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वैदिक व ज्ञान के इतर ग्रन्थों के स्वाध्याय से आध्यात्मादि

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12 Dec 17
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स्वाध्याय वैदिक पद्धति व वैज्ञानिक दृष्टि से ईश्वर, जीव व प्रकृति विषयक वेद एवं वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन को कहते हैं। हम अध्ययन आत्मा की उन्नति व सुख प्राप्ति के लिए करते हैं। यदि आत्मा ज्ञान से पूर्ण नहीं होगा तो मनुष्य पूर्ण सुखी नहीं हो सकता। समाज में ऐसे व्यक्ति भी देखे जाते हैं जो अज्ञानी व अनपढ़ होते हैं। शारीरिक क्षमतायें होते हुए भी वह ज्ञान की कमी व अभाव के कारण किसी भी विषय का भली प्रकार से विचार नहीं कर पाते और जीवनोन्नति के कार्य में सबसे पीछे रह जाते हैं। उरनका जीवन प्रायः दासत्व का जीवन होता है। इस कारण उनका जीवन दुःखों व अभावों में बीतता है। दूसरी ओर विद्वान मनुष्य ईश्वर, आत्मा और सृष्टि विषयक यथार्थ रखने के कारण सभी कार्यों को जान व समझकर कर सकता है जिससे वह धनोपार्जन करके अपने जीवन को शास्त्रानुसार वा अपनी इच्छा व भावना के अनुसार व्यतीत कर सकता है। अतः मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति के लिए सभी सम्भव प्रयत्न करने चाहिये। ऐसा करने से ही उसके जीवन के दुःख कम होकर वह सुख व आनन्द की उपलब्धि कर सकता है। ज्ञान प्राप्ति के उपाय हैंं विद्वानों के उपदेशों को सुनना वा इच्छित विषयों का ज्ञानयुक्त साहित्य पढ़ना। स्वाध्याय से इच्छित विषयों को जान व समझ कर ही मनुष्य ज्ञानी होता है। मनुष्य भाषा सीख ले और कुछ व अधिक विषयों का साहित्य पढ़ ले तो उसमें वह सामर्थ्य आ जाती है कि अधीत विषय से जुडे प्रश्नों व समस्याओं का अपनी ऊहा आदि से हल ढूंढ सकता है। अध्ययन किये हुए मनुष्य की स्थिति अध्ययन न किये हुए व कम अध्ययन किये हुए मनुष्यों से अच्छी होती है। आजकल की समाज व्यवस्था में इसके अपवाद भी दिखाई देते हैं। कुछ अल्प शिक्षित लोग बड़े बड़े व्यवसाय कर रहे हैं और उच्च शिक्षित लोग उनके यहां सेवा आदि कार्य करते हैं। बड़े बड़े राजनीतिक दलों के नेता अल्प शिक्षित होते हैं और उनके अधीन आजकल की दृष्टि से उच्च शिक्षित लोग उनके अधीन सेवा देते हैं।
हमारे शरीर में स्थित चेतन तत्व आत्मा का मुख्य उद्देश्य इस संसार को भली प्रकार से जानना है। ईश्वर है या नहीं? नहीं है तो क्यों नहीं और यदि है तो वह कैसा व कहां हैं? उसके गुण, कर्म व स्वभाव कैसे हैं? आत्मा का स्वरूप क्या है? यह सृष्टि कब, कैसे, किससे बनी? सृष्टिकर्ता का सृष्टि को उत्पन्न करने का उद्देश्य क्या है? इन व ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर व प्रमाण अध्ययन वा स्वाध्याय करने से मिलने चाहियें और यह ज्ञान व उत्तर ऐसे होने चाहियें जिससे कि सभी कुतर्कियों व शंकालुओं को सन्तुष्ट व निरुत्तर किया जा सके। इसके साथ उन्हें ईश्वर के अस्तित्व व उसके गुण-कर्म-स्वभाव को मानने के लिए बाध्य भी किया जा सके। ईश्वर व जीवात्मा विषयक सभी प्रश्नों के उत्तर वेदों व वेदों की व्याख्या में लिखे गये ऋषिकृत ग्रन्थों के स्वाध्याय व अध्ययन से ही जाने जा सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति इन प्रश्नों के उत्तर जानना चाहे और वह इसके लिए वैदिक धर्म से भिन्न मत-मतान्तरों की धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करे तो वैज्ञानिक व तर्क बुद्धि रखने वाला व्यक्ति कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। यह बात हम अपने विवेक से कह रहे हैं। इसी कारण बहुत से लोग मत-मतान्तरों के प्रति उदासीन, निष्क्रिय या नास्तिक हो जाते हैं। नास्तिक मनुष्यों का होना ही यह सिद्ध करता है कि आस्तिक लोग उन्हें ईश्वर व आत्मा के विषय में सन्तुष्ट नहीं कर सके। वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका से ऐसी सभी प्रश्नों के तर्क व यथार्थ उत्तर मिल जाते हैं। जिस प्रकार आजकल वैज्ञानिक होते हैं उसी प्रकार प्राचीन काल में हमारे ऋषि हुआ करते थे। वह ऋषि वेद व किसी अन्य ग्रन्थ की बात को आजकल के मत-मतान्तर के आचार्यों की भांति आंखे बन्द करके स्वीकार नहीं कर लेते थे अपितु उसकी सिद्ध तर्क व प्रमाणों से करते थे। जो मनुष्य तर्क से शून्य होकर किसी ग्रन्थ को पढ़ता है, उसे अध्ययन नहीं कहते। अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि वह उस विषय पर अधिक से अधिक प्रश्न करे और उसके अध्ययन में उन सभी प्रश्नों का उसे