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‘महर्षि दयानन्द का स्तवन’

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15 Feb 17
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ऋषि दयानन्द जी का जन्म दिवस हिन्दी तिथि के अनुसार फाल्गुन कृष्णा दशमी संवत् 1881 विक्रमी और अंग्रेजी तिथि के अनुसार शनिवार 12 फरवरी, सन् 1825 है। आज अंगे्रजी तिथि के अनुसार उनका 192 वां जन्म दिवस है। महर्षि दयानन्द का महत्व किस कारण है? इस प्रश्न का उत्तर है कि वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना के कारण उनका महत्व है। उनके समय में वैदिक धर्म विकृत होकर प्रायः मरणासन्न हो रहा था। धड़ाधड़ लोग ईसाई और मुसलमान बनाये जाते थे। हिन्दू जो स्वयं को वैदिक धर्मी कहते हैं, वह वेदों को छोड़कर और भूलकर पुराणों के अनुसार अज्ञानता व अन्धविश्वासों से भरा हुआ जीवन व्यतीत करते थे। अन्य मतों के लोग उनकी कितनी बुराई करें व उनके लोगों का धर्म छुड़ाकर अपने धर्म में सम्मिलित कर लें, इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। एक प्रकार से हिन्दू जाति जड़ व मृतवत् जाति बन गई थी। महाभारतकाल में वेद मतानुयायी आर्य ही सारी दुनिया में थे। न कोई बौद्ध था, न जैन, न यहूदी, पारसी, ईसाई और न मुसलमान और न सिख, सभी अपने आप को सगर्व वैदिक धर्मी व वैदिक मतानुसायी कहते व मानते थे। 5200 वर्ष पूर्व समय का चक्र चला, महाभारत का महायुद्ध हुआ जिसमें भीषण हानि हुई, विद्वान व योद्धा मारे गये, समाज कमजोर हुआ, वेदों का पठन पाठन बन्द व कमजोर हुआ, गुरुकुल प्रायः बन्द हो गये और इसके परिणामस्वरूप देश और संसार में अज्ञान फैल गया। इस अज्ञान ने समाज में अन्धविश्वासों व कुरीतियों को जन्म दिया जिन्हें पाखण्ड का पर्याय कह सकते हैं। जहां अविद्या होती हैं, वहां अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां व सामाजिक असमानता जैसी विकृतियां स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं। इसके कारण देश व समाज निरन्तर कमजोर होता गया और पहले बौद्ध व जैन नास्तिक मतों का आविर्भाव हुआ और कालान्तर में देश से बाहर यहूदी, पारसी, ईसाई व इस्लाम मत अस्तित्व में आये। यह अज्ञान बढ़ता ही गया और इस प्रकार ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी का आरम्भ हुआ और सन् 1825 की 12 फरवरी दिन शनिवार को गुजरात प्रान्त की मौरवी रियासत में टंकारा नाम कस्बे व गांव में पं. करषनजी तिवारी के घर बालक मूलशंकर का जन्म हुआ जो बाद में स्वामी दयानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए।

महर्षि दयानन्द का सर्वाधिक महत्व उनके वेदोद्धार एवं वेद प्रचार के कार्यों के कारण है। उनके अन्य सभी कार्य भी देश व समाज की दृष्टि से उत्तम व उपयोगी हैं। महर्षि दयानन्द को वेदों का तलस्पर्शी ज्ञान था। वह वेदों के ऐसे ज्ञानी, विद्वान व ऋषि थे जैसा महाभारतकाल के बाद अभी तक उत्पन्न नहीं हुआ। उन्होंने अपने पुरुषार्थ से मूल वेदों को प्राप्त किया। वेदों को सब सत्य विद्याओं की पुस्तक व ज्ञान घोषित किया। अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में सिद्ध किया कि वेद किसी मनुष्य व विद्वान के बनाये हुए नहीं अपितु सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक व सर्वज्ञ ईश्वर