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“धन और विद्या में विद्यार्ज अधिक महत्वपूर्ण है”

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21 Jun 18
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“धन और विद्या में विद्यार्ज अधिक महत्वपूर्ण है” मनुष्य को अपने जीवन का निर्वाह करने के धन की आवश्यकता होती है। यदि किसी के पास धन नहीं है तो वह अपना भोजन, वस्त्र, निवास व घर तथा मान सम्मान को सुरक्षित रखते हुए इन सभी पदार्थों को प्राप्त नहीं कर सकता। इसके विपरीत यदि किसी के पास विद्या नहीं है तो फिर वह विद्वानों में तो सम्मान से वंचित रहता ही है अपितु उसका अपना निजी जीवन भी सुखमय नहीं होता। धन और विद्या दोनों का अपना अपना महत्व है। धन है परन्तु विद्या नहीं है तो मनुष्य उस धन का सदुपयोग नहीं कर सकता। उसे हर समय चोर, डाकुओं व ठगों का भय बना रहेगा। वह ज्ञान व विद्या न होने से अपने धन की भली प्रकार से रक्षा नहीं कर सकेगा। धन की रक्षा विद्या से होती है अर्थात् विद्या से युक्त बुद्धि से मनुष्य अपने धन व अन्य पदार्थों की रक्षा कर सकता है। अतः ज्ञान व विद्या का महत्व निर्विवाद है। अब विद्या व धन के साधनों पर भी संक्षेप में विचार कर लेते हैं।

विद्या के लिए मनुष्य को अपने माता-पिता व परिवार के बड़ों से संस्कार व ज्ञान की बातें प्राप्त होती हैं। पाठशाला जाने की आयु हो जाने पर वह पाठशाला भेजा जाता है जहां आचार्य व गुरुजन उसे अक्षरों आदि सहित अंकों का ज्ञान कराते हैं। धीरे धीरे वह विद्या प्राप्त करने के साथ अंकों की गणनायें करना सीख जाता है। उसे अपनी शारीरिक रक्षा के उपाय व उसके लिये वायु सेवन, भ्रमण, व्यायाम तथा संतुलित शाकाहारी भोजन पर निर्भर रहने के विषय में भी बताया जाता है। इनके साथ ही मनुष्य को ईश्वर, सृष्टि व आत्मा सहित अपने कर्तव्यों का ज्ञान भी आचार्यगणों द्वारा कराया जाता है। ऐसा करके मनुष्य धीरे धीरे ज्ञानी बनना आरम्भ हो जाता है। प्राचीन परम्परा के अनुसार मनुष्य को पहले व्याकरण पढ़ाया जाता था। आजकल भी मनुष्य को हिन्दी व अंग्रेजी का व्याकरण स्कूलों व विद्यालयों में पढ़ाया जाता है। व्याकरण सीख जाने पर युवक को बोलना व दूसरों से कैसे व्यवहार करना है, इन बातों का ज्ञान हो जाता है। संस्कृत का व्याकरण पढ़ लेने पर मनुष्य संस्कृत के ग्रन्थों का अध्ययन कर उनमें निहित विद्याओं को जान सकता है। इस प्रकार से वह जितना जितना अपने अध्ययन को अपने आचार्य की सहायता से बढ़ाता जाता है उतना ही ज्ञान उसका बढ़ता जाता है। विद्या पूरी होने पर वह पूर्ण ज्ञानी, जितना मनुष्य के लिए सम्भव है, को प्राप्त हो जाता है और उसके बाद वह अपने ज्ञान, स्वभाव आदि के अनुरूप काम करके पर्याप्त धन कमा सकता है। इससे वह अपने व अपने परिवार का जीवन निर्वाह कर सकता है। इसके लिए मनुष्य को परिश्रमशील वा पुरुषार्थी होना आवश्यक है। मनुष्य यदि परिश्रमशील व शुद्ध ज्ञान से युक्त बुद्धि वाला है तो फिर वह कोई भी काम सीख सकता है जिससे कि वह धनोपार्जन कर सकता है।

