सुनील सागर जी महाराज चातुर्मास समिति
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17 Oct 17
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उदयपुर, जीवन की दो दिशाए है जो ठीक लगे उसके पीछे भागो या जो मिला है उसे स्वीकार करो। पसंद के पीछे भागना दुःख का मूल है और मिले हुए को पसंद करना सुख का मूल है। आज के समय में देखा जाए तो अभाव में भी सद्भाव की अनुभूति करने वाले मात्र साधु है। वरना लोग अभाव के पीछे अंधी दौड़ लगाए है। पाए हुए की कीमत नहीं करके हम अक्सर उसे खो देते है। जैसे घर पर आए मेहमान में जो नहीं आया उसका पूछो तो निश्चित आए हुए का कुछ तो दिल दुखेगा। जो पा लिया है उसमें अच्छाइयाँ ढूँढो और कमियाँ दिखे उसे पूरा करने की कोशिश करो। उक्त विचार आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने हुमड़ भवन में आयोजित प्रातःकालीन धर्मसभा में व्यक्त किये।
आचार्यश्री ने कहा कि एक बार जिसे हम अपना समझते है, अपना लेते है तो फिर हमें उसमें कोई कमियाँ नहीं दिखती। जहाँ अपनत्व है वहाँ स्वीकार्यता है। व्यावहारिकता में अपने आस पास के महोल को स्वीकारना सीखो। जब तक कुछ पसंद है तब तक स्वीकार है तब तक उसके पीछे भागना होता है और ज्यों ही ना पसंद हुए रुकावटें आने लग जाती है। रिश्तों की जड़ है स्वीकारना। जो पसंद है उसके पीछे भागने की मनुष्य को आदत है। लेकिन जो मिला है उसे पसंद करने लग जाए तो जीवन स्वर्ग बन जाए। आकाँक्षा के पीछे भागते-भागते जीवन पूरा हो जाता है। वस्तु सुख नहीं देती उसके पीछे रही मान्यताये सुख-दुःख का कारण होती है।
आचार्यश्री ने मुनि का स्वरूप बताते हुए कहा कि मुनि तो शांत, सहज हर परिस्थिति में उपशम भाव वाले, ध्यान साधना में लीन, निस्पृही प्रवृत्ति वाले उत्तम पात्र कहे जाते है। जिन्हें आप देना तो सब कुछ चाहते है लेकिन वह लेते बिलकुल नहीं है। मुनि के उदीष्ठ वस्तु का पूर्ण त्याग होता है। साधु खर्चे व पर्चे से दूर होते है। उनकी महिमा ऐसी होती है कि उन्हें प्रभावना करनी नहीं पड़ती, उनकी चर्या-चरित्र से स्वतः प्रभावना चाहु ओर होती है। दीपावली पर केवल कचरे की नहीं कर्मों की भी सफाई करे। केवल धन-लक्ष्मी की कमाई न करे, अपने सद्गुणो की कमाई करे। धुलाई केवल कपड़ों की नहीं अपने मन मैल भी धोए। रंगाई केवल दीवारों की नहीं करके, अपने आप को भक्ति के रंग में रंगे। हम भी बहिरात्मा छोड़ते हुए अंतरात्मा बने तो निश्चित परमात्मा बनेंगे।
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