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बालकवि बैरागी: बुझ गया ‘दीवट का दीप’

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21 May 18
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बालकवि बैरागी: बुझ गया ‘दीवट का दीप’ -ः ललित गर्ग :-/दीये की बाती जलती है तब सबको उजाले बांटती है। बीज उगता है तब बरगद बन विश्राम लेता है। समन्दर का पानी भाप बन ऊंचा उठता है तब बादल बन जमीं को तृप्त करने बरसता है। ऐसे ही लाखों-लाखों रचनाकारों की भीड़ में कोई-कोई रचनाकार जीवन-विकास की प्रयोगशाला मेें विभिन्न प्रशिक्षणों से गुजरकर महानता का वरन करता है, विकास के उच्च शिखरों पर आरूढ़ होता है और अपने लेखन, विचार एवं कर्म से समाज एवं राष्ट्र को अभिप्रेरित करता है। ऐसे ही एक महान् शब्दशिल्पी, समाज निर्माता एवं रचनाकार थे बालकवि बैरागी। दीवट पर दीप, हैं करोड़ों सूर्य, झर गए पात और अपनी गंध नहीं बेचूंगा जैसी सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदैशिक रचनाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने वाले बालकवि बैरागी साहित्य की असीम साधना के बाद चिरनिद्रा में विलीन हो गए। 87 साल के बालकवि बैरागी ने रविवार शाम मध्य प्रदेश के मनासा स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली। उनका निधन न केवल हिन्दी साहित्य जगत, भारतीय राजनीति बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिये गहरी रिक्तता का अहसास करा रहा है।
हिन्दी कवि और लेखक बालकवि बैरागी का जन्म जन्म 10 फरवरी 1931 को मंदसौर जिले की मनासा तहसील के रामपुर गाँव में हुआ था। बैरागीजी ने विक्रम विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया था। मूलतः मेवाड़ (राजस्थान) निवासी होने के कारण वे हिन्दी, मालवी, निमाड़ी और संस्कृत का उपयोग धड़ल्ले से करते थे। प्रमुख कविताओं में सूर्य उवाच, हैं करोड़ों सूर्य एवं दीपनिष्ठा को जगाओ आदि हैं। उन्होंने फिल्मों के लिए भी गाने लिखे, जो बहुत चर्चित हुए। वे साहित्य के साथ साथ राजनीतिक जगत में भी काफी सक्रिय रहे और मध्यप्रदेश में मंत्री लोकसभा सदस्य एवं राज्यसभा के सांसद रहे। वे हिंदी काव्य मंचों पर काफी लोकप्रिय थे। देश में कवि सम्मेलनों को आम जनता तक पहुंचाने में तीन लोगों का सबसे बड़ा योगदान रहा है। हास्य के लिए काका हाथरसी का, गीत के लिए गोपाल दास नीरज का और वीर रस के लिए बालकवि बैरागी का। उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित भी किया गया।
‘चाहे सभी सुमन बिक जाएं, चाहे ये उपवन बिक जाएं, चाहे सौ फागुन बिक जाएं, पर मैं अपनी गंध नहीं बेचूंगा’- राजनीति में दल बदलने के इस दौर में ऐसी मार्मिक पक्तियां लिखने वाले बालकवि बैरागी अपनी गंध को खुद में ही समेटे एक निराला एवं फक्कड व्यक्तित्व थे। संवेदनशीलता, सूझबूझ, हर प्रसंग को गहराई से पकड़ने का लक्ष्य, अभिव्यक्ति की अलौकिक क्षमता, शब्दों की परख, प्रांजल भाषा, विशिष्ट शैली आदि विशेषताओं एवं विलक्षणताओं को समेटे न केवल अपने आसपास बल्कि समूची दुनिया को झकझोरने वाले जीवट वाले व्यक्तित्व थे बैरागीजी। सच ही कहा है किसी ने कि कवि के उस काव्य और धनुर्धर के उस बाण से क्या, जो व्यक्ति के सिर में लगकर भी उसे हिला न सके।
एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि जब वह चैथी कक्षा में पढ़ते थे, तब उन्होंने पहली कविता लिखी. और उस कविता का शीर्षक था ‘व्यायाम’। उन्होंने बताया कि उनका बचपन में नाम नंदरामदास बैरागी था और इस कविता के कारण ही उनका नाम नंदराम बालकवि पड़ा, जो आगे चलकर केवल बालकवि बैरागी हो गया। बालकवि बैरागी कलम के जादूगर होने के साथ-साथ मधुर कण्ठ के स्वामी भी थे। सचमुच वे कलम के जादूगर थे, उनकी कलम एवं वाणी में अद्भुत जादू था। वे अपनी कलम की नोक को जिस कागज पर टिकाते, वहां ऐसा शब्दचित्र उभरता, जिसे अनदेखा करना असंभव था।
