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पण्डित व विद्वान मनुष्य के लक्षण

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25 Feb 18
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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून। सामान्य व्यक्ति की दृष्टि में पण्डित ज्ञानी मनुष्यों को कहते हैं। ज्ञानी मनुष्य ही विद्वान कहलाता है और ब्राह्मण भी वेदों का सांगोपांग ज्ञान रखने वाले विद्वान व पण्डित को ही कहते हैं। ऋषि दयानन्द जी ने ‘व्यवहारभानु’ नाम से एक लघुग्रन्थ की रचना की है। इस पुस्तक में उन्होंने शास्त्र प्रमाणों के आधार पर पण्डितों के लक्षण वा स्वरूप पर प्रकाश डाला है। पण्डितों का मुख्य कार्य देश व समाज में अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि करना होता है। यह कार्य अशिक्षितों व बालक-बालिकाओं को शिक्षित कर ही किया जा सकता है। इस काम को करने वाले अध्यापक वा शिक्षकगण पण्डित व विद्वान् ही होते हैं। उनके स्वरूप व लक्षणों पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द ने प्रथम प्रमाण दिया है:

आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षाधर्मनित्यता।
यमर्था नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते।।1।। (श्लोक सन्दर्भः महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर अ0 33 श्लोक 15)

श्लोकार्थः- जिसको परमात्मा और जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान हो, जो आलस्य को छोड़कर सदा उद्योगी हो, सुखदुःखादि का सहन, धर्म का नित्य सेवन करने वाला हो तथा जिसको कोई पदार्थ धर्म से छुड़ा कर अधर्म की ओर आकर्षित न कर सके वह ‘पण्डित’ कहलाता है।

ऋषि दयानन्द जी ने पण्डित के लक्षण बताने के लिए दूसरा प्रमाण प्रस्तुत किया है, वह हैः

निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत् पण्डितलक्षणम्।।2।। (श्लोक सन्दर्भ- महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर 33/16)

जो सदा प्रशस्त धर्मयुक्त कर्मों को करने वाला और निन्दित अधर्मयुक्त कर्मों को कभी न करनेवाला, जो सदैव ईश्वर, वेद और धर्म का प्रशंसक व समर्थक और परमात्मा, सत्य विद्या और धर्म में दृढ़ विश्वासी है, वही मनुष्य ‘पण्डित’ के लक्षणों से युक्त होता है।।2।।

क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात्।
नासंपृष्टो ह्युप्युंक्ते परार्थें तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य।।3।। (श्लोक सन्दर्भ- महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर 33/22)

जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने वाला है। जो दीर्घकाल पर्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुन कर व उसे ठीक-ठीक समझकर निरभिमानी शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करता है। जो परमेश्वर से लेकर पृथिवी पर्यन्त पदार्थो को जान कर उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवर्तमान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक् रहता है तथा किसी के पूछने वा दोनों के सम्वाद में बिना प्रसंग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला है। ऐसा होना ही ‘पण्डित’ की बुद्धिमत्ता का प्रथम लक्षण है।।3।।

नाप्राप्यमभिवांच्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्।
आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः।।4।। (श्लोक सन्दर्भ- महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर 33/23)

जो मनुष्य न प्राप्त होने योग्य पदार्थो की कभी इच्छा नहीं करते, किसी पदार्थ के नष्ट-भ्रष्ट व अदृष्ट हो जाने पर शोक करने की अभिलाशा नहीं करते और बड़े-बड़े दुःखों में जो मूढ़ होकर घबराते नहीं हैं वे मनुष्य ‘पण्डितों’ की बुद्धि से युक्त कहाते हैं।।4।।

प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते।।5।। (श्लोक सन्दर्भ- महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर 33/28)

जिसकी वाणी सब विद्याओं में चलने वाली, अत्यन्त अद्भुत विद्याओं की कथाओं को करने, बिना जाने पदार्थों को तर्क से शीघ्र जानने जनाने, सुनी हुई व विचारी हुई विद्याओं को सदा उपस्थित रखने और जो सब विद्याओं के ग्रन्थों को अन्य मनुष्यों को शीघ्र पढ़ानेवाला मनुष्य होता है वही ‘पण्डित’ कहाता है।।5।।

श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा।
असंभिन्नार्य्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः।।6।। (श्लोक सन्दर्भ- महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर 33/29)

जिसकी सुनी हुई व पठित विद्या बुद्धि के सदा अनुकूल है और बुद्धि और क्रिया सुनी व पढ़ी विद्याओं के अनुसार हो तथा जो धार्मिक श्रेष्ठ पुरुषों की मर्यादा का रक्षक और दुष्ट डाकुओं की रीति को विदीर्ण करनेवाला मनुष्य है वही ‘पण्डित’ नाम धराने के योग्य होता है।।6।।
ऋषि दयानन्द जी लिखते हैं कि जहां ऐसे सत् पुरुष पढ़ाने और बुद्धिमान् पढ़ने वाले होते हैं वहां विद्या, धर्म की वृद्धि होकर सदा आनन्द ही बढ़ता जाता है। वह आगे लिखते हैं कि जहां उपर्युक्त पण्डितों के गुणों से रहित लोग शिक्षक व अध्यापक होते हैं वहां अविद्या और अधर्म में वृद्धि होकर समाज व देश में दुःख ही बढ़ता है। ऋषि दयानन्द जी ने महाभारत के आधार पर शिक्षक, पण्डित व विद्वान के जो गुण बतायें हैं वह आज के पण्डितों में न होने के कारण समाज दुरावस्था को प्राप्त है। महाभारत से कुछ पूर्व व बाद में पूर्णतया गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था समाप्त हो गई और उसका स्थान अज्ञानी लोगों की अदूरदर्शिता व स्वार्थ आदि के कारण जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया। इससे हमारा समाज व देश दुर्बलता का शिकार हुआ है। ऋषि दयानन्द जी के चेताने पर भी हमने उससे लाभ नहीं उठाया। इसी भावना से यह लेख लिखा है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001

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