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यथार्थ वर्णव्यवस्था और दलितोद्धार में महर्षि दयानन्द का योगदान

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16 Aug 16
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यथार्थ वर्णव्यवस्था और दलितोद्धार में महर्षि दयानन्द का योगदान मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।इतिहास में महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जन्मना वर्ण-जाति व्यवस्था से ग्रस्त भारतीयों को वैदिक वर्णव्यवस्था के यथार्थ स्वरुप, जो गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित था व होता है, से परिचित कराया। महर्षि दयानन्द के विचारों को ‘‘सत्यार्थप्रकाश” ग्रन्थ के चौथे समुल्लास को पढ़कर जाना जा सकता है।पहले व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जन्मना वर्ण-जाति व्यवस्था से ग्रस्त भारतीयों को वैदिक वर्णव्यवस्था के यथार्थ स्वरुप, जो गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित था व होता है, से परिचित कराया। महर्षि दयानन्द के विचारों को ‘‘सत्यार्थप्रकाश” ग्रन्थ के चौथे समुल्लास को पढ़कर जाना जा सकता है। ऋषि दयानन्द द्वारा वेदों की मान्यताओं वा शिक्षाओं के अनुसार गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था का यथार्थ स्वरुप विदित हो जाने पर समस्त देशवासी हिन्दुओं को उसे स्वीकार कर लेना चाहिये था परन्तु देश व समाज के हितकारी उनके विचारों पर ध्यान नहीं दिया गया और मध्यकाल व उसके कुछ समय बाद आरम्भ छुआछूत व ऊंच-नीच जैसी अनुचित मान्यताओं पर आधारित जन्मना जाति व्यवस्था को ही व्यवहार में मानते रहे व अब भी मान रहे हैं। देश व समाज को जन्मना जाति व्यवस्था के अभिशाप से मुक्त कराने विषयक ऋषि दयानन्द के दलितोद्धार के प्रेरक कार्यों व उदाहरणों को हम यहां कीर्तिशेष प्रवर शोध आर्य विद्वान प्रा. कुशलदेव शास्त्री जी के एक लेख के आधार पर प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे पाठक उनसे परिचित हो सकें।

वर्णव्यवस्था का उल्लेख कर प्रसिद्ध आर्य विद्वान डा. कुशलदेव शास्त्री ने लिखा है कि भिन्न-भिन्न क्षमताओं वाले व्यक्तियों को प्राचीन काल में ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार संज्ञाओं से संबोधित किया गया था। ब्राह्मण वर्ग से बौद्धिक नेतृत्व की अपेक्षा की गई थी। क्षत्रियों से सुरक्षा की कामना की गई थी। वैश्यों से व्यापार के माध्यम से समृद्धि की आशा की गई थी, तथा शूद्रों से शारीरिक श्रम द्वारा सेवा की अपेक्षा की गई थी। इसी का नाम वर्ण व्यवस्था था।
दलितोद्धार या जातिनिर्मूलन के प्रसंग में प्रायः यह प्रश्न उपस्थित होता रहा है कि वर्णव्यवस्था जन्मना है या कर्मणा। यदि उसे जन्मना माना जाय तो वह जातिगत भेदभाव को निर्माण करने का एक महत्तवपूर्ण कारण सिद्ध होती है। ऋषि दयानन्द कर्मणा वर्णव्यवस्था के पक्षधर हैं। उनकी यह धारणा थी कि जन्मना वर्णव्यवस्था तो पांच-सात पीढ़ियों से शुरु हुई है, अतः उसे पुरातन या सनातन नहीं कहा जा सकता। अपने तार्किक प्रमाणों द्वारा उन्होंने जन्मना वर्णव्यवस्था का सशक्त खंड़न किया है। उनकी दृष्टि में जन्म से सब मनुष्य समान हैं, जो जैसे कर्तव्य-कर्म करता है, वह वैसे वर्ण का अधिकारी होता है। कारण चाहे कुछ भी हो या न हो जन्मना वर्णव्यवस्था मानने वाले ऋषि दयानन्द के मत से असहमत हैं।

