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“दूसरों के प्रति मनुष्य का व्यवहार कैसा हो?”

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27 Mar 18
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हम देश और समाज में रहते हैं। हम जहां निवास करते हैं वहां हमारे पड़ोसी भी रहा करते हैं। विद्यालय में हमारे अनेक सहपाठी व गुरुजन होते हैं। समाज में भी अनेक आयु के स्त्री पुरुष होते हैं। इन सबसे व परिवारजनों के प्रति हमारा व्यवहार कैसा हो, यह प्रश्न विचारणीय होता है। इसका उत्तर है कि हमें सबसे प्रीतिपूर्वक व्यवहार करना चाहिये। अब प्रश्न उठता है कि सभी मनुष्य अच्छे नहीं होते, बुरे भी होते हैं, स्वार्थी व हिंसक प्रति के भी होते हैं, विधर्मी होते हैं जो लोभ लालच, बल व येन केन प्रकारेण दूसरों का धर्म परिवर्तन करने की कोशिश करते रहते हैं और बाहर से छल से अपने आप को बहुत सज्जन, शिक्षित व विनम्र दिखाते हैं। ऐसे लोगों से सावधान रहना होता है। अतः प्रीतिपूर्वक व्यवहार के साथ यह भी ध्यान रखना आवश्यक होता है कि हम जिस व्यक्ति से व्यवहार कर रहे हैं, उसकी मंशा व प्रवृत्ति का भी हमें ज्ञान होना चाहिये। यदि वह अच्छा व सज्जन है तो हमारा व्यवहार उसके प्रति प्रीतिपूर्वक होना चाहिये। दूसरी विशेष बात यह है कि हमारा व्यवहार धर्मानुसार होना चाहिये। धर्म का अर्थ है कर्तव्य। इसके लिए हमें देखना है कि हम माता, पिता अथवा आचार्य से व्यवहार कर रहे हैं तो हमारा व्यवहार उनके प्रति हमारे कर्तव्यों के अनुरूप शिष्टता का होना चाहिये। इसी को धर्मानुसार व्यवहार करना कहा जाता है। माता, पिता व आचार्य से इतर भाई, बन्धु, परिवार व सम्बन्धियों के अतिरिक्त समाज के अनेक लोगों से व्यवहार करते हुए भी हमें अपने कर्तव्य वा धर्म को सम्मुख रखकर उनके प्रति अपने व्यवहार का निश्चय करना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति हमारे प्रति छल कपट व इसी प्रकार का व्यवहार कर रहा है तो हमें अपनी सोच व समझ से उसका आंकलन कर उसके प्रति अपने कर्तव्य के अनुसार उसको उत्तर देना होता है। तीसरी प्रमुख बात यह भी देखनी होती है कि हम दूसरों के प्रति जिनसे हमारा पारिवारिक एवं आचार्य-आचार्या आदि का सम्बन्ध नहीं है, उनके प्रति हमें यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये। चोर, डाकू, हिंसक, छल, कपट व लोभ की प्रवृत्ति के व्यक्ति व व्यक्तियों के साथ यथायोग्य अर्थात् जैसे को तैसा का व्यवहार उचित होता है। यदि हम ऐसा करेंगे तो जीवन में सुखी व सफल होंगे और ऐसा नहीं करेंगे तो हम दुःखी व दूसरों के अन्याय, शोषण व अत्याचार से ग्रस्त होकर अपनी व अपने बन्धुओं की हानि कर सकते हैं। यथायोग्य व्यवहार पर विशेष ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। आजकल अनेक राजनीतिक दल हैं जो अपना अपना स्वार्थ व सत्ता के लिए जनता को वाक् छल से सम्मोहित करने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोगों से भी मनुष्यों को सावधान रहने की आवश्यकता है और उनके साथ यथायोग्य व्यवहार कर उन्हें सबक सिखाने की आवश्यकता है।
महर्षि दयानन्द ने सन् 1875 में आर्यसमाज की स्थापना की थी। आर्यसमाज के उन्होंने 10 नियम बनाये हैं। आर्यसमाज का सातवां नियम है कि ‘सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्त्तना चाहिये।’ हमें लगता है कि व्यवहार के नियमों का यह एक आदर्श वाक्य है। जो मनुष्य, समाज व देश इसके अनुसार व्यवहार करेगा वह हमेशा उन्नति को प्राप्त करेगा और जो इसके विपरीत व्यवहार करेगा, वह उन्नति के स्थान पर अवनति को प्राप्त होगा। महाभारत काल के बाद हमारे देश की जो दुदर्शा हुई वह अविद्या व अविद्या पर आधारित व्यवहार के कारण ही हुई। व्यवहार करने के लिए हमें विद्या को धारण करना होगा। विद्या क्या होती है? इसका उत्तर है कि जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जानना और मानना, जैसा पदार्थ नहीं है उसे वैसा नहीं मानना विद्या कहाती है। ईश्वर है, उसके अपने अनेक गुण, कर्म व स्वभाव हैं, जो मनुष्य ईश्वर के स्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव को यथार्थ रूप से जानता है वह विद्यावान कहा जा सकता है। ईश्वर की ही तरह आत्मा का यथार्थ ज्ञान होना व उसके अनुरूप मनुष्य का आचरण होना, ऐसा होने पर ही मनुष्य विद्यावान कहा जा सकता है। इसी प्रकार संसार के सभी पदार्थों को यथार्थ रूप में जानकर उससे लोकहित व जनकल्याण करना ही विद्या होती है। इसी प्रकार से व्यवहार करते समय भी हमें विद्या व अनुभव आदि के आधार पर दूसरों के प्रति अपना व्यवहार करना उचित होता है। विद्या की प्राप्ति के लिए मनुष्य को वेद एवं वैदिक साहित्य सहित दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, सथ्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों व उनके जीवन चरित को पढ़ना चाहिये। इससे मनुष्य के ज्ञान व अनुभव में वृद्धि होती है। ऐसा करके मनुष्य अपने जीवन को वैदिक साहित्य व विद्वानों से अर्जित विद्या के अनुसार बनाकर सुख, शान्ति, कल्याण व उन्नति का वरण कर सकता है।
आजकल हम देख रहे हैं कि मनुष्यों को व्यवहार करना नहीं आता। लोग सज्जन व भोले लोगों के साथ छल या विश्वासघात करते हैं जिससे सज्जन लोग दुःखी होते हैं। इसी कारण दिन प्रतिदिन मिथ्या मत-मतान्तर उत्पन्न हो रहे हैं जो अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं और सज्जन व भोली जनता को मूर्ख बनाकर उनका धन, समय आदि का हरण करते हैं और मतों के स्वयंभू आचार्य स्वयं सुख भोग करते हैं। ऐसे कुछ लोग आजकल जेल में समय व्यतीत कर रहे हैं जो कि उनकी उचित जगह प्रतीत होती है।
यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मनुष्य की आत्मा अल्पज्ञ होती है। सभी मत-मतान्तरों के अल्पज्ञ मनुष्य ही थे। इसी कारण मत-मतान्तर के ग्रन्थ अविद्या व अन्धविश्वासों से ग्रस्त हैं। सभी में अज्ञान भरा पड़ा है। महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के ग्यारह से चौदहवें समुल्लासों में मत-मतान्तरों की अविद्या को सप्रमाण उद्धृत किया है। किसी मत से उनकी यथार्थ बातों का उत्तर नहीं बन पड़ा। अतः अल्पज्ञ मनुष्यों द्वारा चलाये गये मत-मतान्तरों से मनुष्यों को बचना चाहिये। इनसे मनुष्यों का कल्याण होने वाला नहीं है। कल्याण केवल ईश्वर, ऋषियों व वेद के विद्वानों की शरण में जाने पर ही हो सकता है। इसका कारण व आधार यह है कि वेद ईश्वर का ऋषियों को सृष्टि के आरम्भ में दिया गया ज्ञान है। ईश्वर सर्वज्ञ है अतः उसका वेद ज्ञान भी सत्य व यथार्थ ज्ञान की सभी अर्हतायें पूरी करता है। उसमें अल्पज्ञता, मिथ्या, अन्धविश्वास व अविद्या की कोई बात नहीं है। वेद आदि शास्त्रों में ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति व मनुष्यों के सभी व्यवहारों का विद्या से पोषित सत्य स्वरूप उपलब्ध है। इनमें मनुष्यों के सर्वजनहितकारी अर्थात् परोपकार आदि कर्तव्यों की प्रेरणा की गई है। जो मनुष्य वेदों की शरण में जाता है वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को सिद्ध करता है व सिद्ध कर सकता है। उसका यह जन्म व परजन्म भी सुधरता है। अतः सबको वेद व वेदसम्मत ग्रन्थों का ही अध्ययन करना चाहिये और वेद वर्णित ईश्वर को ही अपना आचार्य व गुरु बनाना चाहिये। ईश्वर के बाद वेदों के सच्चे ज्ञानी, तपस्वी, निःस्वार्थ जीवन जीने वाले मननशील मुनि लोग ही सच्चे आचार्य व गुरु कहलाने के योग्य होते हैं। ऐसा करके ही हम सद्ज्ञान को प्राप्त होकर दूसरों के प्रति कल्याणकारी व्यवहार को जान कर उसे क्रियान्वित रूप देकर उचित व्यवहार कर सकते हैं। इसी के साथ इस चर्चा को समाप्त करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य

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