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“अग्निहोत्र के लाभ”

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21 Feb 18
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
यज्ञ के विषय में हमारे ऋषि कहते हैं कि यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है। यज्ञ को सर्वश्रेष्ठ व सबसे श्रेष्ठ कर्म बताया गया है। वेदों में यज्ञ को ब्रह्माण्ड वा भुवन की नाभि बताया गया है। इससे यज्ञ का महत्व निर्विवाद है। अग्निहोत्र भी एक यज्ञ है और यह श्रेष्ठतम कर्म भी है। हमने वर्षों पूर्व वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के एक वार्षिकोत्सव में महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी के प्रवचन में सुना था कि यज्ञ इसलिए श्रेष्ठतम कर्म हैं क्योंकि हमारा जीवन प्राणवायु पर निर्भर है और यह प्राणवायु हमारे जिस कर्म से शुद्ध रहती व होती है, वह यज्ञ कर्म है। यदि हमें कुछ क्षण प्राणवायु न मिले तो हमारा जीवन संकट में पड़ जाता है। अतः प्राण वायु को शुद्ध व लाभप्रद बनाने के कारण यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कर्म है। महात्मा जी ने कहा था कि जो मनुष्य वायु में प्रदुषण करते हैं वह पाप करते हैं। इसी आधार पर उन्होंने धूम्रपान करने को निषिद्ध व निकृष्ट कर्म बताया था। हमारे जीवन में दूसरा महत्व जल का है। यदि गर्मियों में हमें प्यास लगने पर जल न मिले तो हमारे प्राण बाहर आने को होते हैं। ऋषि दयानन्द ने भी विज्ञान के आधार पर लिखा है कि अग्निहोत्र यज्ञ करने से वायु और वर्षा जल की शुद्धि होती है। हम अनुभव करते हैं कि जहां यज्ञ होते हैं वहां होने वाली वर्षा का जल शुद्ध तो होता ही है, वह वर्षा जल किसान की फसल के लिए भी अतीव गुणकारी व लाभकारी होता है। यज्ञों के विशेषज्ञ एवं आर्यसमाज के यज्ञों के अनुभवी विद्वान पं. वीरसेन वेदश्रमी ने अनेक बार यज्ञों के प्रभाव से वर्षा कराई थी व जन्म से गूंगे व बहरे व्यक्तियों सहित हृदय रोग से ग्रस्त रोगियों को भी स्वस्थ किया था। उन्होंने वैज्ञानिक प्रयोग कर पाया था कि जिन खेतों में यज्ञ किया गया और वहां यज्ञ की राख डाली गई, वहां आसपास के उन खेतों से अच्छी फल हुई जिनमें यज्ञ नहीं किया गया था और न ही यज्ञ की राख डाली गई थी। पं. वीरसेन वेदश्रमी जी ने यज्ञ की राख से अनेक रोगों की औषधि भी बनाई थी जिनसे रोगों को ठीक करने में सफलता प्राप्त हुई थी। अतः यज्ञ से मनुष्यों को आधिदैविक एवं आधिभौतिक सहित आध्यात्मिक लाभ भी होते हैं, यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है।
अग्निहोत्र से लाभ के विषय में वेदों के मर्मज्ञ विद्वान आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘यज्ञ-मीमांसा’ में लिखते हैं कि ‘अग्निहोत्र के लाभों की सूची अनन्त है। वायुशुद्धि, आरोग्य, दीर्घायुष्य, वर्षा, दूध, अन्न, धन, बल, ऐश्वर्य, सन्तान, पुष्टि, निष्पापत्व, सच्चरित्रता, जागृति, शत्रुविनाश, आत्मरक्षा, यश, तेजस्विता, वर्चस्विता, सद्विचार, सत्कर्म, इन्द्रियशक्ति, आनन्द, परिपूर्णता, मोक्ष आदि की प्राप्ति अग्निहोत्र से बताई गई है। इनमें से कुछ लाभ साक्षात् सुगन्धित, पुष्टिप्रद, मिष्ट, रोगनाशक हव्यों की आहुति से प्राप्त होते हैं, कुछ परमात्माग्नि एवं यज्ञाग्नि के गुणों का चिन्तन करने तथा उसके द्वारा प्रेरणा प्राप्त करने से होते हैं।’ अग्निहोत्र के जो लाभ यहां बतायें गये हैं उनमें प्रायः सभी हमें आचार्य रामनाथ जी के जीवन में घटित हुए प्रतीत होते हैं। हमें अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहां यज्ञ करने वाले लोगों को जीवन में उल्लेखनीय सफलतायें मिली है। इसमें हम वर्तमान के स्वामी रामदेव जी व आचार्य बालकृष्ण जी सहित हीरो होण्डा के स्वामी श्री सत्यानन्द मुंजाल, एमडीएच मसाले के स्वामी महाशय धर्मपाल जी और एमिटी यूनिवर्सिटी के सीएमडी डा. अशोक चौहान आदि को भी सम्मिलित कर सकते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि वैदिक यज्ञ करने वाले मनुष्य को जीवन के अनेक क्षेत्रों में सफलतायें मिलती हैं और यज्ञ के जो लाभ उपर्युक्त पंक्तियों में आचार्य रामनाथ जी ने बतायें हैं वह सत्य एवं यथार्थ हैं।
संसार में यज्ञ का आरम्भ सृष्टि के आदिकाल में ही वेदों में दी गई ईश्वरीय शिक्षाओं वा आज्ञाओं से हुआ था। यज्ञों के प्रभाव से ही हमारे ऋषि मुनि स्वस्थ व दीर्घजीवी होते थे और सौ वर्ष से अधिक आयु को प्राप्त करते थे। यज्ञ से मनुष्य निरोग रहता है जिससे उसके बल की हानि नहीं होती अर्थात् वह जीवन भर अन्यों की तुलना में बलवान रहता है। यज्ञ करने वालों की बुद्धि अन्यों की तुलना में प्रखर व विवेकयुक्त होती है। यज्ञ करने वाला आस्तिक होता है, नास्तिक नहीं होता और नास्तिकों की सभी युक्तियों का खण्डन कर उन्हें वाणी से परास्त व यज्ञ व ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करा सकता है। यज्ञ करने से विद्वानों से संगतिकरण होता है जिससे यजमान विद्वानों के ज्ञान व अनुभव को प्राप्त कर सकता है। यज्ञ वेदों के स्वाध्याय की प्रेरणा भी देते हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान एवं धर्म का मूल है। वेदाध्ययन से मनुष्य ईश्वर विश्वासी वा ईश्वर भक्त एवं विद्वान बनता है। ऋषि दयानन्द का यश आज विश्व में विद्यमान है। इसका कारण भी उनका वेद ज्ञानी व वेदों का प्रचारक होना ही है। 20 वर्ष के कार्यकाल में ऋषि दयानन्द वेद प्रचार का वह कार्य कर गये हैं जो मनुष्य अनेक जन्म लेकर भी नहीं कर सकते व कर पाते। यज्ञ से वायु सुगन्धित होती है और दुर्गन्ध का नाश करती है। यज्ञ करते हुए यज्ञ के निकट बैठने से जो वायु श्वांस द्वारा शरीर में प्रवेश करती है उससे रक्त शोधन भी सामान्य से अधिक मात्रा व गुणवत्ता से युक्त होता है, ऐसा अनुभव होता है। ऐसे अनुसंधान सामने आये हैं जो बतातें हैं कि गोघृत के जलने पर रोगकारक सूक्ष्म बैक्टिरियां नष्ट होते हैं। यह सभी लाभ भी यज्ञकर्ता को मिलते हैं। अतः जीवन को स्वस्थ, सुखी, दीर्घायु, सम्पन्न, यशस्वी, परोपकारी, शत्रुओं पर विजयी बनाने आदि के लिए मनुष्य को यज्ञ अवश्य करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य को उसके प्रत्येक कार्य में ईश्वर का सहाय प्राप्त होगा। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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