अस्पृश्य अछूत-दलित शब्द का विवेचन प्रस्तुत करते हुए डा. कुशलदेव शास्त्री लिखते हैं कि दलितोद्धार से पूर्व दलितों के लिए सार्वजनकि सामाजिक क्षेत्र में अस्पृश्य और अछूत शब्द प्रचलित थे, लेकिन जब समाज-सुधार के बाद समाज में यह धारणा बनने लगी कि कोई भी अस्पृश्य और अछूत नहीं है, तो धीरे-धीरे अस्पृश्य के स्थान पर दलित शब्द रुढ़ हो गया। स्वाभाविक रूप से अस्पृश्योद्धार वा अछूतोद्धार का स्थान भी दलितोद्धार ने ले लिया। मानसिक परिवर्तन ने पारिभाषिक संज्ञाओं को भी परिवर्तित कर दिया।

प्रदीर्घ समय तक सामाजिक, आर्थिक आदि दृष्टि से जिनका दलन किया गया, कालान्तर में उन्हें ही दलित कहा गया। पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति के अनुसार जब यह महसूस किया जाने लगा कि शुद्धि और दलितोद्धार दोनों चीजें एक सी नहीं हैं। दलितों की हीन दशा के लिए सवर्ण समझे जानेवाले लोग ही जिम्मेदार हैं, जिन्होंने जाति के करोड़ों व्यक्तियों को अछूत बना रखा है। उन्हें मानवता का अधिकार देना सवर्णों का कर्तव्य है। इस विचार को सामने रखकर आर्य समाज के कार्यकर्ताओं ने अछूतों के लिए दलित और अछूतों के उद्धार कार्य के लिए दलितोद्धार की संज्ञा दे दी। तभी से अछूतों की शुद्धि के संदर्भ में दलितोद्धार संज्ञा प्रचलित हो गयी। यह बात अविस्मरणीय है कि आर्य समाज के समाज सुधार आंदोलन ने ही दलित-आन्दोलन को दलित और दलितोद्धार जैसे सक्षम शब्द प्रदान किये हैं। सन् 1917 से 1924 के मध्य स्वामी श्रद्धानन्द जी दिल्ली को केंद्र बनाकर दलितोद्धार के कार्य में सर्वात्मना समर्पित थे। वे ही दलितोद्धार सभा के संस्थापक थे। उसी काल में दलित-दलितोद्धार जैसे अभिनव शब्द समाज-सुधार आंदोलन को आर्य समाज ने प्रदान किये। कालांतर में डा. आंबेडकर और उनके आंदोलन ने इन संज्ञाओं को स्वीकार कर इन्हें और भी अधिक रूढ़ बनाया।

हरिजन शब्द का विवेचन करते हुए डा. कुशलदेव शास्त्री लिखते हैं कि अस्पृश्योद्धार आंदोलन को हरिजन आंदोलन नाम देने का श्रेय महात्मा गांधी को है। ‘हरिजन’ पत्र के माध्यम से भी उन्होंने इस आंदोलन को गति दी। महात्मा गांधी ने यह सोचकर इस आंदोलन को गति दी कि, जिनका कोई नहीं, उनका हरि है, इन्हें हरिजन नाम दे दिया। निश्चित ही यह नाम देते समय महात्माजी के अंतःकरण में अस्पृश्यों के प्रति सद्भावना रही होगी, पर डा. आम्बेडकर जी को मिस्टर गांधी द्वारा दिया गया यह नाम पसंद नहीं आया। वस्तुतः नास्तिक बौद्ध धर्म की ओर झुकाव होने के कारण उन्हें हरि जैसी अनादि सत्ता में विश्वास भी नहीं था। फिर अस्पृश्यों को हरिजन नाम देनेवाले महात्मा गांधी महर्षि दयानन्द की तरह कर्मणा वर्ण व्यवस्था के पक्षधर न होकर जन्मना वर्ण व्यवस्था के हिमायती थे। डा. आम्बेडकर जी के लिए राजनैतिक नेताओं की तुलना में आर्य समाजी नेता अधिक विश्वसनीय थे। ऐसे ही कुछ कारण रहे होंगे जिससे उन्होंने हरिजन शब्द की उपेक्षा की होगी, और दलित शब्द का स्वीकार किया होगा। आज महाराष्ट्र में डा. आम्बेडकर का दलित अनुयायी हरिजन संज्ञा को अपने लिए प्रयुक्त अपशब्द सा ही समझता है। पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति के अनुसार केवल जन्म के आधार पर अनेक जातियों को एक अलग वर्ग मानकर उन्हें हरिजन का नाम दे देना सर्वथा अनुचित है। यह मनुष्य मात्र की समानता की दृष्टि से तो अनुचित है ही, व्यावहारिक दृष्टि से भी अत्यंत हानिकारक है।