द्वारा चार ऋषियों को प्रदत्त ज्ञान है जो पूर्ण सत्य व निभ्र्रान्त हैं। मनुष्य को यदि सर्वांगीण उन्नति करनी है तो वह केवल वेदों के अध्ययन, उनके ज्ञान व उनकी शिक्षाओं को जीवन में धारण व पालन करने से ही हो सकती है। वेदाध्ययन से अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि होती है। अपने यथार्थ कर्तव्यों का बोध वेदों से ही होता है, मनुष्य सन्ध्या, उपासना, यज्ञ, अग्निहोत्र, माता-पिता व आचार्यों की सेवा, पूजा व सत्कार कर व अन्यान्य वैदिक मान्यताओं के अनुसार जीवन व्यतीत कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करता है। महर्षि दयानन्द ने सन् 1863 ई. में स्वामी विरजानन्द सरस्वती से मथुरा में विद्याध्ययन पूरा कर दीक्षा ली और संसार से अविद्या का नाश करने के लिए कार्य क्षेत्र में उतर पड़े। उन्होंने 16 नवम्बर, सन् 1869 को काशी में लगभग 30 व अधिक शीर्ष विद्वानों से लगभग पचास हजार लोगों की वहां के आनन्द बाग में उपस्थिति में मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ किया जिसमें मूर्तिपूजा शास्त्रविहित सिद्ध न होकर वेदादि शास्त्रों के विरुद्ध सिद्ध हुई। 10 अप्रैल, सन् 1875 को स्वामी जी ने मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज कोई मत व मतान्तर नहीं अपितु वेद प्रचार प्रसार का एक ‘भूतो न भविष्यति’ आन्दोलन है जिसका मुख्य उद्देश्य संसार से सभी प्रकार की अविद्या, अन्धविश्वास व सामाजिक विकृतियों को दूर कर वेदानुसार मनुष्य जीवन, समाज व देश का निर्माण करना है।

वेद प्रचार को प्रभावशाली रूप से करने के लिए महर्षि दयानन्द ने देश के अनेक भागों में जाकर उपदेश किये, विद्वानों व लोगों का शंका समाधान सहित विद्वानों से वार्तालाप किये और विधर्मियों व विपक्षियों से शास्त्रार्थ आदि किये। इन कार्यों को करने के साथ स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य आदि अनेक कालजयी ग्रन्थों की रचना की। यह ऐसे ग्रन्थ हैं जैसे महाभारत काल के बाद लिखे नहीं गये। यह अपने आप में एक सम्पूर्ण वैज्ञानिक सत्य से पोषित मानव मात्र ही नहीं अपितु प्राणी मात्र के धर्म ग्रन्थ हैं। इनका पालन कर कोई भी मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करने में सक्षम व समर्थ हो सकता है। इन ग्रन्थों में निहित सत्य ज्ञान से बढ़कर संसार में मनुष्य व उसकी जीवात्मा के लिए कुछ भी नहीं है। भारत का सर्वांगीण पतन मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना वर्णव्यवस्था, सामाजिक अन्याय व भेदभाव तथा नारियों व शूद्र वर्ण के बन्धुओं की शिक्षा के अधिकार पर रोक के कारण हुआ था। महर्षि दयानन्द ने इन सभी अवरोधों को दूर करने के लिए प्राणपण से कार्य किया व आंशिक रूप से सफल भी हुए। यदि संसार के लोगों ने निष्पक्ष भाव से ऋषि दयानन्द के विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों पर ध्यान दिया होता व उन्हें अपनाया होता तो संसार से अधिकांश व सभी समस्याओं का अन्त हो जाता। दुःख है कि अज्ञानता व स्वार्थ के कारण संसार के लोगों ने वैदिक मत की श्रेष्ठ बातों व विचारों को जानने व अपनाने का प्रयास ही नहीं किया जिससे हानि यह हुई कि संसार में सर्वत्र अशान्ति है, पशु-पक्षी दुःख पा रहे हैंे, मनुष्य अकाल मृत्यु का शिकार हो रहे हैं, संसार में सर्वत्र असाध्य रोगों