सन्तोषजनक समाधान मिलना चाहिये। यही कारण है कि प्राचीन काल में भारत ज्ञान व विज्ञान में विश्व में उन्नत देश था तथा विश्व के सभी देशों के लोग यहां चरित्र और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा लेने आते थे तथा हमारे देश के ऋषि, राजपुरुष व विद्वान आदि भी दूसरे देशों में जाया करते थे। यह तभी सम्भव हुआ था जबकि उस समय के लोग वेदों व विज्ञान आदि इतर ग्रन्थों के अध्ययन में समय दिया करते थे। इसी कारण से ऋषियों ने सामाजिक नियम बनाया था कि शिक्षा सबके अनिवार्य व निःशुल्क होगी। शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद भी लोग गृहस्थ आदि जीवन में वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय किया करते थे। यह भी उल्लेखनीय है कि प्राचीन काल से हमारे गुरुकुलों के आचार्य अन्तेवासी अपने शिष्य और शिष्याओं को उपदेश करते थे ‘स्वाध्यायान्मा प्रमदः’ अर्थात् तुमने जीवन भर सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना है। स्वाध्याय में कभी प्रमाद व आलस्य नहीं करना है। स्वाध्याय में यह शक्ति है कि मनुष्य स्वाध्याय की प्रवृत्ति से सभी सांसारिक कार्यों को करता हुआ भी वेद आदि समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ईश्वर व आत्मा आदि विषयों का विशेयज्ञ बन सकता है। प्राचीन काल में सभी ऋषि-मुनि व उनके आश्रमवासी लोग ईश्वर, जीव, सृष्टि व अन्य सभी विषयों का उच्च स्तर का ज्ञान रखने वाले हुआ करते थे।
हम व अन्य सभी आज जो कुछ भी जानते हैं वह अध्यापकों व विद्वानों के उपदेश व प्रवचनों को सुनकर व उसके बाद उन विषयों की पुस्तकों का अध्ययन कर व उन्हें स्मरण कर ही जानते हैं। यदि हम धनोपार्जन में सहायक सांसारिक विषयों का अध्ययन करते हुए निजी जीवन में वेद और वैदिक साहित्य का भी अध्ययन करेंगे तो हम ऋषि-मुनि न सही, आध्यात्मिक व वैदिक विषयों के अच्छे ज्ञानी तो बन ही सकते हैं। हमारा तो यह भी अनुभव व विश्वास है कि केवल सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर ही मनुष्य इस स्तर का ज्ञानी बन सकता है कि उसके समान अन्य किसी मत-मतान्तर का अनुयायी व आचार्य भी उतना ज्ञान नहीं रख सकता। हमारी दृष्टि में सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद, दर्शन, आयुर्वेद व वेद आदि पढ़ा हुआ मनुष्य इतना ज्ञानी होता है कि अन्य मत के लोग उससे आध्यात्मिक विषयों में चर्चा व तर्क आदि नहीं कर सकते। अतः हमें अपनी आत्मा व जीवन को सुख व आनन्द से युक्त करने के लिए अन्य स्कूली ग्रन्थों को पढ़ने के साथ अपने निजी समय में वेद आदि सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय भी अवश्य ही करना चाहिये। हम इस अवसर पर ऋषि दयानन्द को भी स्मरण करना चाहते हैं कि जिन्होंने वेदों का उद्धार केवल उनकी विलुप्त व अप्राप्य हस्तलिखित प्रतियों को प्राप्त कर व उनका प्रकाशन कराकर ही नहीं किया अपितु उन्होंने वेदों के मंत्रों के यथार्थ अर्थ करने की पद्धति व शैली भी हमें प्रदान की और इसके साथ ही उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम समय तक वेद भाष्य का कार्य कर हमें ऋग्वेद भाष्य (आंशिक) और यजुर्वेद भाष्य पूर्ण संस्कृत व हिन्दी भाषा में प्रदान किया है। स्वामी दयानन्द जी की ऐसी कृपा है कि आज देवनागरी अक्षरों का ज्ञान हो जाने पर कोई भी साधारण अल्प शिक्षित मनुष्य वेदमन्त्रों का उच्चारण कर सकता है और उनके अर्थों को भी जान सकता है। वेदों के जानकार ऐसे लोग आर्यसमाज में बड़ी संख्या में मिलते हैं। महर्षि दयानन्द ने हमें वेदों पर आधारित प्रमुख ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि भी प्रदान किये हैं। जिन लोगों ने इन्हें पढ़ा है और इसके अनुसार आचरण किया है, उनका जीवन धन्य व सफल है।
स्वाध्याय से प्रायः सभी प्रकार का ज्ञान व सिद्धियां प्राप्त की जा सकती है। स्वाध्याय को कम नहीं आंकना चाहिये। हमने जो यह लेख लिखा व अन्य लिखते हैं उसमें सबसे बड़ा योगदान हमारा स्वाध्याय ही है। हर लेखक अपनी सभी पुस्तकों को अपने स्वाध्याय व अध्ययन के आधार पर ही लिखता है और पुस्तक व लेखक की प्रसिद्ध होने पर उसे यश भी प्राप्त होता है। अतः किसी भी मनुष्य को स्वाध्याय से विरत कदापि नहीं होना चाहिये। ऋषियों की आज्ञा ‘स्वाध्यायान्मा प्रमदः’ को एक व्रत के समान पालन करना चाहिये और स्वाध्याय से जो ज्ञान प्राप्त हो उसके प्रचार के लिए भी हर सम्भव प्रयास करने चाहिये तभी हमारा धर्म व संस्कृति बच सकती है।

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