कविता पाठ के रसिक एवं भारत के कवि-मंचों की शान बैरागीजी को अपने ओजपूर्ण स्वरों मे मंच पर कविता पाठ करते मैंने अनेक बार सुना है। उनके साहित्य में भारतीय ग्राम्य संस्कृति की सोंधी सोंधी महक मिलती है। और यही महक फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ के लिए उनके लिखे इस गीत में मिलती है- ‘तू चंदा मैं चांदनी, तू तरुवर मैं शाख रे।’ इसी फिल्म में उन्होंने एक और गीत लिखा था, जिसे मन्ना डे ने गाया था। यह गीत है ‘नफरत की एक ही ठोकर ने यह क्या से क्या कर डाला।’ इस फिल्म के अलावा उपलब्ध जानकारी के अनुसार बैरागीजी ने फिल्म ‘जादू टोना’ में गीत लिखे थे जिसके संगीतकार थे आशा भोसले के सुपुत्र हेमन्त भोसले। इसके अलावा वसंत देसाई के संगीत में फिल्म ‘रानी और लालपरी- में भी दिलराज कौर का गाया एक बच्चों वाला गीत लिखा था ‘अम्मी को चुम्मी पप्पा को प्यार।’ ऐसी ही एक फिल्म थी ‘क्षितिज’ और इस फिल्म में भी बैरागीजी ने कुछ गीत लिखे थे। कुछ और फिल्मों के नाम हैं ‘दो बूंद पानी’, ‘गोगोला’, ‘वीर छत्रसाल’, ‘अच्छा बुरा’। 1984 में एक फिल्म आई थी ‘अनकही’ जिसमें तीन गानें थे। एक गीत तुलसीदास का लिखा हुआ तो दूसरा गीत कबीरदास का। और तीसरा गीत बैरागीजी ने लिखा था। आशा भोसले की आवाज में यह सुंदर गीत था ‘मुझको भी राधा बना ले नंदलाल।’
बालकवि बैरागी का बचपन संघर्षों एवं तकलीफों से भरा रहा। वे साढ़े चार साल के थे तब माँ ने खिलोने के बदले एक भीख मांगने का बर्तन दे दिया और कहा जाओ और पड़ोस से कुछ मांग लाओ ताकि घर में चूल्हा जले। विकलांग पिता, माँ और बहन के साथ उन्हें गलियों में मांग-मांग कर अपना भरण करना पड़ा। बैरागी के मुताबिक संघर्ष का वह दौर ऐसा था कि 23 साल की उम्र तक भरपेट खाना नहीं मिला। प्रकृति और हालात से उन्होंने प्रेरणा ली। खासतौर पर उनके खुद के जिंदगी के हालात ने उन्हें प्रेरित किया। उनकी माँ का उनके जीवन में खास स्थान रहा, वे कहते हैं कि मैं पैदाइश भले ही पिता का हूँ पर निर्माण माँ का हूँ। उनकी माँ निरक्षर भले ही थी पर फिर भी उन्होंने बैरागीजी के जीवन पर खासी छाप छोड़ी।
बैरागीजी मृदुभाषी और सौम्य व्यक्तित्व के धनी थे और उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई। उनकी अनेक विशेषताओं में एक विरल विशेषता थी कि वे हर पत्र का उत्तर अवश्य देते थे। पिछले दिनों ही जयपुर के मेरे परम मित्र अजय चैपड़ा ने बताया कि उम्र की इस अवस्था में भी वे कम-से-कम प्रतिदिन 50 पत्र लिखते थे। बैरागीजी की आर्थिक स्थिति कमजोर होते जाने के कारण अजय चैपडा ने उन्हें पत्र लिखने वालों से आव्हान किया कि वे अपने पत्र में कम से कम 50 रुपये की स्टाम्प- डाक टिकट जरूर भेजे।
पढ़ना और पढ़ाना, शब्दों के आलोक को फैलाने के ध्येय के लेकर आपने पुरुषार्थ किया। स्वयं के अस्तित्व एवं क्षमताओं की पहचान की। संभावनाओं को प्रस्तुति मिली। शनै-शनै विकास और साहित्य के पायदानों पर चढ़े। इन शिखरों पर आरूढ़ होकर उन्होंने साहित्य और राष्ट्र सेवा का जो संकल्प लिया, उसमें नित नये आयाम जड़े। सचमुच यह उनका बौद्धिक विकास के साथ आत्मविकास चेतना का सर्वोत्कृष्ट नमूना है। ऐसे साहित्यसेवी और शब्द-चेतना के प्रेरक सेवार्थी एवं सृजनधर्मी व्यक्तित्व पर हमें नाज है।