अब हम डा. कुशलदेव शास्त्री जी द्वारा प्रस्तुत ऋषि दयानन्द की दलितों के उन्नयन में व्यवहारिक भूमिका विषयक गवेषणायुक्त कार्यों आदि को प्रस्तुत करते हैं। वह लिखते हैं कि ऋषि दयानन्द का व्यक्तित्व मनसा-वाचा-कर्मणा एक जैसा था। वे अपने सिद्धान्तों का केवल वाणी और लेखनी द्वारा ही प्रचार नहीं करते थे, अपितु उन्हें वे अपने क्रियात्मक जीवन में सार्थकता प्रदान करते थे। वर्ण व्यवस्था और दलितोद्धार के संदर्भ में उनके जीवन से एकाधिक उदाहरण प्रस्तुत हैं-

खान-पान या स्पृश्यास्पृश्यता की दृष्टि से देखें तो ऋषि दयानन्द का प्रगतिशील व्यक्तित्व हमें पदे-पदे नजर आता है। सन् 1867 में गढ़मुक्तेश्वर में वे मांझी की आधी रोटी खाते हैं। सन् 1868 में में फर्रुखाबाद में श्री सुखवासीलाल साध द्वारा लाये कढ़ी-भात का भोजन स्वीकार करते हैं। सन् 1872 में अनूप शहर में उपस्थित जन समुदाय के बीच नाई का भोजन ग्रहण करते हैं। सन् 1874 में अलीगढ़ जनपद के जाट श्री गुरुराम प्रसाद के वेदभाष्यनुवाद को संशोधित करने के लिए वे अपना अमूल्य समय देने के लिए तत्पर रहते हैं। सन् 1874 में ही बिना जूते पहने कच्चा भोजन लानेवाले भक्त ठाकुर प्रसाद से वह यह स्पष्ट रूप में कह देते हैं कि मैं छुआछूत को नहीं मानता आप भी इस बखेड़े में मत पड़िए। इसी वर्ष गुजरात के कातार गांव में किसानों द्वारा आग में भूनकर दी गई ज्वार (पोंक-हुर्डा) को वे सहर्ष ग्रहण करते हैं। पुणे में सर्वश्री गोविंद मांग, गोपाल चमार, रघु महार आदि का लिखित प्रार्थना पत्र पाकर शूद्रातिशूद्रों के विद्यालय में 16 जुलाई 1875 को वेदोपदेश देते हैं। सन् 1878 में मुस्लिम डाकिये द्वारा एक अस्पृश्य (कसाई मजहबी सिख) श्रोता को दुत्कारे जाने पर भी उसे रुड़की में आत्मीयता पूर्वक नियमित रूप से अपने वेद-प्रवचन में आने का निमंत्रण देते हैं। सन् 1879 में जन्म के मुसलमान मुहम्मद उमर को अलखधारी नाम प्रदान कर अपनत्व प्रदान करते हैं। अपने ही नही सबके मोक्ष की चिंता करनेवाले थे ऋषि दयानन्द। किसी जाति-सम्प्रदाय वर्ग विशेष के लिए नहीं अपितु सारे संसार के उपकार के लिए उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की थी।

