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“ईश्वर की समस्त रचनाओं में मनुष्य उसकी सर्वोत्तम कृति है”

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16 Apr 18
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ईश्वर ने इस संसार अथवा ब्रह्माण्ड की रचना की है। इस ब्रह्माण्ड में असंख्य सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, नक्षत्र, आकाश-गंगायें, निहारिकायें, सौर्य परिवार व इसमें अनेकानेक ग्रह उपग्रह आदि हैं। यह सभी रचनायें इस सृष्टि की अपौरूषेय उत्तोत्तम कृतियां हैं। सूर्य में प्रकाश व ताप अद्भुद है। चन्द्रमा का सौम्य गुण व शीतल प्रकाश भी अत्युत्तम है। पृथिवी पर परमात्मा ने अग्नि, वायु, जल, अन्न, औषधि, वनस्पति, पशु, पक्षी व अनेक प्रकार के जलचर, थलचर व नभचर बनायें हैं। इन सब रचनाओं में परमात्मा की एक रचना मनुष्य भी है। मनुष्य परमात्मा की सर्वोत्तम रचना है। परमात्मा की अन्य सभी रचनाओं में मनुष्य को श्रेष्ठ व ज्येष्ठ रचना कह सकते हैं। हम भाग्यशाली हैं कि परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है। हम मनुष्य जीवन का महत्व व विशेषताओं से पूर्णतः परिचित नहीं है। यदि होते तो अपने भाग्य पर इतराते न कि कभी निराशा की बातें करते। मनुष्यों में दो जातियां हैं एक स्त्री व दूसरी पुरुष। स्त्री व पुरुष के शरीर की रचना में बहुत सी समानतायें एवं कुछ थोड़ी भिन्नतायें भी हैं। हम सब इनसे परिचित हैं।
आंखे देखने के लिए बनाई हैं जिससे हम पास की व दूर की वस्तुएं व रचनायें देख सकते हैं। सूर्य, चन्द्र व तारे हमारी पृथिवी से लाखों व करोड़ो मील की दूरी पर हैं फिर भी हमारी यह छोटी सी आंखे उन्हें देख सकती हैं और ईश्वर की महानता का दर्शन कर सकती है। प्रत्येक रचना अपने रचयिता का प्रमाण होती है। सृष्टि है तो सृष्टिकर्ता भी अवश्य है। सन्तान है तो उसके माता-पिता भी अवश्य ही होते हैं क्योंकि सन्तान का जन्म माता-पिता के द्वारा ही होता है। इसी प्रकार से रचना विशेष के गुणों से विभूषित यह सृष्टि अपने रचयिता ईश्वर का स्वयंसिद्ध प्रमाण है। खेद है कि अज्ञानी, दुर्बुद्धि, अविवेकी, नास्तिक, हठी व दुराग्रही लोगों को ईश्वर के दर्शन नहीं होते। हम कहते हैं कि हमारे शरीर में आत्मा है। सभी लोग आत्मा के अस्तित्व को मानते हैं। क्या किसी ने कभी आत्मा को देखा है? किसी ने नहीं देखा परन्तु जीवित शरीर के दर्शन को ही सब आत्मा का होना स्वीकार करते हैं। हमारा शरीर हमसे भिन्न है। शरीर जड़ है और आत्मा चेतन तत्व है। जड़ शरीर की रचना व शरीर की भाव-भंगिमाओं तथा उसके बुद्धिपूर्वक क्रियाकलापों से जीवात्मा का अस्तित्व सभी स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार से यह संसार जिए अदृश्य सत्ता ने बनाया और जिससे यह संसार चल रहा है, वह परमेश्वर है। यह संसार ही ईश्वर का प्रत्यक्ष प्रमाण है। जिसे ईश्वर के अस्तित्व में शंका हो उसे सत्यार्थप्रकाश व दर्शन ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इनके ग्रन्थों के अध्ययन से ईश्वर के अस्तित्व का होना सिद्ध हो जाता है। इसमें गुण व गुणी का सिद्धान्त भी कार्य करता है। गुण गुणी के आश्रय से ही रहते हैं। गुणों का ही मनुष्य प्रत्यक्ष करते है, गुणी का नहीं। यदि मुझमें बोलने, सुनने, देखने व सूंघने का गुण है तो इसका गुणी कोई अवश्य है? वह आत्मा है। इसी से ही आत्मा की सिद्धि होती है। इसी प्रकार संसार में रचना विशेष व उनके गुणों को देखकर उन गुणों के दाता, उत्पत्तिकर्ता व आधार ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है।