की वृद्धि हो रही है, सामाजिक असमानता और गरीबी व अमीरी के बीच खाई बढ़ी है। आज भारत के उत्तर प्रदेश में ही कुछ गरीब परिवार व उनके छोटे छोटे बच्चे घास की रोटी खाने के लिए विवश हैं। मनुष्य का मन वर्तमान धर्म व संस्कृति ने कैसा बना दिया है कि पैसे वालों को इन पर दया ही नहीं आती और आज भी अमीरों व राजनीतिक दलों के खजाने केवल अपनी सुख-सुविधाओं के लिए होते हैं, गरीबों के दुःखों से शायद किसी को भी कोई सरोकार नहीं है। महर्षि दयानन्द के विचारों व वेद के सिद्धान्तों को क्रियान्वित रूप देने पर इन व ऐसी सभी समस्याओं का समाधान हो जाता। दुःख, महादुःख।

महर्षि दयानन्द के समय में देश अंग्रेजों का गुलाम था। देश की उन्नति के लिए इस गुलामी को उतार फेंकना था। अतः महर्षि दयानन्द ने जहां वैदिक धर्म का प्रचार किया वहीं उन्होंने देश के लोगों को स्वदेशी राज्य के महत्व को भी बताया। उन्होंने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में घोषणा की कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रह रहित, प्रजा पर माता, पिता के समान कृपा, न्याय, और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं हो सकता। इन पंक्तियों में महर्षि दयानन्द ने स्पष्ट रूप से अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत का सन्देश देकर अपूर्व साहस का परिचय दिया है। उन्होंने कहा कि स्वदेशी राज्य सर्वोपरि उत्तम होता है और विदेशी अर्थात् अंग्रेजों व अन्यों का राज्य कितना भी अच्छा हो स्वदेशी राज्य की तुलना में पूर्ण सुखदायक वा उन्नतिदायक नहीं हो सकता। यह साहस पूर्ण शब्द लिख कर महर्षि दयानन्द ने अंग्रेजों से बगावत कर दी थी। ऐसे उनके अनेक वचन और भी हैं जो उनके ग्रन्थों में यत्र तत्र विद्यमान हैं। सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में मूर्तिपूजा के प्रकरण में महर्षि ने लिखा है कि ‘जब संवत् 1916 (सन् 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के समय) के वर्ष में तोपों के मारे मन्दिर की मूर्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थी तब मूर्ति कहां गई थीं? प्रत्युत बाघेर (गुजरात के) लोगों ने जितनी वीरता की और लड़े, शत्रुओं (अंगरेजों) को मारा परन्तु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्री कृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके (अंगरेजों के) धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिस का रक्षक (मंदिर में पूजी जाने वाली मूर्ति) मार खाय उस के शरणागत (मूर्तिपूजक) क्यों न पीटे जायें?’ यहां भी महर्षि दयानन्द ने बगावत के स्वर प्रस्तुत किये हैं। यह भी बता दें कि जब महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में यह शब्द लिखे थे तब तक कांग्रेस की स्थापना नहीं हुई थी। कांग्रेस की स्थापना सन् 1885 में हुई, इसके संस्थापक भी विदेशी थे और उनका उद्देश्य भी देश को आजाद कराना नहीं था। आर्यसमाज से इतर कोई धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक संगठन नहीं था जिसने आजादी की बात की हो। स्वामी जी को ही देश में सबसे पहले आजादी, स्वदेशी, स्वराज्य व सुराज्य की बात करने का श्रेय है और देश की आजादी का आन्दोलन उन्हीं के विचारों की देन कहा जा सकता है। यह भी बता दें कि आजादी के आन्दोलन में लगभग 