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“वैदिक धर्मी मनुष्यों के मुख्य कर्तव्य एवं उनकी दिनचर्या”

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17 Feb 18
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
संसार में सबसे पुराना, वैज्ञानिक, सबको मित्र व प्रेम की दृष्टि से देखने वाला व वैसा ही व्यवहार करने वाला धर्म वैदिक धर्म है। वैदिक धर्म पूर्ण व सर्वांगीण धर्म है। इसमें सभी विद्यायें एवं सभी विषयों का ज्ञान उपलब्ध है। अन्य सभी मत मनुष्यों व उन मतों के आचार्यों व गुरुओं ने चलायें हैं जबकि वैदिक धर्म का आरम्भ ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेदों से हुआ है। ईश्वर ने वेदों का ज्ञान मनुष्यों को कैसे दिया? इसका उत्तर है कि निराकार व सर्वव्यापक ईश्वर जिस प्रकार से ज्ञान दे सकता है व देना चाहिये, जो कि सम्भव एव व्यवहारिक है, उसी प्रकार से दिया। वेदों का ज्ञान परमात्मा ने चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को उनके हृदयस्थ अन्तःकरण में दिया है। यह ज्ञान प्रेरणा द्वारा दिया गया। हमें जब किसी को कुछ कहना होता है तो हमारी आत्मा मन के द्वारा हमारी वाणी को प्रेरित करती है और वाणी से ध्वनि निकलती है जिसे सुनकर हमारी आत्मा की प्रेरणा कृतकार्य अर्थात् फलीभूत हो जाती है। जब हम स्वयं किसी विषय का चिन्तन कर रहे होते हैं तो हम अपनी मातृ भाषा में विचार व चिन्तन करते हैं। तब हमें कानों को सुनाने के लिए बोलना नहीं होता। हम जो विचार करते व सोचते हैं वह हमारी आत्मा, बुद्धि व मन आदि को विदित हो जाता है। परमात्मा हमारी आत्मा के भीतर व बाहर दोनों स्थानों पर है। इसका कारण परमात्मा का चेतन होना, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी व सर्वज्ञ होना आदि है। सर्वान्तर्यामी परमात्मा ऋषियों की आत्मा में ज्ञान की प्रेरणा करता है और ऋषि उसे प्रेरणा को जान व समझ जाते हैं। फिर वह ऋषि उनका उच्चारण आदि करके वेद ज्ञान को समझ लेते हैं। ऋषि दयानन्द भी उच्च कोटि के विद्वान व वेदों के मर्मज्ञ थे। उन्होंने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में बताया है कि परमात्मा ने वेदों का ज्ञान वेदों की भाषा संस्कृत में दिया और उन चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को उन मन्त्रों के अर्थ भी जनायें व बतायें। इस प्रकार सृष्टि की आदि में परमात्मा से मनुष्यों को भाषा और ज्ञान प्राप्त हुआ। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद यह कुल चार वेद हैं जो ईश्वर से प्राप्त हुए हैं। इन वेदों में ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान का ज्ञान दिया गया है। चार ऋषियों ने ईश्वर से वेदों का ज्ञान प्राप्त कर उसे ब्रह्मा जी नाम के अन्य ऋषि को दिया था और फिर इन सबके द्वारा अध्ययन व अध्यापन आरम्भ हुआ और यह परम्परा अबाध रूप से महाभारत काल तक चली आई थी। ईश्वरीय प्रेरणा से वेद ज्ञान प्राप्त करने वाले ऋषि प्रत्येक सृष्टि व कल्प के आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न होते हैं। सृष्टि में एक बार ज्ञान देने के बाद सृष्टि के शेष काल में ईश्वर किसी ऋषि व अन्य किसी को वेदों का ज्ञान नहीं देता। इस आधार पर सिद्ध होता है कि परमात्मा द्वारा प्रदत्त ज्ञान केवल वेद हैं और संसार की अन्य सभी पुस्तकें व उनकी शिक्षायें उनके रचयिता मनुष्यों, आचार्यों व गुरुओं के अपने विचार हैं।