सन् 1880 में काशी में एक दिन एक मनुष्य ने वर्ण व्यवस्था को जन्मगत सिद्ध करने के उद्देश्य से महाभाष्य का निम्न श्लोक प्रस्तुत कियाः-

विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मण कारकम्।
विद्या तपोभ्यां यो हीनो जाति ब्राह्मण एव सः।। 4/1/48।।

अर्थात् ब्राह्मणत्व के तीन कारक हैं - 1) विद्या, 2) तप और 3) योनि। जो विद्या और तप से हीन है वह जात्या (जन्मना) ब्राह्मण तो है ही।

ऋषि दयानन्द ने प्रतिखंडन में मनु का यह श्लोक प्रस्तुत किया

यथा काष्ठमयो हस्ती, यश्चा चर्ममयो मृगः।
यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति।।2, 157।।

अर्थात् जैसे काष्ठ का कटपुतला हाथी और चमड़े का बनाया मृग होता है, वैसे ही बिना पढ़ा हुआ ब्राह्मण होता है। उक्त हाथी, मृग और विप्र ये तीनों नाममात्र धारण करते हैं। संस्कारविधि में भी ऋषि दयानन्द ने अपनी इस धारणा को अभिव्यक्त किया है।

सन् 1880 में ही काशी में एक दिन एक और व्यक्ति ने महर्षि से जाति भेद के विषय पर विचार किया। प्रत्युत्तर में ऋषि ने कहा कि ब्राह्मणादि वर्ण जन्मगत नहीं हो सकते यदि ऐसा हो तो एक ब्राह्मण के दो पुत्रों में से एक ईसाई और एक मुसलमान हो जाये तो क्या फिर वे ब्राह्मण ही माने जायेंगे, यदि नहीं माने जायेंगे तो फिर जन्म से ब्राह्मणत्व कहां रहा? महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में भी इस बात का प्रतिपादन किया है। सन् 1880 में ही मेरठ मे लगभग एक मास तक ऋषि दयानन्द की अंतेवासिनी बनकर शिक्षा ग्रहण करनेवाली महाराष्ट्रीय विदुषी पंडिता रमाबाई ने 13 नवम्बर 1903 को लिखे पत्र में यह स्वीकार किया था कि स्वामी जी की शिक्षा स्त्रियों को वेदाधिकार प्रदान करती थी और इस कारण मैं उनसे प्रसन्न थी।

सन् 1876 में मुंबई में हरिश्चंद्र चिंतामणि के सुपुत्र का उपनयन संस्कार करवाने वाले और इससे पूर्व कर्णवास में हंसादेवी ठाकुर को गायत्री मंत्र का उपदेश देनेवाले ऋषि दयानन्द 1880 में मुंशी मुख्तावर सिंह, मुंशी समर्थदान तथा लाला शादीराम का भी उपनयन संस्कार करवाते हैं। स्मरण रहे ऋषि दयानन्द से पूर्व और विशेष रूप से मध्यकाल से ब्राह्मणों के अतिरिक्त सभी वर्णस्थ व्यक्तियों को शूद्र समझा गया था, अतः क्रमशः मुगल और आंग्ल काल में महाराष्ट्र केसरी छत्रपति शिवाजी महाराज, बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड और कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज को उपनयन आदि वेदोक्त संस्कार कराने हेतु आनाकानी करनेवाले ब्राह्मणों के कारण मानसिक यातनाओं के बीहड़ जंगल से गुजरना पड़ा था। सन् 1880 में दानापुर में अर्धरात्रि में टहलते हुए ऋ़षि दयानन्द के पैरों की आहट पाकर जब कर्मचारी ने कष्ट का कारण पूछा तो ऋ़षि दयानन्द ने प्रत्युत्तर में कहा था कि ‘ईसाई लोग दलितों को ईसाई बनाने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं और अपना रुपया पानी की तरह बहा रहे हैं और इधर हमारे नेता कुंभकर्ण की नींद सो रहे हैं। यही चिंता मुझे विकल कर रही है।’