मनुष्य भी ईश्वर की ही कृति है। माता-पिता सन्तान को जन्म देते हैं परन्तु वह उसे बनाने का ज्ञान नहीं रखते। किसी माता व पिता से यदि पूछा जाये कि माता का गर्भस्थ शिशु बालक है या बालिका तो वह उसे बता नहीं सकते। चिकित्साशास्त्र भी बिना परीक्षण व मशीनी जांच के भू्रण के लिंग को बता नहीं सकता। इससे यह सिद्ध होता है कि माता-पिता जन्मदाता तो होते हैं परन्तु अपनी सन्तान पुत्री व पुत्र के शरीरों के निर्माता नहीं होते। शरीर जड़ होता है। उसमें एक चेतन आत्मा होता है जो स्वयंभू अर्थात् अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी, जन्ममरणधर्मा, कर्म को करने वाला तथा उन शुभाशुभ कर्मों के फलों का भोक्ता होता है। ईश्वर माता के गर्भ में मनुष्य के शरीर की रचना करता है व उसमें अनादि काल से अस्तित्ववान जीवात्मा को शरीर से संयुक्त करता है। मनुष्य होना ही मनुष्य का सर्वोत्तम होना नहीं होता। मनुष्य के पास बुद्धि होती है जिससे वह किसी भी पदार्थ के गुणों, सत्यासत्य व अनेक पक्षों की विवेचना कर निर्णय करता है। शास्त्र कहते हैं कि ‘बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति’ अर्थात् बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है। बुद्धि का प्रयोजन व विषय ज्ञान प्राप्ति है जिससे मनुष्य समस्त संसार को उसके यथार्थ रूप में जान पाता है। संसार में असंख्य चेतन प्राणी हैं परन्तु वह सब बुद्धि न होने से ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते और इस कारण उन्हें इस संसार के यथार्थ रहस्यों का पता नहीं होता। संसार के यथार्थ रहस्य का पता मनुष्य अपनी बुद्धि की सहायता से ही कर पाता है। वह ऐसे ऐसे कार्य करता है जिसे अन्य प्राणी नहीं कर पाते।
मनुष्य ने वेद की सहायता से अपनी बुद्धि का विकास कर नाना प्रकार के वैज्ञानिक उपकरण बना लिये हैं जिससे वह अपने व अन्यों के सुखों का सम्पादन करता है। मनुष्य अनेक प्रकार के अन्न, ओषधि व वनस्पतियों को उत्पन्न करता है। उसने वस्त्र, आवास, अनेक प्रकार के रथ व वाहन, लेखनी, कागज, वायुयान, रेलगाड़ी, कमप्यूटर व सहस्रों वस्तुओं का निर्माण किया है। यह कार्य कोई सामान्य बात नहीं है। विचार करें तो मनुष्य ने जो विद्युत आदि उपयोगी पदार्थ बनायें हैं उनकी सूची एक पुस्तक का रूप ले सकती है। मनुष्य के भीतर इन सब पदार्थों की खोज व उनके निर्माण की सामर्थ्य होने के कारण ही मनुष्य को ईश्वर की सर्वोत्तम कृति कहा जाता है। यह भी बता दें कि मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो सभी वाच्य अक्षर व वर्णों की घ्वनियों का उच्चारण कर सकता है। उसके पास ईश्वर प्रदत्त वैदिक संस्कृत भाषा वाणी व वाक् व्यवहार के रूप में विद्यमान है। उसने ईश्वर प्रदत्त सामर्थ्य से अनायास ही अनेक भाषाओं को भी जन्म दिया है। मनुष्य भाषा बोलकर अपने अभिप्राय को परस्पर एक दूसरे को बता सकते हैं व दूसरे के विचारों व ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। यह विशेषता हम मनुष्येतर प्राणियों में नहीं देखते। मनुष्य के पास दो हाथ हैं। जिनसे वह अनेकानेक ऐसे काम कर सकते हैं जो कि अन्य प्राणी नहीं कर सकते। विचार करें तो ऐसी एक लम्बी सूची बन सकती है। गणित के शून्य से नौ तक के अंक व उनसे जो गणनायें की जाती हैं वह भी केवल मनुष्य के द्वारा होना ही सम्भव है। अतः मनुष्य सर्वोत्तम प्राणी ही नहीं ईश्वर की सर्वोत्तम कृति सिद्ध होता है।
परमात्मा ने मनुष्य को बनाया और उसे एक ऐसी अनमोल वस्तु दी जो उसने संसार के अन्य प्राणियों को नहीं दी। यह वस्तु है वेद ज्ञान। वेद में सब सत्य विद्यायें है। यह वेदज्ञाता व वेदमर्मज्ञ ऋषियों का कथन है। वेदों पर जो आर्ष भाष्य उपलब्ध हैं उनका अध्ययन करने, दर्शन व उपनिषदों एवं इतर आर्ष साहित्य का अध्ययन करने से ऋषियों की यह मान्यता सत्य सिद्ध होती है। स्वामी दयानन्द जी की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी वेदों को सब सत्य विद्याओं का ग्रन्थ सिद्ध किया गया है। इस दृष्टि से भी मनुष्य ईश्वर का आभारी व ऋणी है। विद्या व विवेक से यह बात कही जा सकती है संसार के सभी ग्रन्थों व धर्म एवं मत की पुस्तकों में वेदज्ञान सर्वोत्तम ज्ञान है। उसके बाद दर्शन व उपनिषद आदि ग्रन्थ आते हैं और सत्यार्थप्रकाश भी वैदिक साहित्य का प्रमुख ग्रन्थ है। यह सब ग्रन्थ मनुष्य को यथार्थ ज्ञान विद्या प्राप्त करने में प्रमुख साधन हैं। अन्य ऋषिकृत ग्रन्थ धार्मिक, सामाजिक व इतर ग्रन्थ इन ग्रन्थों के बाद आते हैं जिनसे हम भिन्न भिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
