांड मेंथ्यों नखसिखौ श्री भरन।।
जिन चरन प्रभु परस लनिहों तरी गौतम धरनि।
जिन चरन धरथो गोबरधन गरब-मधवा-हरन।।
दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।
मध्यकालिन हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और कृष्ण भक्त मीरा बाई समकालिन भक्ति आंदोलन के सर्वाधिक लोकप्रिय भक्ति-संतों में से थी। श्री कृष्ण को समर्पित उनके भजन आज भी लोकप्रिय है और वि८ोष रूप से उत्तर भारत में पूरी श्रद्धा के साथ गाये जाते है। मीरा बाई का जन्म राजस्थान में मेडता के राजघराने में राजात रतन सिंह राठौड के घर 1498 को हुआ। वे अपनी माता-पिता की इकलौती संतान थी और बचपन में ही उनकी माता का निधन हो गया। उन्हें संगीत, धर्म, राजनिती और प्रशासन विषयों में शक्षा प्रदान की गई। उनका लालन-पालन उनके दादा की देखरेख में हुआ जो भगवान वि६णु के उपासक थे तथा एक योद्धा होने के साथ-साथ भक्तहृदय भी थे जिनके यहां साधुओं का आना जाना रहता था। इस प्रकार बचपन से ही मीरा साधु-संतों और धार्मिक लोगों के सम्फ में आती रही।
मीरा का विवाह वषर् 1516 में मैवाड के राजकुमार और राणासांगा के पुत्र् भोजराज के साथ सम्पन्न हुआ। उनके पति भोजराज वषर् 1518 में दिल्ली सल्तनत के ७ाासकों से युद्ध करते हुए घायल हो गये और इस कारण वषर् 1521 में उनकी मृत्यु हो गई। इसके कुछ दिनों उपरान्त उनके पिता और ७वसुर भी बाबर के साथ युद्ध करते हुए मारे गये। कहा जाता है कि पति के मृत्यु के बाद मीरा को भी उनके पति के साथ सति करने का प्रयास किया गया परन्तु वे इसके लिए तैयार नहीं हुई और ७ानैः ७ानैः उनका मन संसार से विरक्त हो गया और वे साधु-संतों की संगति में भजन कीर्तन करते हुए अपना समय बिताने लगी।
पति की मृत्यु के बाद उनकी भक्ति की भावना और भी प्रबल होती गई। वे अक्सर मंदिरों में जाकर कृष्ण मूर्ति के सामने नृत्य करती थी। मीरा बाई की कृष्ण भक्ति और उनका मंदिरों में नाचना गाना उनके पति परिवार को अच्छा नहीं लगा और कई बार उन्हें विष देकर मारने का प्रयास भी किया गया।
माना जाता है कि वषर् 1533 के आस-पास राव बीरमदेव ने मीरा को मैडता बुला लिया और मीरा के चित्तौड त्याग के अगले साल ही गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड पर कब्जा कर लिया। इस युद्ध चित्तौड के ७ाासक विक्रमादित्य मारे गये तथा सैकडों महिलाओं ने जौहर कर लिया। इसके प८चात वषर् 1538 में जोधपुर के ७ाासक राव मालदेव ने मेडता पर कब्जा कर लिया और बीरमदेव ने भागकर अजमेर में ७ारण ली और मीरा बाई बृज की तीर्थ यात्र पर निकल गई। मीरा बाई वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिली तथा कुछ वषर् निवास करने के बाद वे वषर् 1546 के आस-पास द्वारिका चली गई। वे अपना अधिकांश समय कृष्ण के मंदिर और साधु-संतों तथा तीर्थ यात्र्यिों से मिलने में तथा भक्तिपदों की रचना करने में व्यतीत करती थी। माना जाता है कि द्वारिका में ही कृष्णभक्त मीरा बाई की वषर् 1560 में मृत्यु हो गई और वे कृष्ण मूर्ति में समा गई। राजस्थान में चित्तौड के किले एवं मेडता में मीरा बाई की स्मृति में मंदिर तथा मेडता में एक संग्रहालय बनाया गया है।

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