वैदिक धर्मी मनुष्यों का प्रथम कार्य वेदों का पठन-पाठन, उसे सांगोपांग पढ़ना व उनका प्रचार करना है। इसके साथ उसकी रक्षा के सभी उपाय करना भी वैदिक धर्मी मनुष्य के लिए अभीष्ट होता है। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व सृष्टि का सत्य व यथार्थ ज्ञान है जिसे जानकर वैदिक धर्मी मनुष्य उसी के अनुरूप आचरण करता है। वह ईश्वर के गुणों से उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करता है। ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र ‘अग्निम् इडे पुरोहितम् यज्ञस्य देवमृत्विजं’ में परमात्मा ने मनुष्यों को शिक्षा दी है कि तुम ईश्वर की उपासना करो और कहो कि मैं ज्ञानस्वरूप, प्रकाशस्वरूप, शुद्ध व पवित्र परमात्मा की स्तुति करता हूं और ईश्वर से ज्ञान, शुद्धता व पवित्रता मांगता हूं। महर्षि दयानन्द जी ने वेदों एवं प्राचीन ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन कर सन्ध्या व स्तुति, प्रार्थना उपासना की विधि व मन्त्रों का विधान पंचमहायज्ञ विधि, संस्कारविधि आदि ग्रन्थों में किया है। अतः वैदिक धर्मी मनुष्य का प्रथम कर्तव्य वेदों का अध्ययन वा स्वाध्याय एवं ईश्वर की सन्ध्या व उपासना करना है। वेदों में मनुष्यों को अग्निहोत्र यज्ञ करने की प्रेरणा भी की गई है। समधिओं व गोघृत से अग्निहोत्र करने से वायु शुद्ध होती है जिससे मनुष्य स्वस्थ व बलवान होता है। रोगों से बचता है। वेदों के मन्त्र से आहुतियां देने से मंत्रों की रक्षा होती है और मंत्रों में निहित ज्ञान से मनुष्य व यज्ञकर्ता परिचित होता है। सन्ध्या व यज्ञ का विधान प्रातः व सायं दोनों समय है। अग्निहोत्र यज्ञ की विधि भी महर्षि दयानन्द ने वेद एवं प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर ज्ञान व विज्ञान के अनुरूप प्रदान की है। इसी के अनुसार वैदिक धर्मी मनुष्य प्रतिदिन अग्निहोत्र यज्ञ करते हैं। वैदिक धर्मी मनुष्य का तीसरा कर्तव्य पितृयज्ञ करना अर्थात् माता, पिता आदि वृद्ध जनों की सेवा करना है। सन्तान का कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता व कुल के वृद्धों की सेवा करे, उनके भोजन व वस्त्रों का प्रबन्ध करे और किसी को रोग होने पर उनकी चिकित्सा का प्रबन्ध भी करे। उसे सदैव अपने माता-पिता आदि के साथ मधुर व हितकर व्यवहार करना होता है। वैदिक धर्मी मनुष्य का चौथा कर्तव्य व धर्म है कि वह अपने आचार्यों, गुरुजनों व विद्वान अतिथियों का भी सम्मान व सत्कार करे। इसमें आलस्य व प्रमाद न करें। विद्वानों की संगति व उनकी सेवा से मिले आशीर्वाद से मनुष्य का जीवन सुखी व सम्पन्न बनता है। पांचवा मुख्य कर्तव्य बलिवैश्वदेवयज्ञ है जिसमें पशु, पक्षियों, कीट व पतंगों आदि को भोजन के निमित्त कुछ खाद्य पदार्थ दिये जाते हैं। इसमें गो, कुत्ता आदि सभी पालतू पशु भी सम्मिलित होते हैं।
वैदिक धर्मी मनुष्य आयु के प्रथम सात-आठ वर्षों तक घर पर रहकर माता, पिता आदि से शिक्षा व संस्कार ग्रहण करते हैं। इसके बाद उन्हें गुरुकुल व पाठशाला में भेजा जाता है जहां उन्हें सभी प्रकार की विद्याओं का ज्ञान कराया जाता है जिसमें संस्कृत व वेद आदि शास्त्रीय ग्रन्थ भी सम्मिलित होते हैं। आजकल मनुष्य घर बैठे शास्त्रों को हिन्दी भाष्यों व टीकाओं के आधार पर भी पढ़ सकते हैं। वेदादि सभी ग्रन्थ आजकल हिन्दी भाष्य व टीका सहित प्राप्त हो जाते हैं। यह अध्ययन करने व अपनी विद्या बढ़ाने का एक वैकल्पिक अच्छा साधन व उपाय है। विद्या पूरी करने के बाद स्नातक होकर वैदिक धर्मी युवक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। इसके लिए उसका विवाह कराया जाता है। विवाह में यह ध्यान रखा जाता है कि वर व वधू के