होली के बाद पुरुषार्थ दिखाने का अगर कोई और त्योहार हमारे यहाँ आता है तो वह है दीपावली ... जी हाँ हमारे यहाँ के बड़े बुजुर्ग जिन चार पुरुषार्थों के बारे में कह गए - वह हैं अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष जिनमें से देखा जाय तो केवल “अर्थ” और “काम” हीं आज महत्वपूर्ण रह गए हैं l इनमें से जहाँ तक बात है धर्म की, तो वह केवल कुछ होशियार, भड़कदार धर्मगुरुओं की डफली होकर रह गयी है जिसे वे अपनी सुविधानुसार बजाकर अपना खज़ाना भरते हैं l क्यूँ कि धर्म और आध्यात्म का वास्तविक अर्थ अब कोई समझना हीं नहीं चाहता सो ऐसे में धर्म की शास्त्रीय प्रणाली हीं विलुप्त हो चुकी है l और बचा मोक्ष तो अब मोक्ष चाहिए हीं किसे ? अर्थ और काम के लिए हाथ पैर मार-मार कर जो इच्छित हासिल करने से बचा रह जाता है उसके लिए लम्बी उसांस भरकर बंदा अगले और फिर उसके अगले जनम के लिए जरूरी पेन्डिंग कार्य के अन्तर्गत सुरक्षित कर रख देता है l दिमाग के कम्प्यूटर की मेमरी में अगले कई जन्मों के काम के प्रोग्राम का डाटा फीड करके पहले हीं रख लिया जाता है l क्या करें अब आजकल काम इतना बढ़ गया है कि उन जरूरी कामों को निबटायें कि मोक्ष लेकर बैठ जाएँ ... !
भारत भूमि त्योहारों की भूमि है सालों भर कोई न कोई त्यौहार लगा हीं रहता है जिनमें से अधिकतर में अर्थ निकल हीं जाया करते हैं l ले दे कर एक दीपावली हीं ऐसा त्यौहार है कि जिसमें अर्थ समेटने के लिए भरपूर मौका मिलता है चाहे आप छोटे शहर में हों या महानगरों में आपको इसके लिए मुफीद जगह भी बराबर से मिल जाती है l पत्ती हीं तो बिछानी है .. छोटी बड़ी मण्डली में बिछाओ या बड़े-बड़े होटलों, क्लबों के आलिशान टेबलों पर l सिर्फ अर्थ के लिहाज़ से हीं नहीं पड़ोसियों से पुराना इन्तकाम लेने के लिए भी यह त्यौहार बहुत काम का है l पूरे साल का कचड़ा, कबाड़, झाड़-बुहार कर निकालो और गेट के बाहर इकठ्ठा करके हवा के रूख बदलने का इंतज़ार करो जैसे हीं हवा दुश्मन पडोसी के घर की ओर बहना शुरू करे कचड़े की ढ़ेरी में आग लगा दो ... सारा धुँआ पड़ोसी के घर के अन्दर ! बंदा मन हीं मन चाहे जितना उछल कूद ले कर कुछ नहीं पाएगा l अरे साफ़-सफाई का त्यौहार है भाया, हम जैसे चाहें साफ़ करें .. अभी तो हमें कोई कानून रोक नहीं सकता l इतना हीं नहीं दीवाली की दो रातों तक लगातार बदला निकालने का सुनहरा मौका लोगों के हाथों में रहता है l इसरो के वैज्ञानिकों की समस्त उपलब्धियों को चुनौती देते हुए कुछ लोग शाम से जो दुश्मन पड़ोसियों के घरों पर निशाना साधते हुए राकेटबारी शुरू करते हैं तो ये कार्यक्रम देर रात तक जारी रहा करता है l भले हीं इस दिखावे की आतिशबाजी में लाखों रुपये क्यों न स्वाहा हो जाए, अपनी आन, बान, शान बची रहनी चाहिए l अगर उन पैसों से जरुरतमंदों की थोड़ी-सी मदद कर दी जाय, वंचित घरों के बच्चों को कुछ उपहार दे दिए जाएँ तो उनकी दुआओं से आपको जो आत्मीय सुख मिलेगा, इन सब फजूल दिखावेबाज़ियों में वह सुख आप कतई हासिल नहीं कर सकते l पर इस तरह की भली बातें उनकी खोपड़ी में कभी नहीं घुस सकती l और अगर आपने अपने मुखारविन्द से ऐसा कोई उपदेश प्रसारित करने की जुर्रत की तो अपनी खुद की खोपड़ी की खैर पहले हीं मना लेना मुनासिब होगा l
कैसी विडम्बना है कि जहाँ एक तरफ हमारी भारत भूमि के ज्यादातर पारम्परिक त्यौहार किसी न किसी वैज्ञानिक आधार की धूरी पर टिके हुए हैं .. युगों पुराने सांस्कृतिक पर्व, आधुनिक मतानुसार जिस समय हमारा विज्ञान अविकसित अवस्था में था, वैज्ञानिक आधारों पर टिके हुए हैं, और आज के परिप्रेक्ष्य में जब विज्ञान नित नयी उपलब्धियाँ हासिल कर रहा है तब त्योहारों के नाम पर शराब, जुआ और भयानक वायु प्रदुषण, ध्वनि प्रदुषण आदि फैलाना कैसी और कहाँ की समझदारी है ?
काश कि घर के कचड़े कबाड़ों को साफ़ करते समय लोग अपने मन अंतःकरण के भी समस्त अनावश्यक, बेकार और गंदे विचारों के कबाड़ को निकाल बाहर करें तो सारा समाज और संसार स्वतः हीं ज्योतिर्मय हो जाएगा l