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’आप्त पुरुश का स्वरूप‘

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16 Dec 17
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इसके लिए हमने ’स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाष‘ पर दृश्टि डाली। ऋशि दयानन्द जी ने अपने इस लघु ग्रन्थ में आप्त पुरुश के लक्षण बताते हुए लिखा है कि वह पुरुश जो यथार्थ वक्ता, धर्मात्मा व सब के सुख के लिये प्रयत्न करता है उसी को आप्त कहता व मानता हूं। इसकी कुछ और चर्चा करते हैं। ऋशि दयानन्द जी कहते हैं कि आप्त पुरुश का प्रथम गुण उसका यथार्थ वक्ता होना है। यदि किसी मनुश्य में यह गुण है तो वह आप्त पुरुश है और यदि नहीं है तो वह पुरुश आप्त पुरुश नहीं है। यथार्थ वक्ता से अभिप्राय सत्य वक्ता से होता है। सत्य वक्ता वही होता है कि जो उसके ज्ञान में हो, मन में हो, अनुभव में व जिसे वह सत्य व हितकारी समझता हो, उसका वैसा ही वर्णन व उल्लेख दूसरों के सम्मुख करे, बताये व कहे। आजकल ऐसे लोग मिलना असम्भव नहीं तो कठिन अवष्य है। अज्ञानी लोग तो सत्य व असत्य का विवेक कर ही नहीं पाते। इसके लिए ज्ञानी होना अत्यावष्यक होता है। ज्ञानी होने के लिए विद्यावान होना भी आवष्यक है। विद्यावान मत-मतान्तर, ज्ञान-विज्ञान व कहानी-किस्सों की पुस्तकों को पढकर नहीं होता अपितु वेद व वैदिक साहित्य को पढकर बनता है। वेद एवं वैदिक साहित्य उस ज्ञान का नाम है जो ईष्वर, जीव व प्रकृति के विशय में सत्य व यथार्थ कथन करते हैं। वेदों में व वेदों की व्याख्या में लिखे ऋशियों के वेदानुकूल साहित्य में सर्वत्र सत्य ही होता है। ऋशि भी आप्त पुरुश के समान सत्य व यथार्थ वक्ता को ही कहते हैं। हम देखते हैं कि संसार में वेदों के यथार्थ ज्ञानी अति अल्प संख्या में है। मत-मतान्तरों के सिद्धान्त व मान्यतायें वेदों के विरुद्ध होने से असत्य है। अतः किसी भी मत के अनुयायी वा आचार्य आप्त पुरुश कहे जाने योग्य नहीं है क्योंकि उनका यथार्थ व सत्य वक्ता होना सम्भव ही नहीं है। आप्त पुरुश तो ऋशि दयानन्द, स्वामी विरजानन्द सरस्वती मथुरा, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्याथी, स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती जी आदि जैसे लोग ही हुए हैं। हम आजकल वेदों से अनभिज्ञ अनेक प्रकार का ज्ञान रखने वाले लोगों को देखते हैं जो अपने स्वार्थ वा आवष्यकतानुसार सत्य को तोडते मरोडते हैं। ऐसे कुछ कुछ ज्ञानी व्यक्ति भी आप्त नहीं कहे जा सकते। अज्ञानी व्यक्ति आप्त हो ही नहीं सकता। उससे तो किसी गम्भीर व गहन विशय में चर्चा ही नहीं की जा सकती। वह किसी जिज्ञासु व षंकालु की षंका का समाधान करने की योग्यता ही नहीं रखता है। अतः आप्त पुरुश के लिए यथार्थ वा सत्य वक्ता का होना अनिवार्य है और इसके साथ वह वेदों का ज्ञानी व वेदानुसार आचरण करने वाला, वेद व ईष्वरभक्त, सभी एशणाओं से मुक्त, देष व समाज के लिए समर्पित, परोपकारी व धर्म को भली प्रकार से जानने वाला व उसका आचरण करने वाला होना भी आवष्यक है। ऐसा व्यक्ति हम ऋशि दयानन्द वा ६ दर्षनकारों व प्राचीन ऋशियों व वेदज्ञों आदि को ही कह सकते हैं। ऐसे व्यक्ति भी आप्त कहे जा सकते हैं जो सच्चे योगी हों और जिन्होंने योग व ध्यान में सफलता पाई हो। ध्यान में सफलता का तात्पर्य