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‘संसार के सभी मनुष्य वा प्राणी ईश्वर की सन्तान’

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16 Feb 17
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ससार में तीन अनादि सत्तायें हैं जिनके नाम हैं ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, अनादि, अजन्मा, नित्य, अविनाशी व अमर है। यह सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सृष्टिकर्ता है। सभी मनुष्यों व जीवात्माओं का एकमात्र उपासनीय ईश्वर ही हैं। माता, पिता व आचार्य भी उपासनीय हैं व हो सकते हैं परन्तु ईश्वर के समान नहीं। ईश्वर से हमें ज्ञान, बल व ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है। वह हमें हर क्षण प्ररेणा करके बुरे कामों से दूर रहने व सदकर्मों को करने की शिक्षा देता है। हमारा शरीर हमें उसी का दिया हुआ है और हमारे पास जो ज्ञान व बल आदि शक्तियों हैं वह सब उसी की देन है जिसके लिए सभी मनुष्य व पशु, पक्षी आदि प्राणी उसके ऋणी है। एक प्रश्न उठता है कि ईश्वर ने किसी को सुन्दर तो किसी को असुन्दर, किसी को बलवान तो किसी को दुर्बल, किसी को ऐश्वर्यशाली तो किसी को निर्धन, किसी को पुरुष और किसी को स्त्री तथा किन्हीं को पशु, पक्षी, जलचर, नभचर वा विभिन्न प्रकार के थलचर क्यों बनाया है? इसका उत्तर है कि ईश्वर ने जीवात्माओं को उनके पूर्व जन्म के कर्मानुसार शरीर प्रदान किये हैं जिससे वह पूर्व जन्मों के पाप व पुण्य कर्मों का फल भोग सके। जैसे जैसे उनके पाप कम होते जाते हैं और पुण्य बढ़ते जाते हैं, उनकी उन्नति होती जाती है। योग दर्शन के ऋषि पतंजलि कहते हैं कि हमारे इस जन्म तक के पाप-पुण्य कर्मों के आधार पर ही हमें आगामी जीवन में आयु, मनुष्य-पशु आदि जाति और सुख-दुःख रूपी भोग प्राप्त होते हैं। विचार करने पर यह सिद्धान्त पूरी तरह सत्य व युक्ति संगत लगता है। संसार में यह सर्वत्र घट रहा है अतः इसकी पुष्टि स्वतः हो रही है। खेद हैं कि संसार के बुद्धि जीवी कहे जाने वाले लोग भी इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते।
परमात्मा ने मनुष्यों को एक सबसे विशेष चीज ‘‘वेद” ज्ञान दी है जिसमें उसके सभी कर्तव्यों का ज्ञान दिया गया है। इस ज्ञान को जान व समझ कर तथा इसके अनुरूप आचरण करने से मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को सिद्ध व प्राप्त करता है। इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए व जीवात्माओं को सुख देने के लिए ही ईश्वर ने यह सृष्टि रची है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह प्रातः सायं वेद की रीति से ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए सन्ध्या व अग्निहोत्र यज्ञों का पालन करें। यह दोनों कार्य सर्वाधिक पुण्यकारी हैं। इसे करने से ईश्वर प्रसन्न होता है और हमें उसका आशीर्वाद मिलता है जैसा कि संसार में पुत्र द्वारा पिता की आज्ञा पालन करने पर वह प्रसन्न होकर अपनी सन्तानों को आशीर्वाद और अपनी सुख सम्पदा से सम्पन्न किया करता है।
महर्षि दयानन्द ने वेदों को सरल करके समझाने का प्रयास किया। उन्होंने समस्त वैदिक मान्यताओं को सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों में प्रस्तुत कर हमारा कार्य बहुत ही सरल कर दिया है। हम सभी को इन सभी ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये और इसका आचरण भी करना चाहिये। यही हम सबका कर्तव्य है। वेद एवं सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से हम अपना सर्वांगीण कल्याण कर सकते हैं। इससे हमें उन्नति की प्रेरणा मिलती है और दिन प्रतिदिन हमारी बुद्धि की उन्नति होकर हमारी अविद्या का क्षय होता है। आज इतना ही। ओ३म् शम्।
यह भी हमें जानना है कि ईश्वर इस संसार को बनाने व सभी जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म देने से सबका माता, पिता, आचार्य, गुरु, राजा और न्यायायधीश है। सभी जीवात्मायें उसकी सन्तानों के समान हैं। सबको ईश्वर को माता-पिता मानकर उसकी वेदाज्ञाओं का पालन करना ही धर्म वा कर्तव्य है।
-मनमोहन कुमार आर्य
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