तय किये लक्ष्यों को प्राप्त कर लेने का सुख और अधूरे लक्ष्यों को पाने का संकल्प- यही है बैरागीजी के जीवन के उत्तरार्द्ध का सच। यह भी सच्चाई है और दुनिया का आठवां आश्चर्य है कि कोई भी लक्ष्य अपनी समग्रता के साथ प्राप्त नहीं हुआ। इस सच के बीच एक छोटी-सी किरण है, जो सूर्य का प्रकाश भी देती है और चन्द्रमा की ठण्डक भी। और सबसे बड़ी बात, वह यह कहती है कि ‘खोजने वालों को उजालों की कमी नहीं है, चरैवेति चरैवेति जीवन का शाश्वत मंत्र है जो सफलता का वरण करता है’ मनुष्य मन का यह विश्वास कोई स्वप्न नहीं, जो कभी पूरा नहीं होता। इस तरह का संकल्प कोई रणनीति नहीं है, जिसे कोई वाद स्थापित कर शासन चलाना है। यह तो आदमी को इन्सान बनाने के लिए ताजी हवा की खिड़की है। बैरागीजी का घटनाबहुल रचनात्मक और सृजनात्मक जीवन ऐसी ताजी हवाओं से ही रू-ब-रू कराता रहा है।
मुझे बैरागीजी के निकट रहने और उनका स्नेह पाने का अवसर अनेक बार मिला। पिताजी साहित्यकार एवं पत्रकार स्व. श्री रामस्वरूपजी गर्ग जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) के संस्थापक कार्यकर्ताओं में रहे हैं और एक बार वहीं आयोजित एक कवि सम्मेलन में वे आये। मेरे बड़े भ्राता कौशल गर्ग ने उस कवि सम्मेलन में उनकी गायी एवं पढ़ी कविताओं को हाथोंहाथ कलमबद्ध कर दिया। सुबह वे पिताजी से मिलने घर आये तो उन्हें वह भेंट की, वे आश्चर्यचकित रह गये। दिल्ली में अणुव्रत महासमिति एवं अणुव्रत पाक्षिक के सम्पादकीय दायित्व को संभालते हुए अनेक बार बैरागीजी से मिलने, उनके साथ काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। आचार्य तुलसी से निकट सम्पर्क एवं अणुव्रत के प्रति आकर्षित होने के कारण वे ‘अणुव्रत’ पाक्षिक के लिये नियमित लिखा करते थे। बैरागीजी एक रचनाकार से अधिक एक प्रेरणा थे, एक आह्वान थे। उनके जीवन का हार्द है कि हम अतीत की भूलों से सीख लें और भविष्य के प्रति नए सपने, नए संकल्प बुनें। अतीत में जो खो दिया उसका मातम न मनाएं। हमारे भीतर अनन्त शक्ति का स्रोत बह रहा है। समय का हर टुकड़ा विकास एवं सार्थक जीवन का आईना बन सकता है। हम फिर से वह सब कुछ पा सकते हैं, जिसे अपनी दुर्बलताओं, विसंगतियों, प्रमाद या आलस्यवश पा नहीं सकते थे। मन में संकल्प एवं संकल्पना जीवंत बनी रहना जरूरी है। बैरागीजी से प्रेरणा लेकर हमें उन नैतिक एंव मानवीय उच्चाइयों पर पहुंचाना है, जो हर इंसान के मनों में कल्पना बन कर तैरती रही हैं। हमारे समाज एवं समय की वे दुर्लभ प्रकाश किरणें हैं, जिनसे प्रेरणा पाकर हम जीवन को धन्य कर सकते हैं। अपने जीवन को सफल और सार्थक बना सकते है।
सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य जगत को एक नई फिजा, एक नया परिवेश देने के लिये हमें संकल्पित तो होना ही होगा और बैरागीजी जैसे बहुआयामी एवं समर्पित व्यक्तित्व को सामने रखना होगा। इसके लिये हमें व्यापक सोच को विकसित करना होगा। हम केवल घर को ही देखते रहेंगे तो बहुत पिछड़ जायेंगे और केवल बाहर को देखते रहेंगे तो टूट जायंेगे। मकान की नींव देखें बिना मंजिलें बना लेना खतरनाक है पर अगर नींव मजबूत है और फिर मंजिल नहीं बनाते तो अकर्मण्यता है। स्वयं का भी विकास और समाज का भी विकास, यही समष्टिवाद है, यही धर्म है, यही लेखन का हार्द है। निजीवाद कभी धर्म और लेखन नहीं रहा। जीवन वही सार्थक है, जो समष्टिवाद से प्रेरित है। केवल अपना उपकार ही नहीं परोपकार भी करना है। अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी जीना है। यह हमारा दायित्व भी है और ऋण भी, जो हमें अपने समाज और अपनी मातृभूमि को चुकाना है। इसी दृष्टिकोण के साथ हमें आगे बढ़ना है और मेरी दृष्टि में यही बैरागीजी के जीवन का सार भी है और प्रेरणा भी।
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