मनुष्यों के कर्तव्यों की चर्चा भी संक्षिप्त रूप में कर लेते हैं। परमात्मा ने मनुष्यों को बनाया और मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति, सुख व कल्याण के लिए इस सृष्टि की भी रचना की है। अतः मनुष्य परमात्मा का ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए उसे प्रातः व सायं दो समय न्यून एक एक घंटा स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये। वेद एवं वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिये जिससे वह अविद्या से बचा रहे और ईश्वर से जुड़ा रहे। अपनी आत्मा को यथार्थ रूप में जाने व कभी आत्मा के ज्ञान के प्रति भ्रमित न हो। ऋषि दयानन्द ने सन्ध्योपासना की विधि लिखी है जो शास्त्रोक्त है और सर्वश्रेष्ठ है। इस विधि से नित्य प्रति सन्ध्या अर्थात् ईश्वर का ध्यान करने से मनुष्य के मनोरथ पूर्ण होने के साथ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष सिद्ध होते हैं। सबको सन्ध्या अवश्य करनी चाहिये।
परमात्मा ने इस सृष्टि व मनुष्यों एवं इतर प्राणियों को क्यों बनाया? इसका उत्तर वैदिक कर्म फल सिद्धान्त से मिलता है। संसार में तीन अनादि पदार्थ हैं ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति। ईश्वर एक है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप है। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, निराकार एवं सर्वान्तर्यामी है। जीवात्मा एक सूक्ष्म पदार्थ है। यह सत् व चेतन है। आनन्द की प्राप्ति के लिए इसे ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करना होता है। इस क्रिया को भली प्रकार से करने को ही सन्ध्या करते हैं। जीवात्मा अनन्त हैं। जीवात्मा एकदेशी, ससीम, अनुत्पन्न, अनादि, अमर, अविनाशी होने सहित जन्म व मरणधर्मा है। मनुष्य जीवन में जीवात्मा जो शुभ व अशुभ कर्म करता है उसके फल इसे भोगने होते हैं। कुछ इस जन्म में व कुछ अगले जन्म में। अगले जन्म में कर्मानुसार इसका योनि परिवर्तन भी हो सकता है। संसार में जितनी मनुष्येतर योनियां है, उनमें जो जीवात्मायें हैं वह पहले मनुष्य रही हैं। अशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए ही उन्हें पशु व अन्य निम्न योनियों में परमात्मा भेजता है। भोग समाप्त हो जाने पर जीवात्मा का पुनः मनुष्य योनि में जन्म होता है। यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है। रात्रि के बाद दिन और दिन के बाद रात्रि के समान सृष्टि की प्रलय और प्रलय के बाद सृष्टि की उत्पत्ति व प्रादुर्भाव, यह क्रम चलता रहता है। पूर्व कल्प में जो प्रलय हुई थी, उस समय जीवों के जो पाप पुण्य थे, उन जीवात्माओं के कर्मानुसार उन्हें सुख व दुःखरूपी फल देने के लिए परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया है। भविष्य में इस सृष्टि की प्रलय होगी और प्रलय काल की समाप्ति के बाद परमात्मा पुनः मूल प्रकृति से नई सृष्टि को बनायेंगे। सृष्टि बनने पर भी परमात्मा जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म व सुख-दुःख प्रदान करते हैं। यही वैदिक कर्म फल सिद्धान्त व सृष्टि की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय का सिद्धान्त है।
मनुष्य परमात्मा की सर्वोत्तम कृति है। हमने संक्षेप में इस विषय की चर्चा की है। इस तथ्य को जान लेने पर मनुष्य को ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्यों का विचार करना चाहिये और सत्यार्थप्रकाश आदि ऋषि साहित्य पढ़कर उससे उत्पन्न विवेक से ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना वा सन्ध्या आदि सभी कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिये। ओ३म् शम्।
मनमोहन कुमार आर्य

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