है कि जिन्होंने समाधि को सिद्ध कर ईष्वर का साक्षात्कार किया हो। ऐसे व्यक्ति भी आप्त हो सकते व कहे जा सकते हैं। आप्त पुरुश का धार्मिक व धर्मात्मा होना भी आवष्यक है। धर्म सत्याचार को कहते हैं। धर्म का एक अर्थ मनुश्योचित कर्तव्यों का पालन भी है। मनुश्य किसे कहते हैं, इसका वर्णन भी ऋशि दयानन्द ने अपनी लघु पुस्तक स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाष में किया है जिसे वहीं देखना उचित है। मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं। यह हैं धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, षौच, इन्दि्रय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य एवं अक्रोध। धर्मात्मा मनुश्य को इन धर्म के लक्षणों का पालन करना भी आवष्यक है। योग दर्षन में अश्टांग योग के प्रथम दो सोपान पांच यम व पांच नियम हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह यम हैं और षौच, सन्तोश, तप, स्वाध्याय तथा ईष्वर प्रणिधान नियम हैं। इनका पालन भी धर्मात्मा को पूर्णरूप से करना होता है। अनेक विद्वानों ने ऋशि दयानन्द के खोज पूर्ण जीवन चरित्र लिखे हैं। उन सबको पढने पर जो तथ्य उपस्थित होता है उसके अनुसार ऋशि दयानन्द में धर्मात्मा होने के यह सभी गुण विद्यमान थे। जिस मनुश्य का आत्मा स्वार्थरहित है तथा जो पक्षपात व अन्याय से दूर है ऐसे अपढ लोग भी प्रायः धर्मात्मा देखे जाते हैं। अतः ज्ञानयुक्त धर्म का आचरण करने वाले मनुश्य को हम धर्मात्मा मान सकते हैं और ऐसा व्यक्ति आप्त पुरुश के प्रमुख गुणों से युक्त होता है। धर्म का एक अर्थ परोपकार करना भी होता है। अतः धर्मात्मा में इस गुण का होना भी अनिवार्य है। आप्त विद्वान व पुरुश का तीसरा महत्वपूर्ण गुण है, उसका दूसरों के सुख के लिये प्रयत्न करना। आप्त पुरुश के इस गुण में दूसरे निर्बलों व धर्मात्माओं की सेवा व रक्षा के कार्य भी जुडे हुए हैं। आप्त पुरुश किसी दुःखी मनुश्य को देखकर उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता अपितु उसके दुःख का कारण जानकर उसे दूर करने के लिए उससे जो भी प्रयत्न हो सकते हैं वह अवष्य करता है वा करेगा। यदि विद्वान मनुश्य दूसरे दुःखी मनुश्यों के दुःख दूर करने के लिए उनकी सेवा व मार्गदर्षन आदि के द्वारा सहायता नहीं करता तो वह आप्त विद्वान के इस तीसरे महत्वपूर्ण गुण के न होने से आप्त पुरुश नहीं कहा जा सकता। उसमें यह गुण भी होने ही चाहियें। विचार करने पर यह भी ज्ञात होता है कि आप्त पुरुश पूरे विष्व को अपना परिवार समझता है और ईष्वर जिस प्रकार सब मनुश्यों व प्राणियों पर समान रूप दया व कृपा रखता है, उसी प्रकार से आप्त पुरुश भी प्राणी मात्र को अपना परिवार जानकर उनको सुखी बनाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करता है। विचार करने पर यह भी ज्ञात होता है कि मनुश्यों को सुखी बनाने का वैदिक उपाय है कि ज्ञानी व अज्ञानियों में वेद प्रचार किया जाये। अज्ञानियों का अज्ञान दूर किया जाये और उन्हें वेदोक्त कर्तव्य-कर्मों की षिक्षा देकर उसमें प्रवृत्त किया जाये। ऋशि दयानन्द में यह सभी गुण प्रचुर मात्रा में विद्यमान थे। इस कारण वह सच्चे आप्त विद्वान पुरुश थे। उनके जैसा जीवन जीने वाला मनुश्य ही आप्त पुरुश होता है।




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