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वैदिक विचारों की मासिक पत्रिका ‘आर्ष ज्योति’

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20 Jul 18
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वैदिक विचारों की मासिक पत्रिका ‘आर्ष ज्योति’ आर्यजगत् में अनेक मासिक, पाक्षिक, त्रैमासिक पत्रिकाओं सहित साप्ताहिक पत्रों का प्रकाशन होता है। हम जब लगभग सन् 1970 में आर्यसमाज के सम्पर्क में आये तो वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून में स्वामी विद्यानन्द विदेह जी के प्रभावशाली प्रवचनों को सुनकर सबसे पहले सन् 1974 में ‘सविता’ मासिक के सदस्य बने थे। आज भी इस पत्रिका के अकों को हमने जिल्द बंधवाकर सुरक्षित रखा हुआ है। इसके बाद सन् 1976 में मासिक ‘वेद प्रकाश, दिल्ली’ के सदस्य बने थे। कुछ काल बाद हम ‘परोपकारी’ और ‘वेदवाणी’ के सदस्य बने और इसके बाद यह सिलसिला बढ़ता गया। साप्ताहिक पत्रो में आर्यजगत, आर्यमर्यादा, आर्यसन्देश, सार्वदेशिक, आर्यमित्र आदि अनेक पत्रों के सदस्य बनकर हम इनका नियमित पाठ व अवलोकन करते रहे। इसके साथ ही हमें स्वाध्याय की लगन भी उत्पन्न हुई। हमनें ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के साथ पुस्तक विक्रेताओं से छोटे-छोटे टै्रक्ट लेकर पढ़ते रहते थे। बाद में बड़े व विशालकाय ग्रन्थों के प्रति भी रूचि बढ़ी ओर अनेक ग्रन्थों को आद्यान्त पढ़ा। हम अपनी युवावस्था के आरम्भ में अध्ययन के साथ दैनिक पत्र-पत्रिकाओं के वितरण आदि कार्यों से भी कई वर्षों तक जुड़े रहे। हमें सन् 1970 व उसके बाद कुछ वर्षों तक प्रायः सभी पत्र-पत्रिकायें जो दिल्ली आदि से यहां आती थीं, देखने व पढ़ने का अवसर मिलता था। उनमें आर्यसमाज व ऋषि दयानन्द के प्रति कुछ भी सामग्री न देखकर पीड़ा होती थी। उन्हीं दिनों जिस आर्य विद्वान से हम सबसे अधिक प्रभावित हुए वह आर्यसमाज धामावाला देहरादून के मंत्री रहे प्रा. अनूप सिंह जी थे। वह पत्रकार भी थे। देहरादून के सभी पत्रकार उनकी विद्वता, पत्रकारिता व धार्मिक जगत के ज्ञान व अनुभव के कारण उनका बहुत आदर करते थे। सभी उन्हें गुरु जी कहकर सम्बोधित करते थे। हम भी उन्हें गुरुजी ही कहते थे। उच्च पदस्थ राजनीतिज्ञों से भी उनके सम्बन्ध थे जिनमें से कई केन्द्रीय मंत्रियों व अन्य प्रमुख नेताओं से हमें अनेक अवसरों पर मिलाया भी।

