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‘ईश्वर एक है व अनेक’

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11 Jul 17
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।इस संसार को बनाने, पालन करने वाले व अवधि पूरी होने पर इस संसार की प्रलय करने वाली सत्ता को ईश्वर कहते हैं। सभी मत-मतान्तरों के अपने अपने ईश्वर व इष्ट देव हैं। सबके ईश्वर व इष्ट-देवों के स्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव तथा शिक्षाओं में भी समानतायें व कुछ-कुछ अन्तर पाया जाता है। अतः वह यदि ईश्वर को एक कहं तो फिर प्रश्न यह होगा कि सभी मत-मतान्तरों के ईश्वरों में से सत्यस्वरूप वाला ईश्वर कौन सा है और उसके मुख्य गुण, कर्म व स्वभाव तथा शिक्षायें क्या हैं? हिन्दुओं का ईश्वर साकार व निराकार दोनों प्रकार का स्वीकार किया जाता है। वह अवतार भी लेता है और मानव सुलभ क्रीड़ायें व लीलायें भी करता है। मनुष्यों की भांति ही वह माता-पिता से उत्पन्न होता है और उसी प्रकार से उसकी मृत्यु भी होती है। हमारे पौराणिक सनातन धर्मी बन्धुओं में शिव, विष्णु, ब्रह्मा, देवी, राम, कृष्ण आदि को ईश्वर माना जाता है। इनमें से अनेक ईश्वरों के नाम पर तो विगत 500 से 2000 वर्षों में पुराण आदि ग्रन्थ भी बनाये गये हैं। इन सभी ग्रन्थों में प्रायः अपने अपने देवता वा ईश्वर की स्तुति व प्रशंसा है, महिमागान है व दूसरों की आलोचना व निन्दा है। ऐसा होना पक्षपात का उदाहरण है। निष्पक्ष ग्रन्थों में तो अपनी अपनी बात सप्रमाण कही जाती है, उसे युक्ति, तर्क, सृष्टिक्रम के अनुकूल व अन्य प्रमाणों से सिद्ध किया जाता है और ऐसा ही अन्य झूठे सिद्धान्तों व मान्यताओं की परीक्षा कर सप्रमाण उनका खण्डन व मण्डन किया जाता है। परन्तु हमारे किसी भी धार्मिक समुदाय के ग्रन्थों में इस आवश्यक सिद्धान्त का पालन नहीं किया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जिसने भी इन ग्रन्थों की रचना की है वह सत्य व ऐतिहासिक प्रमाणों से शून्य थे तथा अपना मत चलाने व चल रहे मतों के समर्थन में उन्होंने इन ग्रन्थों की रचना की है।

भारत में पौराणिक मतों की जहां यह स्थिति है वहीं अन्य बौद्ध व जैन मतों के ग्रन्थों की भी यही स्थिति है। स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिख कर इसके बारहवें समुल्लास में इन मतों की मान्यताओं को अपने ग्रन्थ में प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा की है और एक, दो नही अपितु अधिकांश इस प्रकार की मान्यताओं को नमूने के रूप में लेकर उनकी सत्यता की परीक्षा कर अधिकांश को सत्यता से रहित सिद्ध किया है। यही स्थिति भारत से बाहर उत्पन्न ईसाई व इस्लाम मतों की भी है। इनका उल्लेख भी स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में किया है। इन पर दो पृथक पृथक समुल्लास लिखे हैं और उनकी सृष्टिक्रम के विरुद्ध व बुद्धि की कसौटी पर खरा न उतरने के साथ तर्क व इतर प्रमाणों से उन्हें असत्य वा अ व्यवहारिक सिद्ध किया है। संसार व भारत प्रचलित ऐसे मत लगभग एक हजार व इसके आसपास हैं और सभी की यही स्थिति है। इन सबकी यथार्थ स्थिति सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ पढ़कर ही जानी जाती या पता चलती है। अतः सत्य के पिपासुओं को इस ग्रन्थ का अध्ययन अवश्य ही करना चाहिये। जो मनुष्य सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन नहीं करते, हमारा चिन्तन यह बताता है, कि वह सत्य को प्राप्त नहीं हो सकते। स्वामी जी को अपने अपूर्व तप व पुरुषार्थ के कारण ईश्वर की ओर से विशेष प्रतिभा व शक्तियां प्राप्त थीं। प्रत्येक मनुष्य का यह सामर्थ्य नहीं है कि वह उनकी तरह से सभी मतों का अध्ययन कर सत्य का निर्धारण कर सके और स्वयं व दूसरों से उनको स्वीकार करा सके। अतः सत्यार्थप्रकाश सत्य व असत्य मत का निर्धारण करने वाला संसार का एकमात्र प्रमुख ग्रन्थ है।