सन् 1867 में हरिद्वार में ऋषि दयानन्द ने ‘‘पाखंड खंडिनी पताका” गाड़कर जब सार्वजनिक जीवन में अंगद की तरह दृढ़तापूर्वक कदम रखा था, तभी से वे जन्मना वर्ण व्यवस्था के विरोधी थे। काशी के प्रसिद्ध पं. विशुद्धान्द सरस्वती भी इस कुंभ मेले में उपस्थित थे। जब उन्होंने ‘ब्राह्मण परमेश्वर के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय भुजा से, वैश्य जांघ से और शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए’ तब ऋषि ने इसका खंडन करते हुए कहा था कि ‘यदि इसका यही अर्थ है तो मुख से खखार भी उत्पन्न होता है। मंत्र का सही अर्थ ब्राह्मण मुख से उत्पन्न हुए नहीं अपितु मुख के समान है।’ इससे स्पष्ट है कि ऋषि दयानन्द अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारंभ में भी वर्ण व्यवस्था जन्मगत नहीं, अपितु गुण कर्मानुसार ही मानते थे। सन् 1882 में उदयपुर में, एक प्रकार से ऋषि दयानन्द के जीवन की संध्याकाल में, दो साधु उनसे मिले और निवेदन किया कि आप अधिकारी लोगों को ही उपदेश दिया करें। प्रत्युत्तर में ऋषि ने कहा, ‘‘धर्म के विषय में अधिकार अनाधिकार का प्रश्न उठाना सर्वथा व्यर्थ है, धर्मोपदेश सुनने का मनुष्य मात्र को अधिकार है। आपकी जाति और धर्म के सैकड़ों मनुष्य विधर्मी हो रहे हैं और आप अधिकार और अनाधिकार का पचड़ा लिए बैठे हैं। पहले उन्हें तो बचाइए।” ऋषि के इसी सन्देश को व्यक्त करते हुए श्री कुंवर सुखलाल ने अपनी एक गजल में लिखा था, ‘‘लो दलितों को छाती लगा भाइयों ! वरना ये लाल गैरों के घर जायेंगे।”

महर्षि दयानन्द के अन्तःकरण में दलित, शोषित, निर्धनों के प्रति अत्यंत ही करुणा थी। ‘संस्कारविधि’ में धनसंपन्न व्यक्ति या संगठन का कर्तव्य उन्होंने लिखा है, ‘अंत्येष्टि संस्कार हेतु महादरिद्र भिक्षुक को आधे मन से कम घृत न देवें।’ ऋषि दयानन्द राजस्थान के एक नरेश को अपने पत्र में लिखते हैं, ‘शासक यदि भोजन पर बैठा हो और उस समय यदि उसे कहीं से नारी का करुण रुदन सुनाई दे तो उसका कर्तव्य है कि वह थाली से उठकर पहले उसके आंसू पोंछे।’ अपने निष्प्राण शिशु का तन ढकने के लिए कफन वापिस ले आनेवाली मां की विवशता को देख ऋषि दयानन्द का करुणावान् हृदय अतिशय विह्वल हो उठा था। महर्षि दयानन्द ने जहां दलितों का उद्धार किया वहां दलितों से भी अत्यधिक दलित-प्रपीड़ित स्त्री जाति की भी आंतरिक व्यथा को तहेदिल से दूर करने का प्रयास किया। मौत के जबड़े में जा रही आर्य जाति की अवनति से ऋषि दयानन्द बेहद चिंतित थे, इसीलिए उन्होंने एक बार श्री मोहनलाल पंडया से कहा था ‘धर्माचार्यों के प्रमाद के कारण लोग विधर्मी हो रहे हैं, अतः बढ़ती हुई कुरीतियों और कुनीतयों को नष्ट करने के लिए उपदेशों के कोड़ों से इन सबको जगाना बहुत जरुरी है।’

