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नवसम्वत्सर एवं आर्यसमाज स्थापना दिवस उत्सव का सोल्लास आयोजन

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20 Mar 18
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आर्यसमाज धामावाला, देहरादून में नवसम्वत्सर एवं आर्यसमाज स्थापना दिवस उत्सव का सोल्लास आयोजन किया गया। इस अवसर पर आर्यसमाज के प्रसिद्ध भजनोपदेशक पं. सत्यपाल सरल एवं आर्य विद्वान आचार्य डा. धनंजय आर्य जी को भजन व प्रवचन के लिए आमंत्रि किया गया था। बड़ी संख्या में आर्यसमाज के पदाधिकारी, सदस्य एवं आर्यधर्म प्रेमी श्रद्धालु आयोजन में सम्मिलित हुए। श्री स्वामी श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम के बालक व बालिकायें भी इस उत्सव में सम्मिलित हुए। डीआरडीओ के सेवानिवृत वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. महेश कुमार शर्मा आर्यसमाज धामावाला, देहरादून के यशस्वी प्रधान है एवं इस समाज के मंत्री जी भी एक उत्साही युवा, श्री नवीन भट्ट जी, हैं। इन दोनों ऋषि भक्त पुरुषों के नेतृत्व में आर्यसमाज विधि विधान से कार्य कर रहा है। कार्यक्रम के आरम्भ में अग्निहोत्र यज्ञ का आयोजन सम्पन्न किया गया। यज्ञ के पश्चात पं. सत्यपाल सरल जी के भजन हुए। उन्होंने भजनों के मध्य नवसंवत्सर एवं आर्यसमाज के स्थापना दिवस पर भी प्रकाश डाला। श्री सरल जी के भजनों के बाद युवा आर्य विद्वान और प्रसिद्ध गुरुकुल पौंधा देहरादून के प्राचार्य डा. धनंजय जी का व्याख्यान हुआ। हम इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रम, व्याख्यान व भजनों को संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
गुरुकुल पौंधा के प्राचार्य डा. धनंजय आर्य ने कहा कि यह हर्ष का विषय है कि हम नवसम्वत्सर और आर्यसमाज का स्थापना दिवस मना रहे हैं। आचार्य जी ने कहा कि देश व समाज में एक नई विडम्बना बन रही है। वैदिक सृष्टि सम्वत् को हिन्दू संवत् बताया जा रहा है। उन्होंने कहा कि विभाजनकारी प्रवृत्ति का व्यवहार बढ़ता जा रहा है। आचार्य जी ने सृष्टि काल व काल गणना का उल्लेख किया और इस विषय में आचार्य भास्कराचार्य और अन्य प्राचीन भारतीय आचार्यों के योगदान की चर्चा की। आचार्य जी ने भारत के आचार्यों की देन दशमलव का उल्लेख भी किया। आचार्य जी ने कहा कि वैदिक सृष्टि सम्वत् 1,96,08,53,119 वां वर्ष आज आरम्भ हो रहा है। सत्यार्थप्रकाश के द्वितीय समुल्लास का उल्लेख कर आचार्य जी ने प्रश्न किया कि हम किन ज्योतिष ग्रन्थों को पढ़े? इसके उत्तर में आचार्य जी ने कहा कि हमें ज्योतिष ग्रन्थ सूर्य सिद्धान्त को पढ़ना चाहिये। आचार्य धनंजय जी ने कहा कि छठा वेदांग ज्योतिष का ज्ञान है। उन्होंने कहा कि ज्योतिष नेत्र के समान होते हैं। यदि हमारे पास ज्योतिष रूपी नेत्र नहीं होंगे तो हम सृष्टि को देख व जान नहीं पायेंगे। ज्योतिष का अध्ययन कर हम अपनी सृष्टि को देखने व जानने में समर्थ होते हैं। आचार्य जी ने कहा कि ज्योतिष के अध्ययन के अन्तर्गत हमें सूर्य सिद्धान्त का गुरुमुख से अध्ययन करना चाहिये। सूर्य सिद्धान्त को उन्होंने वेद के अनुकूल शास्त्रीय ग्रन्थ बताया। आचार्य जी ने प्रातः जागरण एवं रात्रि शयन के समय की चर्चा भी की। उन्होंने कहा कि प्रातः चौथे प्रहर में उठकर सन्ध्योपासना करनी चाहिये। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि ने यज्ञ में तिथि, तिथि देवता, नक्षत्र और नक्षत्र देवता आदि की आहुतियों का विधान कर ज्योतिष के अध्ययन की प्रेरणा की है। उन्होंने कहा कि माता-पिता अपनी सन्तानों को सदाचार की शिक्षा दें जिससे उनके बालक बालिकायें मिथ्या आचरण से बच सकें। आचार्य जी ने कहा कि आर्यसमाज उस ज्योतिष को स्वीकार करता है जिसके अध्ययन से वेद और संसार का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। ज्योतिष को उन्होंने वेद और संसार को जानने में आंख के तुल्य बताया। उन्होंने कहा कि कालगणना ज्योतिष का विषय है। आचार्य जी ने कहा कि चैत्र मास को मधु मास और वसन्त ऋतु को मधु ऋतु कहा गया है। इसका कारण इन ऋतुओं की महत्ता है। आचार्य जी ने प्रश्न किया कि महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना क्यों की थी? इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि आर्यसमाज की स्थापना वैदिक धर्म प्रेमी लोगों के आग्रह करने पर की गई थी। लोग वेदों की ओर लौटे, ऐसा ऋषि दयानन्द का विचार था। ऋषि का उद्देश्य था ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्।’
आचार्य जी ने आर्यसमाज के 10 नियमों की चर्चा भी की। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज के दस नियम महत्वपूर्ण हैं। इन्हें सभी को कैलेण्डर की भांति अपने घर की दीवारों पर टांगना चाहिये। आचार्य जी ने आर्यसमाज के दूसरे नियम को महत्वपूर्ण बताया और उसे पूरा पढ़कर श्रोताओं को सुनाया। उन्होंने कहा कि परमात्मा को जानने का नाम ही स्तुति है। उन्होंने कहा कि प्रार्थना का अभिप्राय स्वयं को ईश्वर को समर्पित करना और शुभ भावनाओं से संकल्पित करना है। ईश्वर से की जाने वाली वैदिक प्रार्थनाओं के अनुसार ही हमारा जीवन भी होना चाहिये। उन्होंने कहा कि दूसरे नियम को जान लेने पर मनुष्य में सभी समस्याओं को समझने व उन्हें हल करने की योग्यता उत्पन्न होती है। मनुष्य को समाज की उन्नति पर भी ध्यान देना चाहिये। उन्होंने कहा कि हमारा जीवन समाज से जुड़ा हुआ है। आचार्य जी ने कहा कि हमें आर्यसमाज के सभी दस नियमों को जानने व उनका पालन करने प्रयत्न करना चाहिये। आचार्य जी ने कहा कि आज का दिन आत्मालोचना का दिन है। हमें आत्मालोचन कर अपने जीवन का सुधार करना चाहिये। आचार्य जी ने पूछा कि क्या हम आर्यसमाज के दूसरे नियम को अपने परिवारजनों को समझाकर उसका पालन करा पा रहे हैं? उन्होंने कहा कि क्या आर्यसमाज के स्थापना दिवस से हमें उत्साह मिलता है? उन्होंने यह भी कहा कि हमें प्रयत्न करना चाहिये कि वेद और आर्यसमाज के त्रैतवाद के सिद्धान्त को हम अपने परिवार, समाज व देश में स्वीकार करा सके।
आचार्य डा. धनंजय जी ने कहा कि हमें अपने परिवारों में ईश्वर के स्वरूप की व्याख्या कर सभी सदस्यों को उसे समझाना व हृदयंगम कराना चाहिये। आचार्य जी ने कहा कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। हमें ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में प्रस्तुत व उपलब्ध इस विषयक सामग्री के आधार पर इस नियम का प्रचार करना चाहिये। आचार्य जी ने वेदों में विमान के उल्लेख की चर्चा भी की। ऋषि दयानन्द जी ने भी अपने वेदभाष्य तथा व्याख्यानों में विमानों की चर्चा की है। हमें अपने परिवारों में वैदिक धर्म व संस्कृति से प्रेम की भावना को भरना चाहिये। आचार्य जी ने अपने सम्बोधन में योगी आदित्यनाथ जी के द्वारा सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की