ईश्वर के विषय में बाइबिल व कुरान ग्रन्थों में भी जो प्रकाश डाला गया है उसमें कुछ समानतायें व कुछ भिन्नतायें हैं। भिन्नता होने का अर्थ है कि दोनों एक न होकर अलग-अलग हैं। संसार में कुछ लोग नास्तिक मत को मानने वाले हैं। उन्हें वागमार्गी कह सकते हैं। वह ईश्वर के अस्तित्व को मानते ही नहीं हैं। इसका एक कारण ईश्वर के अस्तित्व में संसार के लोगों का एक मत न होना है। इसके लिए देखा जाये तो संसार के आस्तिक मत ही उत्तरदायी हैं जिन्होंने अपने अपने ईश्वर को सत्य की कसौटी पर कसा नहीं है और आस्तिक अन्य मतों से सहमति उत्पन्न नहीं की है। इसका अन्य कारण यह है कि यह सभी मत महाभारत युद्ध के बाद आज से पिछले पांच हजार वर्षों के अन्दर ही उत्पन्न व प्रचलित हुए हैं। इससे पूर्व आज के किसी मत-मतान्तर का अस्तित्व नहीं था। तब इन सभी मतों के पूर्वज एक जिस मत व धर्म का पालन करते थे, उसका नाम था ‘‘वैदिक मत वा धर्म”। वैदिक मत मंण ईश्वर के जिस स्वरूप का वर्णन है वह सत्य, तर्क, बुद्धि की कसौटी पर खरा है और साथ ही वेद व ऋषियों के प्राचीन साहित्य से भी उसकी पुष्टि होती है। कहना न होगा कि सभी ऋषि व योगी संसार में विद्यमान सभी सत्य विषयों के खोजी विद्वान व वैज्ञानिक थे। वेदों के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता, जीवों के सभी कर्मों का साक्षी, उनका फलप्रदाता, जन्म व मृत्यु का आधार व दाता, सत्कर्मों का प्रेरक, विद्या, स्वास्थय, बल, सुख व आनन्द का देनेहारा, वेदमार्गियों को मुक्तिप्रदाता आदि गुणों व स्वरूप वाला है। वही संसार के प्रत्येक व सभी मनुष्यों द्वारा स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने योग्य है। वही हमारा आचार्य, गुरु, राजा और न्यायाधीश है। सभी लोगों को मिलकर सन्तानों द्वारा माता-पिता व आचार्यों के समान उसकी भक्ति वा उपासना करनी चाहिये।

यदि निष्पक्ष और विवेक बुद्धि से विचार करें तो संसार में ईश्वर एक ही है। ईश्वर के मत-मतान्तरों में जो अन्य-अन्य नाम हैं वह या तो उनकी भाषाओं में गुणवाचक, कर्मवाचक व स्वभाववचाक अथवा रूढ़िवादी हैं या फिर मत-मतान्तरों ने अपनी अविद्या के कारण अपनी अपनी भाषाओं में उन्हें रखा है। यदि ब्रह्माण्ड वा संसार में ईश्वर एक से अधिक होते तो आपस में लड़ते झगड़ते जिससे संसार में कब का प्रलय हो गया होता। ऐसा न होना ही इस बात को बताता है कि ईश्वर समस्त अनन्त ब्रह्माण्ड में एक ही है। वही विश्व के सभी मत-मतान्तरों व समुदायों के मनुष्यों, आचार्यों, विद्वानों व सभी प्राणियों का जन्मदाता व फल प्रदाता है। उसकी व्यवस्था सबके लिए एक समान है और वह वही है जो वेदों में है या फिर जिसका ऋषियों ने अपने अपने अनेक वेदानुकूल ग्रन्थों में विधान किया है। इसी कारण महर्षि दयानन्द का यह प्रयास था कि सभी मतों एक एकत्र कर उनसे सत्य वैदिक मत व सिद्धान्तों पर सहमति बनाकर संसार में एक वैदिक मत की प्रवृत्ति की जाये जैसा कि महाभारत काल व उससे पृर्व सृष्टि काल के 1.96 अरब वर्षों से होता आ रहा था। इसके मार्ग में जो बाधायें हैं वह मत-मतान्तरों की अविद्या व उनके आचार्यों के अपने अपने स्वार्थ हैं। जिस दिन यह समाप्त हो जायेंगे, संसार में सभी मत-मतान्तर एक सत्य मत के अन्तर्गत आ सकते हैं। जब तक अविद्या आदि दोष बने रहेंगे, सभी मत भी बने रहेंगे और इनकी संख्या में वृद्धि होती रहेगी जिसका परिणाम लोगों में भय, भ्रम व दुःखों का बना होना रहेगा।

महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना संसार में अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करने के लिए ही की थी जिससे सभी मत-मतान्तर एक सत्य मत में समाहित व समाविष्ट हो जायें। पिछले अनेक दशकों से अनेक कारणों से आर्यसमाज शिथिल हो गया है। आर्यसमाज की वर्तमान जो स्थिति है, उससे उसके कर्तव्यों के वहन की आशा नहीं है। आज यह स्वयं अन्य मतों की तरह से एक मत सा बन गया है। उसके अनुयायियों में भी जन्मना जातिवाद आदि अनेक वेद विरुद्ध परम्परायें पाई जाती हैं जैसी की पौराणिकों में विद्यमान हैं। जब तक आर्यसमाज से मत व पदों को लेकर स्वार्थ की प्रवृत्ति नष्ट व समाप्त नहीं होगी, यह स्थिति बनी रहेगी। ईश्वर करे कि आर्यसमाज के नेता व विद्वान लोकैषणा, वित्तैषणा व पुत्रैषणा पर विजय पाकर ऋषि दयानन्द की तरह से आर्यसमाज व वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार में एकनिष्ठ होकर लग जायें। ऐसा होने पर ही सत्य व विद्या का प्रचार अवलम्बित है। लेख का निष्कर्ष है कि संसार में ईश्वर केवल एक है और शिक्षायें भी सबके लिए एक समान हैं। इसलिये उसकी उपासना व उसकी शिओं का आचरण ही सब मनुष्यों का समान रूप से आचरणीय एक धर्म है। ओ३म् शम्।

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