इसके विपरीत यदि मनुष्य ज्ञान प्राप्त करने में विफल रहता है तो उसके जीवन में क्षण क्षण बाद कठिनाईयां आती हैं जिसका समाधान उसे सूझता नहीं है। वह कुछ निर्णय लेता है तो वह गलत हो जाता है जिससे उसके धन की हानि होती है। इससे उसे क्लेश होना स्वाभाविक होता है। अतः मनुष्य को धन को दूसरा स्थान देना चाहिये और विद्या का स्थान प्रथम ही होता है। शास्त्रों में कहा गया कि ज्ञान के समान अन्य कोई बहुमूल्य पदार्थ नहीं है। सभी प्रकार ज्ञानों में सबसे मूल्यवान व महत्वपूर्ण ईश्वर व आत्मा का ज्ञान होता है जिसे ब्रह्मज्ञान कहते हैं। मनुष्य सांसारिक ज्ञान प्राप्त कर धन तो कमा सकता है, आजकल लोग प्रचुर धन कमा भी रहे हैं, उससे वह कुछ सीमा तक सुखी हो सकते हैं परन्तु ब्रह्मज्ञान विहीन मनुष्य ईश्वर का ध्यान व उपासना नहीं कर सकते। इसके लिए उसे ईश्वर व आत्मा का यथार्थ ज्ञान होना आवश्यक है। ऐसा करके ब्रह्म व सांसारिक ज्ञान को प्राप्त मनुष्य ईश्वर की उपासना व उससे प्राप्त होने वाले इहलोक व परलोक के लाभों से वंचित नहीं होता अपितु वह दोनों लोकों, मनुष्य जन्म व परजन्म, दोनों में सभी प्रकार के सुख व लाभों को प्राप्त होकर कल्याण को प्राप्त होता है। अतः सभी मनुष्यों को, मन लगे या न लगे, विद्या में अपने मन को अधिकाधिक लगाना चाहिये। ऐसा करके उसे जितना भी ज्ञान प्राप्त होगा, उससे उसे इस जन्म व परजन्म में अवश्य लाभ होगा।

इससे पूर्व की लेख को विराम दें, हम ऋषि दयानन्द जी के उदाहरण पर दृष्टि डालते हैं। ऋषि दयानन्द के पास अपना किसी प्रकार का धन नहीं था। न उन्होंने धन कमाया और न अपने व्यय के लिए कभी किसी से धन मांगा। उनके पास विद्या का धन व ज्ञान इतना अधिक था कि धनी लोग उनसे आकर्षित होते थे और उन्हें किसी प्रकार का कष्ट अनुभव न होने देते थे। उन्हें लेखन व प्रचार के लिए जिन साधनों की आवश्यकता होती थी, वह भी उनके शुभचिन्तक व अनुयायी उन्हें प्रदान करते थे। अतः विद्यासम्पन्न होकर और बिना किसी धनोपार्जन का काम किये भी उन्होंने देश व विश्व में सम्मान पाया और अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखते हुए वेद प्रचार वा धर्म प्रचार का कार्य किया। उन्हें कभी धन का अभाव नहीं आया। उनके जीवनकाल में सहस्रों व लाखों लोग उनके समर्थक थे। लोग उनसे ईर्ष्या भी करते थे। ईर्ष्या करने वालों को ऋषि दयानन्द के मानव व प्राणीमात्र के हितकारी कार्यों का ज्ञान नहीं था। अतः वह उन्हें हानि पहुंचाने के उपाय करते रहते थे। अन्त में वह सफल भी हुए। विष देकर उनका प्राणान्त कर दिया गया। इस बलिदान से ऋषि दयानन्द हमेशा के लिए अमर हो गये। आज भी उनकी कीर्ति गाते हुए उनके अनुयायी थकते नहीं है। इससे सफल जीवन और क्या हो सकता है? आज भी हम ऋषि दयानन्द के जीवन चरित्र और उनके ग्रन्थों से लाभान्वित हो रहे हैं। हममें यदि कुछ थोड़ा भी ईश्वर, आत्मा व सांसारिक ज्ञान है तो वह ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी विद्वानों वा आर्यसमाज की देन है। हम इनके ऋण से कभी भी उऋण नहीं हो सकते। धर्माचरण करने वाले ज्ञानी मनुष्य को धन का अभाव नहीं होता। अतः सभी मनुष्यों को ज्ञानी बन कर परोपकार व धर्म के कार्य करने चाहिये। इससे उन्हें धन भी प्राप्त होगा और उनके जीवन व बाद में भी उनका यश व कीर्ति समाज में फैलेगी। इसी के साथ हम इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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