दलितों के उत्कर्ष हेतु ऋषि दयानन्द द्वारा अपनाये गए साधन

ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः अर्थात् ज्ञानी हुए बिना इन्सान की मुक्ति संभव नहीं है। अतः ऋषि दयानन्द का दलितोद्धार की दृष्टि से भी सब से महान् कार्य यह था कि उन्होंने सबके साथ दलितों के लिए भी वेद-विद्या के दरवाजे खोल दिए। मध्यकाल मे स्त्री-शूद्रों के वेदाध्ययन पर जो प्रतिबंध लगाये गए थे, आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने अपने मेधावी क्रांतिकारी चिंतन और व्यक्तित्व से उन सब प्रतिबंधों को अवैदिक सिद्ध कर दिया। ऋषि दयानन्द के दलितोद्धार के इस प्रधान साधन और उपाय में ही उनके द्वारा अपनाये गए अन्य सभी उपायों का समावेश हो जाता है, जैसे 1) दलित स्त्री-शूद्रों को गायत्री मंत्र का उपदेश देना। 2) उनका उपनयन संस्कार करना। 3) उन्हें होम-हवन करने का अधिकार प्रदान करना। 4) उनके साथ सहभोज करना। 5) शैक्षिक संस्थाओं में शिक्षा वस्त्र और खान पान हेतु उन्हें समान अधिकार प्रदान करना। 6) गृहस्थ जीवन में पदार्पण हेतु युवक-युवतियों के अनुसार (अंतरजातीय) विवाह करने की प्रेरणा देना आदि। डा. आंबेडकर ने भी स्वीकार किया है कि-‘‘स्वामी दयानन्द द्वारा प्रतिपादित वर्णव्यवस्था बुद्धि गम्य और निरूपद्रवी है।” डा. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के उपकुलपति, महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध वक्ता प्राचार्य शिवाजीराव भोसले जी ने अपने एक लेख में लिखा है, ‘राजपथ से सुदूर दुर्गम गांव में दलित पुत्र को गोदी में बिठाकर सामने बैठी हुई सुकन्या को गायत्री मंत्र पढ़ाता हुआ एकाध नागरिक आपको दिखाई देगा तो समझ लेना वह ऋषि दयानन्द प्रणीत का अनुयायी होगा।’