80 प्रतिशत आर्यसमाजी विचारों व आर्यसमाज की विचारधारा से प्रभावित लोग थे। सरकारी विभागों की खुफिया रिर्पोटों में भी यह कहा गया कि जहां जहां आर्यसमाजें हैं वहीं वहीं अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत, अशान्ति या नदतमेज है। यह भी तथ्य है कि आजादी के अहिंसात्मक आन्दोलन के आद्य नेता गोपाल कृष्ण गोखले थे। गांधी जी उनके शिष्य माने जाते हैं। गोखले जी महादेव गोविन्द रानाडे के शिष्य थे और रानाडे महोदय महर्षि दयानन्द के साक्षात् शिष्य थे। उन्होंने ही स्वामी जी को पूना बुलाकर उनका आतिथ्य किया और वहां उपदेश कराये थे। इस प्रकार आजादी का अहिंसात्मक आन्दोलन भी ऋषि की शिक्षाओं व प्रेरणाओं से आरम्भ होकर महादेव रानाडे, गोखले जी, गांधी जी से होता हुआ, सरदार पटेल, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द जी आदि द्वारा विस्तार को प्राप्त हुआ। यदि गरम दल व क्रान्तिकारी नेताओं की बात करें तो क्रान्तिकारियों के आद्य गुरु पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा थे जो महर्षि दयानन्द के साक्षात शिष्य रहे। उन्हीं की प्रेरणा व सहयोग से पं. श्यायमजी कृष्ण वर्मा लन्दन गये थे और वहीं से वह क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करते थे। अंग्रेज विरोधी अपनी गतिविधियों के कारण ही उन्हें लन्दन छोड़ना पड़ा था और जेनेवा में उनकी मृत्यु हुई थी।

महर्षि दयानन्द का देश की उन्नति वा उत्थान में सर्वाधिक योगदान हैं। उन्होंने न केवल धार्मिक अन्धविश्वासों पर ही प्रहार किया अपितु देश को अज्ञान व अविद्या से निकालने के लिए ‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये’ जैसा क्रान्तिकारी सिद्धान्त भी दिया। इसे क्रियान्वित रूप उनके शिष्यों स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी और महात्मा हंसराज आदि ने दिया। अतीत में वैदिक धर्मी हिन्दुओं का लोभ व बल प्रयोग करके किया गया धर्मान्तरण और उसके दुष्प्रभावों से देश व समाज को बचाने के लिए ऋषि दयानन्द ने शुद्धि का मंत्र दिया था। पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द जी आदि अनेक आर्यनेताओं ने प्राणपण से शुद्धि का क्रियात्मक प्रचार किया और इसी कारण विधमिर्यों ने उन्हें शहीद भी किया। देशहित का ऐसा कोई कार्य नही है जो महर्षि दयानन्द जी ने न किया हो। उन्होंने देशवासियों की सोई हुई आत्माओं को जगाया था। उनका देश पर जो ऋण है, उसे कभी चुकाया नहीं जा सकता। जब तक यह संसार विद्यमान है, उनकी कीर्ति अक्षुण है। हम आज उनके जन्म दिवस पर उनको अपनी श्रद्धांजलि देते हैं। सनातन वैदिक धर्मी बन्धुओं से भी हम विनम्र निवेदन करना चाहते हैं कि यदि इतिहास में जीवित रहना चाहते हैं तो महर्षि दयानन्द के वैदिक सिद्धान्तों को सर्वांश में अपनायें अन्यथा यह जाति बची रहेगी, इसमें हमें संशय है। ‘धर्मो एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।’ (मनुस्मृति) जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। जो धर्म की रक्षा नहीं करता उसकी रक्षा धर्म भी नहीं करता अर्थात् धर्म द्वारा रक्षित न होने से वह बच नहीं सकता है। आज इसे जानने, समझने व इस पर आचरण की आवश्यकता है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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