प्रशंसा का उल्लेख भी किया। उन्होंने श्रोताओं को सलाह दी कि अपने परिवारों में विवाह आदि अवसरों पर सत्यार्थप्रकाश आदि ऋषि साहित्य भेंट करना चाहिये। आचार्य जी ने मारीशस में आर्यसमाज की स्थापना की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि मारीशस के अस्तित्व में आने के कुछ समय बाद ही कुछ भारतीय सैनिक मारीशस गये थे। उन सैनिकों में से एक दो सैनिक सत्यार्थ प्रकाश एवं संस्कार विधि आदि ग्रन्थ ले गये थे। वहां उन दिनों भारतीय मूल के आर्य हिन्दू लोग बकरी चराया करते थे। हमारे जब वह सैनिक वापस भारत लौटे तो उन्होंने सत्यार्थप्रकाश आदि अपना ऋषि साहित्य वहां के एक बकरी चराने वाले व्यक्ति को भेंट में दे दिया था। जिस मारीशस निवासी व्यक्ति को साहित्य दिया गया था, उस व्यक्ति का नाम माणिक लाल था। उस व्यक्ति ने सत्यार्थप्रकाश को पढ़ा। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर उसके जीवन में परिवर्तन हुआ। वह व्यक्ति मारीशस में आर्यसमाज के प्रचार और स्थापना में कारण बना। आज मारीशस में आर्यसमाज की जो सुदृण स्थिति है उसका कारण वह व्यक्ति माणिक लाल तथा यह घटना है। मारीशस में आर्यसमाज की स्थापना का यही यथार्थ इतिहास भी है।
सुप्रसिद्ध आर्यभजनोपदेशक श्री सत्यपाल सरल ने एक भजन सुनाया जिसके आरम्भ के शब्द थे ‘करें हम महर्षि का यशोगान।’ पं. सरल जी ने कहा कि हमें ऋषि ऋण से उऋण होने का प्रयास करना चाहिये। हम आर्यसमाज के अनुयायियों के लिए नवसंवत्सर एवं आर्यसमाज का स्थापना दिवस महत्वपूर्ण दिवस हैं। हमें आज के दिन सभी बन्धुओं को बधाई देनी चाहिये। हम लगभग एक हजार वर्षों तक विधर्मियों के गुलाम रहे हैं। विधर्मियों ने हमारे धर्म व संस्कृति को मिटाने का प्रयत्न किया। सृष्टि संवत् की चर्चा कर उन्होंने कहा कि सृष्टि का कुल काल 4.32 अरब वर्षों का होता है जो 14 मन्वन्तरों में बंटा हुआ है। 1 मन्वन्तर में 71 चतुर्युगी होती हैं। एक चतुर्युगी में चार चतुर्युग कलियुग, द्वापर, त्रेता और सतयुग होते हैं जिनकी कुल अवधि 43,20,000 वर्ष होती है। सृष्टि संवत् से संबंधित अन्य कुछ पक्षों का उल्लेख भी श्री सत्यपाल सरल जी ने किया। इसके बाद उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की चर्चा की। उन्होंने दूसरा भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘समय ने जब भी अंधेरों से दोस्ती की है, जला के अपना ही घर हमने रोशनी की है।’ इस भजन के अनन्तर सरल जी ने एक पेड़ में आग लगने की घटना सुनाई और कहा कि उस पेड़ पर एक चिड़िया रहती थी। वह पास के स्थान से अपनी चोंच में पानी भर कर लाने लगी और आग पर डालने लगी। इस पर उसे किसी ने कहा कि तुम यह कोशिश मत करो, इससे पेड़ में लगी आग बुझेगी नहीं। इसका उत्तर उस चिड़िया ने यह कहकर दिया कि इतिहासकार जब इस घटना को लिखेगा तो मेरा नाम आग लगाने वालों में नहीं आग बुझाने वालो में लिखेगा। उसने कहा कि वह अपना कर्तव्य निभा रही है। परिणाम क्या होगा उसकी उसे चिन्ता नहीं है। ‘कर्मेणेवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’
श्री सत्यपाल सरल जी ने एक अन्य भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘मस्तक पर आकाश उठाये धरती बांधे पावों से, तुम निकलो जिन गांवों से सूरज निकले उन गांवों से।’ इस भजनल के बाद सरल जी ने अपनी अन्तिम प्रस्तुति जिस भजन के माध्यम से दी उस भजन की प्रथम पंक्ति के बोल थे ‘दोस्तो तुम हमें लाख रोको, नींद से हम जगाते रहेंगे।‘