गुण, कर्म व स्वभाव समान हों। विवाह विषयक नियम संस्कारविधि व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में देखे जा सकते हैं। यह ज्ञातव्य है कि विवाह संस्कार 16 संस्कारों में से एक हैं। वैदिक धर्मियों के गर्भाधान से अन्त्येष्टि पर्यन्त 16 संस्कार होते हैं। इन्हें यथासमय करने का विधान है। इन संस्कारों से मनुष्यों का आत्मा सुभूषित होता है। संस्कारों के अवसर पर विद्वान पुरोहित का उपदेश सभी को सुनने को मिलता है। यह अवसर होता है कि सभी लोग पुरोहित से अपनी अपनी शंकाओं का समाधान भी कर लें। पुरोहित के लिए यह आवश्यक है कि वह चारों वेद व न्यून एक वेद का अंगोपांग सहित विद्वान हो।
वैदिक धर्मी की एक विशेषता यह होती है कि वह प्रातःकाल ब्रह्म मुहुर्त में सो कर जाग जाता है। ईश्वर का चिन्तन करता है। शौच से निवृत होकर प्रातःकाल की शुद्ध वायु में भ्रमण करता है और शारीरिक व्यायाम और प्राणायाम आदि करता है। इसके बाद स्नानादि से निवृत होकर सन्ध्या व यज्ञ करता है। वैदिक धर्मी प्रायः चाय एवं काफी आदि हानिकारक पदार्थों का सेवन नहीं करते। इसके स्थान पर वह अल्पाहार में गोदुग्ध, रोटी, सब्जी, फल आदि का सेवन करते हैं। इसके बाद दिन का समय आजीविका उपार्जन का समय होता है। सायं घर आकर शौच आदि से निवृत्त होकर अग्निहोत्र व इसके बाद संन्ध्या करनी होती है। सन्ध्या के बाद भोजन के समय पर भोजन करते हैं। भोजन पूर्णतयः सतगुण प्रधान व शाकाहारी होता है। भोजन में मांस, मदिरा, मछली, मुर्गा-मुर्गी, अण्डे, तले पदार्थों का निषेध है। इनसे शरीर को हानि होती है और मनुष्य का स्वभाव भी हिंसक व क्रोध आदि से युक्त हो सकता है। वैदिक धर्मी की प्रमुख विशेषताओं में यह भी विशेषता है कि वह मांस, मदिरा व तामसिक पदार्थों का सेवन नहीं करते। जो लोग करते हैं वह ईश्वर की व्यवस्था से अपने इस अशुभ कार्य का दण्ड इस जन्म व परजन्म में पाते हैं। वह प्रायः रोगी, निर्बल व अल्पायु होते हैं। इस प्रकार की दिनचर्या वैदिक धर्मी मनुष्यों की होती है। रात्रि 10 से 11 बजे के मध्य सोने से पहले मनुष्य स्वाध्याय आदि भी पूर्ण कर लेता है व सोने से पहले रात्रि शयन के 6 मन्त्रों की पाठ करता है तथा उनके अर्थों का चिन्तन करते हुए निद्रा लेता है।
हमने संक्षेप में वैदिक धर्मी मनुष्यों के कर्तव्यों व उनकी दिनचर्या पर प्रकाश डाला है। इसमें मनुष्य अपनी परिस्थितियों के अनुसार कुछ न्यूनाधिक भी कर सकते हैं परन्तु सिद्धान्त विरुद्ध कुछ भी करने की अनुमति उन्हें नहीं है। वैदिकधर्मी मनुष्य देश व समाज के हितकारी सभी कार्य करते हैं। परोपकार व दूसरों की सेवा को महत्व देते हैं। शोषण, अत्याचार व अन्याय किसी के प्रति नहीं करते हैं। वह कंजूस न होकर धर्म कार्यों में मुक्त हस्त से दान भी करते हैं। धन व अन्न आदि का दान करना परमात्मा द्वारा दिये गये हाथों की शोभा है। इससे पात्र दीन हीन मनुष्यों व सभी संस्थाओं गुरुकुलों आदि को दान मिलता है तो इससे समाज उन्नत होता है। वैदिक धर्मी के लिए ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, वेदभाष्य सहित ब्राह्मण ग्रन्थ, उपवेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत एवं आयुर्वेद आदि के ग्रन्थों का अध्ययन करना भी आवश्यक है। इससे वह अन्धविश्वासों व भ्रान्तियों से बचता है व दूसरों को भी बचाता है। जहां ऐसे लोग होंगे वहां मिथ्या मत, अज्ञान व अन्धविश्वास की बातें अधिक समय तक चल नहीं सकती। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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