सन् 1974 में राजकीय कार्यालय में एक अन्य मित्र श्री महीपाल शर्मा अपनी पत्नी के माध्यम से पत्रकारिता करते थे। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कुन्ता शर्मा मुरादाबाद के एक साप्ताहिक पत्र की देहरादून में संवाददाता थी। वह उस पत्र को नियमित समाचार प्रेषित किया करते थे। वह दोनों पति-पत्नी प्रतिदिन देहरादून की कोतवाली और सरकारी चिकित्सालय के इमरजेन्सी वार्ड में जाकर वहां के नवीनतम समाचार एकत्रित कर अपने पत्र को भेजते थे। अनेक अवसरों पर हम भी उनके साथ रहा करते थे। इन सबके संस्कार व अनुभव से हम लाभान्वित हो रहे थे। हम भी यह सोचते थे कि हम जो कुछ सुनते हैं, पढ़ते व अनुभव करते हैं वह स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होना चाहिये। सन् 1970 के कुछ बाद ही हमने लिखने का प्रयास किया था। हमें याद है कि हमने यज्ञ पर एक लेख लिखा और उसे ‘दैनिक राष्ट्रीयता’ पत्र के कार्यालय में रात्रि के समय उसके शटर के नीचे डाल आये थे। कुछ दिनों बाद हमारे एक मित्र ने हमें बताया कि उन्होंनें वह लेख पढ़ा है तो हमें उसके प्रकाशन का ज्ञान हुआ था। इसके बाद हमारे आरम्भिक लेखों में एक अन्य लेख था ‘रोगों का कारण मृतक शरीर’। यह लेख हमारे एक आर्यसमाजी पड़ोसी की मृत्यु होने पर लिखा था। इसके बाद से अपनी सरकारी नौकरी व गृहस्थ के दायित्वों के साथ हम आर्यसमाज में नियमित रूप से जाने, आर्य मित्रों से भेंट करने, आर्य पत्र-पत्रिकाओं का नियमित अध्ययन करने के साथ आर्य साहित्य को पढ़ने का कार्य करते रहे और जब भी कोई अवसर होता था तो उसकी प्रेस विज्ञप्ति बनाकर स्थानीय पत्रों में दे देते थे जो प्रकाशित हो जाती थी। सविता मासिक में सन् 1974 में हमारा एक पत्र छपा था। उन्हीं दिनों हिन्दी व संस्कृत के महत्व पर सम्पादक के नाम पत्र स्तम्भ में दैनिक हिन्दुस्तान व दैनिक वीर अर्जुन आदि दैनिक पत्रों में भी कुछ पत्र प्रकाशित हुए थे। यह एक प्रकार से हमारे लेखन कार्य के आरम्भ करने की भूमिका है। इसके बाद तो सन् 1994-1995 में एक वर्ष लगातार हम आर्यसमाज के सत्संगों का संचालन करते थे और वहां जो कार्यक्रम होता था उसे स्थानीय पत्रों को दो-तीन पृष्ठों की विज्ञाप्ति बनाकर दे देते थे जो सभी प्रमुख पत्रों दैनिक दूनदर्पण, हिन्दी हिमाचल टाइम्स, दून वैली मेल, दैनिक जागरण, अमर उजाला आदि में छपा करते थे।

कुछ देर पहले हमारा ध्यान देहरादून में गुरुकुल पौंधा से प्रकाशित उनकी मासिक पत्रिका ‘आर्ष ज्योति’ पर केन्द्रित हुआ। यह मासिक पत्रिका विगत 10 वर्षों से निरन्तर प्रकाशित हो रही है। वर्ष में पूरे 12 अंक प्रकाशित होते हैं जिसमें जून मास का अंक विशेषांक होता है। इस वर्ष का अंक वेद-वेदांग विषय पर प्रकाशित हुआ है। विगत वर्ष का विषय वेदों में कृषि विज्ञान विषयक था। जब से यह पत्रिका प्रकाशित होना आरम्भ हुई है, हमारे लेख इस पत्रिका में प्रकाशित होते रहते हैं। जुलाई मास का अंक तो प्रायः प्रत्येक वर्ष गुरुकुल उत्सव पर विस्तृत रिर्पोट के रूप में हमारा ही लेख होता है जिसमें हम उत्सव का पूरा विवरण देने के साथ सभी विद्वान वक्ताओं के प्रवचन दिया करते हैं। इस माह की 4+32 पृष्ठों की पत्रिका में 29 पृष्ठों की सामग्री हमारे गुरुकुल उत्सव पर लेख वा रिर्पोट के रूप में है। इस उत्सव में सद्धर्म सम्मेलन, वेद-वेदांग सम्मेलन, गोकृष्यादि रक्षा सम्मेलन, वैदिक कोश के लेखक पं. राजवीर शास्त्री पर स्मृति ग्रन्थ का लोकार्पण आदि विशेष कार्यक्रम हुए। इन सबका विवरण देते हुए हमने बड़े-छोटे लगभग 25 व्याख्यानों को इसमें सम्मिलित किया है। पत्रिका के कवर के अन्दर सभी विद्वानों के एकल रंगीन चित्र व दो सामूहिक चित्र प्रकाशित किये गये हैं। मुख पृष्ठ पर भी आमंत्रित विद्वानों के साथ गृरुकुल के नव-स्नातकों का एक समूह चित्र प्रकाशित किया गया है। इस अंक में दो पृष्ठों का एक सम्पादकीय पत्रिका के कार्यकारी सम्पादक विद्वान ब्रह्मचारी श्री शिवदेव आर्य जी का है जिसे ‘‘आभार” शीर्षक दिया गया है। यह भी बता दें कि पत्रिका के संरक्षकों में प्रमुख नाम स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी का है। परामर्श-दातृमण्डल में डा. रघुवीर वेदालंकार, प्रो. महावीर, आचार्य यज्ञवीर, श्री चन्द्रभूषण शास्त्री तथा मुख्य सम्पादकों में डा. धनंजय आर्य एवं युवा आर्य विद्वान, ओजस्वी वक्ता डा. रवीन्द्र कुमार जी का नाम है।