आर्यसमाज धामावाला के प्रधान श्री महेश कुमार शर्मा जी ने कहा कि आज हम नवसम्वत्सर एवं आर्य समाज का स्थापना दिवस मना रहे हैं। आप सबको शुभकामनायें और बधाई हो। उन्होंने बताया कि उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने विदेशी व विधर्मी शको को हराया था। आज के दिन उन महाराज विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ था। उस राज्याभिषेक की स्मृति में विक्रम संवत्सर प्रचलित हुआ जो राजा विक्रमादित्य के यश व गौरव को हमारे सम्मुख उपस्थित करता है। श्री शर्मा जी ने अन्य प्रचलित संवत्सरों पर भी प्रकाश डाला। आर्यसमाज के प्रधान श्री महेशकुमार शर्मा जी ने आर्यसमाज की स्थापना की चर्चा की और इसकी पृष्ठ भूमि पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज की स्थापना सन् 1875 में चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन हुई थी। इस अवसर पर इस दिन आर्यसमाज गिरिगावं मोहल्ले के काकड़वाडी में जो लोग उपस्थित थे, उनमें से कुछ प्रमुख लोगों के नाम भी शर्मा जी ने श्रोताओं को बताये। श्री शर्मा जी ने कहा कि जनवरी, 1875 में भी राजकोट और अहमदाबाद आदि कुछ स्थानों पर ऋषि दयानन्द जी ने आर्यसमाज स्थापित किये गये थे परन्तु वह चल नहीं पाये। इसका कारण यह था स्वामी जी वहां से दूसरे स्थानों पर प्रचार करने चले गये जिस कारण वहां के लोगों में अनुभव न होने आदि कारणों से सत्संगों की नियमित व्यवस्था न की जा सकी। आर्यसमाज की स्थापना 10 अप्रैल, 1875 तक आर्यसमाज के नियम आदि भी नहीं बने थे। शर्मा जी ने बताया कि आर्यसमाज काकड़वाणी में आर्यपुरुषों द्वारा स्वामी दयानन्द जी से आर्यसमाज का सर्वाधिकारी बनने के प्रस्ताव उन्होंने ठुकरा दिया था। बड़ी मुश्किल से वह सदस्य बनने के लिए सहमत हुए थे। उस समय के सदस्यों की वहां जो पंजिका उपलथ्ध है उसमें उनका नाम 31 वें स्थान पर है। इस पंजिका में सदस्यों के नाम, जाति, व्यवसाय और शिक्षा को भी दर्शाया गया था। इस पंजिका में स्वामी दयानन्द जी का नाम पं. दयानन्द सरस्वती स्वामी, जाति ब्राह्मण, व्यवसाय सन्यासी तथा शिक्षा संस्कृत और वैदिक संस्कृत लिखी गई है। डा. महेश कुमार शर्मा जी ने यह भी बताया कि आर्यसमाज काकड़वाडी के भवन में कालान्तर में जो शिलालेख लगाया गया उसमें आर्यसमाज की स्थापना तिथी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा दी गई। आर्य विद्वान श्री शर्मा जी ने कहा कि सार्वदेशिक सभा ने इस शिलालेख पर अंकित तिथि को ही प्रमाण स्वीकार किया। समयाभाव के कारण शर्मा जी ने अपने वक्तव्य को विराम दिया और कहा कि वह फिर किसी अवसर पर इस विषय की विस्तार से चर्चा करेंगे। श्री शर्मा जी और आचार्य धनंजय जी के सम्बोधन के बाद सभी श्रोताओं ने मिलकर आर्यसमाज के दस नियमों का पाठ किया। आर्यसमाज के प्रधान श्री महेश कुमार शर्मा जी ने सभी विद्वानों एवं श्रोताओं को आयोजन में पधारने के लिए धन्यवाद दिया। आर्यसमाज के पुरोहित श्री विद्यापति शास्त्री जी ने शान्तिपाठ कराया। सभा विसर्जन पर सभी लोगों को अल्पाहार व चायपान कराया गया। सभी सदस्यगण परस्पर मिले और एक दूसरे का सुख दुःख पूछने लगे। हमें भी आर्यसमाज के सभी लोगों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ओ३म् शम्।

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