समीक्षकों की दृष्टि में दलितोद्धारक दयानन्द

आर्यसमाजी न होते हुए भी ऋषि दयानन्द की जीवनी के अध्ययन और अनुसंधान में पंद्रह से़ भी अधिक वर्ष समर्पित करनेवाले बंगाली बाबू देवेंद्रनाथ ने दयानन्द की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है, ‘वेदों के अनधिकार के प्रश्न ने तो स्त्री जाति और शूद्रों को सदा के लिए विद्या से वंचित किया था और इसी ने धर्म के महंतों और ठेकेदारों की गद्दियां स्थापित की थीं, जिन्होंने जनता के मस्तिष्क पर ताले लगाकर देश को रसातल में पहुंचा दिया था। दयानन्द तो आया ही इसलिए था कि वह इन तालों को तोड़कर मनुष्यों को मानसिक दासता से छुड़ाए।’ ऋषि दयानन्द के काशी शास्त्रार्थ में उपस्थित पं. सत्यव्रत सामश्रमी ने भी स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हुए लिखा है, ‘‘शूद्रस्य वेदाधिकारे साक्षात् वेदवचनमपि प्रदर्शितं स्वामि दयानन्देन यथेमां वाचं ..... इति।” पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के शब्दों में यदि ऋषि दयानन्द किसी वेद का भाष्य न करते और केवल इसी मंत्र को देकर चले जाते तो इतना कार्य भी वैदिक संस्कृति के उत्थान के लिए पर्याप्त था। डा. चन्द्रभानु सोनवणे ने लिखा है, ‘मध्यकाल में पौराणिकों ने वेदाध्ययन का अधिकार ब्राह्मण पुरुष तक ही सीमित कर दिया था, स्वामी दयानन्द ने यजुर्वेद के (26/2) मंत्र के आधार पर मानवमात्र को वेद की कल्याणी वाणी का अधिकार सिद्ध कर दिया। स्वामीजी इस यजुर्वेद मंत्र के सत्यार्थद्रष्टा ऋ़षि हैं।’ ऋषि दयानन्द के बलिदान के ठीक दस वर्ष बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए दादा साहेब खापर्डे ने लिखा था, ‘स्वामीजी ने मंदिरों में दबा छिपाकर रखे गए वेद भंडार समस्त मानव मात्र के लिए खुले कर दिये। उन्होंने हिंदू धर्म के वृक्ष को महद् योग्यता से कलम करके उसे और भी अधिक फलदायक बनाया।’ ‘वेदभाष्य पद्धित को दयानन्द सरस्वती की देन’ नामक शोध प्रबंध के लेखक डा. सुधीर कुमार गुप्त के अनुसार ‘स्वामी जी ने अपने वेदभाष्य का हिंदी अनुवाद करवाकर वेदज्ञान को सार्वजनिक संपत्ति बना दिया।’

पं. चमूपति जी के शब्दों में ‘दयानन्द की दृष्टि में कोई अछूत न था। चाहे उमेदा नई हो या मलकाना रुस्तमसिंह। उनकी दयाबल-बली भुजाओं ने उन्हें अस्पृश्यता की गहरी गुहा से उठाया और आर्यत्व के पुण्यशिखर पर बैठाया था।’ हिंदी के सुप्रसिद्ध छायावादी महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा है ‘‘देश में महिलाओं, पतितों तथा जाति-पांति के भेदभाव को मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द तथा आर्यससमाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता है, उसका प्रायः सम्पूर्ण श्रेय आर्य समाज को है।’ महाराष्ट्र राज्य संस्कृति संवर्धन मंडल के अध्यक्ष मराठी विश्वकोश निर्माता तर्क-तीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी ऋषि दयानन्द की महत्ता लिखते हुए कहते हैं, ‘सैकड़ों वर्षों से हिंदुत्व के दुर्बल होने के कारण भारत बारंबार पराधीन हुआ। इसका प्रत्यक्ष अनुभव महर्षि स्वामी दयानन्द ने किया। इसलिए उन्होंने जन्मना जातिभेद और मूर्तिपूजा जैसी हानिकारक रुढ़ियों का निर्मूलन करनेवाले विश्वव्यापी महत्वाकांक्षा युक्त आर्यधर्म का उपदेश किया। इस श्रेणी के दयानन्द यदि हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए होते तो इस देश को पराधीनंता के दिन न देखने पड़ते। इतना ही नहीं, प्रत्युत विश्व के एक महान् राष्ट्र के रूप में भारतवर्ष देदीप्यमान होता।’

हमें यह लेख अपने विषय का सर्वोत्तम लेख लगता है। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख को पढ़कर ऋषि दयानन्द और उनकी अनुयायी संस्था आर्यसमाज के दलितोद्धार कार्यों से परिचित हो सकेंगे। यदि दलित भाईयों तक भी यह पंक्तियां पहुंचती हैं तो वह भी यथार्थ स्थिति जानकर अपने व अपने समुदाय के हित की दृष्टि से सही दिशा व मार्ग निर्धारित कर सकते है, जो कि एकमात्र आर्यसमाज व उसकी वैदिक विचारधारा है, ऐसा हम अनुमान करते हैं।

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