फेस बुक पर हम यह लेख दे रहे हैं। इस पत्रिका के मुख पृष्ठ व इसके बाद के दो पृष्ठों की प्रतियां भी अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। हम प्रयत्न करेंगे कि इस पत्रिका की पीडीएफ हमें प्राप्त हो जाये। प्राप्त होने पर हम इसे इमेल भी कर सकते हैं। हमारे लेख की पीडीएफ तो हमारे पास है ही। इसे भी हम पाठकों को भेज सकते हैं। यदि कोई फेसबुक पाठक हमारे इस विस्तृत ए4 आकार के 28 पृष्ठों के लेख को देखना चाहे तो हम उसे इमेल से भेज सकते हैं। इसके लिए हमें अपनी इमेल आईडी अवगत करा दें।

हम जब स्वयं इन विद्वानों के प्रवचनों को पढ़ते हैं तो हमें इन्हें पढ़कर सुखद अनुभव होता है। आर्ष ज्योति के अंक से हम आपको द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल देहरादून की आचार्य डा. अन्नपूर्णा ही का एक संक्षिप्त प्रवचन प्रस्तुत कर रहें। इसे हमने अभी पढ़ा है और यह हमें प्रेरणादायक व प्रभावशाली लगा है।

आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी का प्रवचन

द्रोणस्थ्ली कन्या गुरुकुल, देहरादून की आचार्या डा. अन्नापूर्णा जी ने कहा कि इस गुरुकुल के उत्सव में ज्ञान की गंगा बह रही है। आप सबको इस ज्ञान की गंगा में डुबकी लगामी चाहिये। उन्होंने कहा कि यदि आप इस ज्ञान की गंगा में डुबकी लगायेंगे तो भविष्य में होने वाले पापों से आप बच जायेंगे। परमात्मा ने वेद के द्वारा हमें सद्ज्ञान प्रदान किया है। वेद ही समस्त ज्ञान व विज्ञान का भण्डार है। वेद का पढ़ना पढ़ाना व उसका प्रचार करना हम सबका परम धर्म है। आत्मा, परमात्मा, प्रकृति का समस्त ज्ञान वेद में समाया हुआ है। वेद सभी मनुष्यों को सच्चा मनुष्य बनने की प्रेरणा करता है। विदुषी आचार्या जी ने कहा कि यदि हम वेदज्ञान युक्त नहीं बने तो हम मनुष्य वा आर्य नहीं हैं। आचार्या जी ने कहा कि वेद में विधि और निषेध दोनो प्रकार के कर्मों का विधान है। वेद अपौरुषेय ज्ञान है जिसका देने वाला परमात्मा है। वेदों में विधेय कर्म करने से हमारा जीवन बनेगा। वेद यज्ञ करने की भी प्रेरणा करते हैं। वेद सामान्य मनुष्य को श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव वाला मनुष्य बनाता है। वही मनुष्य योगी बनता है। वेद के गुणों से युक्त मनुष्य अन्य सभी मनुष्यों की रक्षा करता है। आचार्या जी ने कहा कि वेदों का प्रचार न होने से संसार अज्ञान में फंसा हुआ है। स्वामी दयानन्द जी ने वेद को घर-घर में पहुंचाने का प्रयत्न किया। अपने व्याख्यान को विराम देते हुए आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी ने लोगों को अपने बच्चों को गुरुकुलों में पढ़ाने की प्रेरणा की। ओ३म् शम्।

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