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जब बस चलता है तो भगवान, नहीं तो पैर की जूती बना देते हैं

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16 Dec 17
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कोटा/जब बस चलता है डाॅक्टर को भगवान बना देते हैं और जब बस नहीं चलता है तो डाॅक्टर को पैर की जूती बना दिया दिया जाता है। फिर भी चिकित्सक बिना संयम खोए हुए रोगी की सेवा में लगा रहता है। यह संवेदना ही तो उसे सच में महान् बनाती है। यह बात आईपीबीएएस नई दिल्ली की डायरेक्टर और प्रो. जीबी पंत अस्पताल की पूर्व डायरेक्टर प्रो. डाॅ. मीना गुप्ता ने शनिवार को मेडिकल काॅलेज में रजत जयंती समारोह के दौरान कही। वे ‘डाॅक्टर पेशेंट रिलेशनशिप’ विषय पर संबोधित कर रही थीं।

उन्होंने कहा कि 30 साल तक दिन रात मेहनत करने के बाद कोई व्यक्ति चिकित्सक बन पाता है। दूसरे पेशे में 20-22 साल में कमाई होने लगती है। फिर, हर प्रकार से तैयार रहने के बाद भी चिकित्सक के प्रति नकारात्मकता आ गई है। जबकि चिकित्सक से आज भी धैर्यवान होने की उम्मीद की जाती है। पहले चिकित्सक को आदर के भाव से देखा जाता था, लेकिन अब रोगी और उसके परिजनों की आंखों में अविश्वास दिखता है। जब तक रोगी और चिकित्सक के मध्य विश्वास का भाव नहीं आएगा, तब तक रोगी का इलाज भी ठीक प्रकार से नहीं किया जा सकता है। आज इलाज की कोस्ट बढी है और लोगों की अपेक्षा भी बढी है।

उन्होंने गूगल के बारे में कहा कि पहले रोगी आता था, तो अपनी समस्या बताता था। उसके बाद जांच की जाती थी और रोग का पता लगता था। आज व्यक्ति पहले से ही गूगल और यूट्यूब देखकर आता है। वह समस्या के बजाय समाधान बताने के प्रयास करने लगता है। ऐसे में रोगी का ट्रीटमेंट कर पाना संभव कैसे होगा। सोशल मीडिया को भी इस अविश्वास के लिए जिम्मेदार बताया। उन्होंने कहा कि चिकित्सक को भी जिन वेल्यूज के आधार पर ट्रेनिंग मिली है, उन उच्च आदर्शाे पर ही इलाज किया जाना चाहिए।

उन्होंने चिकित्सा व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए सरकार को बजट बढाने की बात कही। उन्होंने कहा कि अभी जीडीपी का केवल 1.4 प्रतिशत हिस्सा ही स्वास्थ्य पर खर्च हो रहा है तो समस्याएं तो आएंगी। उन्होंने बताया कि 1960 में भोरे कमेटी ने प्रत्येक 10 वर्ष में चिकित्सा क्षैत्र में किए जाने वाले आमूलचूल परिवर्तन के बारे में उपयुक्त सुझाव दिए थे। जिन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। इसके अलावा भी समय समय पर विभिन्न कमेटियां बनी हैं, जिनके प्रस्तावों को नजरअंदाज कर दिया गया है। उन्होंने कहा कि देश में 2000 लोगों पर एक चिकित्सक कार्यरत है, जबकि यह संख्या प्रति 1 हजार लोगों पर 1 चिकित्सक की होनी चाहिए। गांवों में डिस्पेंसरी तो खोल दी जाती है, लेकिन संसाधन और स्टाफ नहीं दिया जाता है। ऐसे में गांवों में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं अधिक हैं।

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